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विजय दिवस: भारत-पाक जंग में देवभूमि के 255 जवानों ने दी थी शहादत, ये है सूबेदार दरबारा सिंह की गाथा - सुबेदार मेजर दरबारा सिंह

विजय दिवस 16 दिसम्बर को 1971 के युद्ध में भारत की पाकिस्तान पर जीत के कारण मनाया जाता है. इस युद्ध में उत्तराखंड के 255 जवान शहीद हुए थे. इस युद्ध के बाद पूर्वी पाकिस्तान आजाद हो गया था, जो आज बांग्लादेश के नाम से जाना जाता है.

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विजय दिवस
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Published : Dec 16, 2019, 8:17 AM IST

Updated : Dec 16, 2020, 1:25 PM IST

देहरादून: 16 दिसंबर 1971, यही वो दिन था जब 13 दिन की जंग के बाद पाकिस्तानी सेना ने भारत के सामने घुटने टेक दिये थे और नए देश बांग्लादेश का जन्म हुआ था. देश की रक्षा के लिए देवभूमि के रणबांकुरों के अदम्य साहस के आगे दुश्मनों ने हमेशा मुंह की खाई. तब से 16 दिसंबर को वीरता दिवस के रूप में मनाया जाता है. इस मौके पर ईटीवी भारत आपको देवभूमि के जांबाज सूबेदार मेजर दरबारा सिंह की शौर्य और बहादुरी की कहानी बताने जा रहा है.

रिटायर्ड ब्रिगेडियर आरएस रावत कहते हैं कि देवभूमि का हर परिवार किसी न किसी रूप में सेना से आज भी जुड़ा है. साल 1971 के भारत-पाक की जंग में भी दुश्मन को नाको चने चबाने में भी उत्तराखंड के जांबाज सबसे आगे थे.

आरएस रावत कहते हैं कि हमारे देश के पराकर्मी जवान मौत को सामने देखकर भी डगमगाते नहीं हैं. वो कैसे सेना का निशान आते ही सम्मान झुक जाता है. आखिर क्या होती है एक जवान के लिए उसकी सेना के निशान की अहमियत और कैसे जंग का वो एक किस्सा नेशनल डिफेंस अकेडमी खड़गवासल में होने वाली हर एक पासिंग आउट परेड का हिस्सा हमेशा-हमेशा के लिए बन गया.

देवभूमि के जवानों की शहादत

रिटायर्ड ब्रिगेडियर ने बताया कि सूबेदार मेजर दरबारा सिंह साल 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध का हिस्सा थे. दरबारा सिंह चीनी पलटन से मुकाबला करते करते वह अपने सीनियर लेफ्टिनेंट पलटा सिंह के साथ काफी आगे तक चल गए. सूबेदार दरबारा सिंह और लेफ्टिनेंट पलटा सिंह दोनों ने दुश्मनों से खूब लोहा लिया, लेकिन चीनी सेना की ओर से लगातार हो रही भारी गोला बारी के चलते लेफ्टिनेंट पलटा सिंह का सिर धड़ से अलग हो गया और सूबेदार दरबारा सिंह भी गोलीबारी से बचने के लिए जमीन में झुके तो अचानक इत्तफाक से लेफ्टिनेंट पलटा सिंह का धड़ उनके ऊपर गिर गया.

जिसके बाद लेफ्टिनेंट पलटा सिंह के धड़ से लगातार बह रहे खून से सूबेदार दरबार सिंह पूरी तरह से लथपथ हो गए. इसके बाद चीनी सेना भी वहां आई लेकिन दरबारा सिंह को खून से सना देख वह उन्हें भी मृत समझकर चले गए, जबकि वो खून लेफ्टिनेंट पलटा सिंह का था. दरबारा सिंह का पूरा शरीर लेफ्टिनेंट पलटा सिंह के खून से सना हुआ था.

इसके बाद दरबारा सिंह अगले चार-पांच दिनों तक लगातार नहाते रहे लेकिन उसके बावजूद भी उन्हें ऐसा लगता था कि जैसे लेफ्टिनेंट पलटा सिंह का लहू अभी भी उनके शरीर पर बाकी है. उन्हें ऐसा लगने लगा था कि लेफ्टिनेंट पलटा सिंह का वो खून उनके शरीर से जाने का नाम नहीं ले रहा है और उस दिन उन्हें अहसास हुआ कि सेना का वो निशान और कुछ नहीं बल्कि शहीद हुए जवानों का खून है.

पढ़ें- पीएनबी के 2018-19 के फंसे कर्ज में 2,617 करोड़ रुपये का अंतर: आरबीआई रिपोर्ट

आरएस रावत कहते हैं जिनकी वजह से हम सुरक्षित हैं और जो चाह कर भी हम अपने से अलग नहीं कर सकते. सेना के सभी कैडेट्स दरबारा सिंह की इस आपबीती को सुनकर सन्न रह गए और जहां निशान को तवज्जो नहीं दी जा रही थी, वहां सन्नाटा पसर गया. सूबेदार मेजर दरबारा सिंह ने कैडेट्स को बताया कि निशान और कुछ नहीं बल्कि देश के लिए अपने प्राणों का सर्वोच्च बलिदान करने वालों का लहू है ये उनकी शहादत है ये उनकी इज्जत और सम्मान है.

सेना के निशान में मौजूद इस इज्जत, आन, बान और शान के बारे में 4th गढ़वाल राइफल में अपनी परिवार की चौथी पीढ़ी के रूप में रहे ब्रिगेडियर आर एस रावत है. ब्रिगेडियर रावत के पूर्वजों ने भी सेना में योगदान दिया है. अब वो रिटायर्ड हो चुके हैं लेकिन सेना और एक जवान के उसूलों को उसके कर्तव्यों को लेकर आज भी जज्बा रखते हैं. उनका कहना है कि भारतीय सेना ने जो जीने का जज्बा और जुनून दिया है उसका कर्ज वो कभी नहीं उतार सकते हैं.

देहरादून: 16 दिसंबर 1971, यही वो दिन था जब 13 दिन की जंग के बाद पाकिस्तानी सेना ने भारत के सामने घुटने टेक दिये थे और नए देश बांग्लादेश का जन्म हुआ था. देश की रक्षा के लिए देवभूमि के रणबांकुरों के अदम्य साहस के आगे दुश्मनों ने हमेशा मुंह की खाई. तब से 16 दिसंबर को वीरता दिवस के रूप में मनाया जाता है. इस मौके पर ईटीवी भारत आपको देवभूमि के जांबाज सूबेदार मेजर दरबारा सिंह की शौर्य और बहादुरी की कहानी बताने जा रहा है.

रिटायर्ड ब्रिगेडियर आरएस रावत कहते हैं कि देवभूमि का हर परिवार किसी न किसी रूप में सेना से आज भी जुड़ा है. साल 1971 के भारत-पाक की जंग में भी दुश्मन को नाको चने चबाने में भी उत्तराखंड के जांबाज सबसे आगे थे.

आरएस रावत कहते हैं कि हमारे देश के पराकर्मी जवान मौत को सामने देखकर भी डगमगाते नहीं हैं. वो कैसे सेना का निशान आते ही सम्मान झुक जाता है. आखिर क्या होती है एक जवान के लिए उसकी सेना के निशान की अहमियत और कैसे जंग का वो एक किस्सा नेशनल डिफेंस अकेडमी खड़गवासल में होने वाली हर एक पासिंग आउट परेड का हिस्सा हमेशा-हमेशा के लिए बन गया.

देवभूमि के जवानों की शहादत

रिटायर्ड ब्रिगेडियर ने बताया कि सूबेदार मेजर दरबारा सिंह साल 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध का हिस्सा थे. दरबारा सिंह चीनी पलटन से मुकाबला करते करते वह अपने सीनियर लेफ्टिनेंट पलटा सिंह के साथ काफी आगे तक चल गए. सूबेदार दरबारा सिंह और लेफ्टिनेंट पलटा सिंह दोनों ने दुश्मनों से खूब लोहा लिया, लेकिन चीनी सेना की ओर से लगातार हो रही भारी गोला बारी के चलते लेफ्टिनेंट पलटा सिंह का सिर धड़ से अलग हो गया और सूबेदार दरबारा सिंह भी गोलीबारी से बचने के लिए जमीन में झुके तो अचानक इत्तफाक से लेफ्टिनेंट पलटा सिंह का धड़ उनके ऊपर गिर गया.

जिसके बाद लेफ्टिनेंट पलटा सिंह के धड़ से लगातार बह रहे खून से सूबेदार दरबार सिंह पूरी तरह से लथपथ हो गए. इसके बाद चीनी सेना भी वहां आई लेकिन दरबारा सिंह को खून से सना देख वह उन्हें भी मृत समझकर चले गए, जबकि वो खून लेफ्टिनेंट पलटा सिंह का था. दरबारा सिंह का पूरा शरीर लेफ्टिनेंट पलटा सिंह के खून से सना हुआ था.

इसके बाद दरबारा सिंह अगले चार-पांच दिनों तक लगातार नहाते रहे लेकिन उसके बावजूद भी उन्हें ऐसा लगता था कि जैसे लेफ्टिनेंट पलटा सिंह का लहू अभी भी उनके शरीर पर बाकी है. उन्हें ऐसा लगने लगा था कि लेफ्टिनेंट पलटा सिंह का वो खून उनके शरीर से जाने का नाम नहीं ले रहा है और उस दिन उन्हें अहसास हुआ कि सेना का वो निशान और कुछ नहीं बल्कि शहीद हुए जवानों का खून है.

पढ़ें- पीएनबी के 2018-19 के फंसे कर्ज में 2,617 करोड़ रुपये का अंतर: आरबीआई रिपोर्ट

आरएस रावत कहते हैं जिनकी वजह से हम सुरक्षित हैं और जो चाह कर भी हम अपने से अलग नहीं कर सकते. सेना के सभी कैडेट्स दरबारा सिंह की इस आपबीती को सुनकर सन्न रह गए और जहां निशान को तवज्जो नहीं दी जा रही थी, वहां सन्नाटा पसर गया. सूबेदार मेजर दरबारा सिंह ने कैडेट्स को बताया कि निशान और कुछ नहीं बल्कि देश के लिए अपने प्राणों का सर्वोच्च बलिदान करने वालों का लहू है ये उनकी शहादत है ये उनकी इज्जत और सम्मान है.

सेना के निशान में मौजूद इस इज्जत, आन, बान और शान के बारे में 4th गढ़वाल राइफल में अपनी परिवार की चौथी पीढ़ी के रूप में रहे ब्रिगेडियर आर एस रावत है. ब्रिगेडियर रावत के पूर्वजों ने भी सेना में योगदान दिया है. अब वो रिटायर्ड हो चुके हैं लेकिन सेना और एक जवान के उसूलों को उसके कर्तव्यों को लेकर आज भी जज्बा रखते हैं. उनका कहना है कि भारतीय सेना ने जो जीने का जज्बा और जुनून दिया है उसका कर्ज वो कभी नहीं उतार सकते हैं.

Last Updated : Dec 16, 2020, 1:25 PM IST
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