अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर जानिए, उत्तराखंड की इन बेटियों की अनसुनी कहानियां - Uttarakhand's daughters
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर ईटीवी भारत आपको पहाड़ी प्रदेश उत्तराखंड की कुछ ऐसी महिलाओं से रू-ब-रू कराने जा रहा है. जिन्होंने समाज की बेड़ियों को तोड़ते हुए विश्व भर में अपनी एक अलग पहचान बनाई है. इनके द्वारा किए गए सराहनीय कार्यों की वजह से विश्व स्तर पर भारत और पहाड़ी प्रदेश उत्तराखंड को अलग पहचान मिली.
देहरादून: विश्व भर में हर साल आठ मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है, लेकिन इस दिन को मनाने की शुरुआत सबसे पहले 28 फरवरी 1909 में अमेरिका से हुई थी. दरअसल, 19वीं सदी के आते-आते यहां की महिलाओं ने अपने अधिकारों के प्रति जागरुकता दिखानी शुरू कर दी थी. जिसके बाद 15 हजार महिलाओं ने अपने लिए मताधिकार की मांग की थी. साथ ही उन्होंने अपने अच्छे वेतन और काम के घंटे कम करने के लिए भी मार्च निकाला था. ऐसे में यूनाइटेड स्टेट्स में 28 फरवरी 1909 को पहली बार राष्ट्र महिला दिवस मनाया गया.
वहीं, साल 1975 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने आठ मार्च के दिन को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के तौर पर मनाने की शुरुआत की थी. दरअसल, हर साल आठ मार्च को मनाए जाने वाले अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का मुख्य उद्देश्य महिलाओं को उनके मौलिक अधिकारों के प्रति जागरुक करना है. इसके साथ ही इस दिन आयोजित होने वाले विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से आम जनमानस को बेटा-बेटी में भेदभाव न करने का संदेश भी दिया जाता है.
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर ईटीवी भारत आपको पहाड़ी प्रदेश उत्तराखंड की कुछ ऐसी महिलाओं से रू-ब-रू कराने जा रहा है. जिन्होंने समाज की बेड़ियों को तोड़ते हुए विश्व भर में अपनी एक अलग पहचान बनाई है. वहीं इनके द्वारा किए गए सराहनीय कार्यों की वजह से विश्व स्तर पर भारत और पहाड़ी प्रदेश उत्तराखंड को अलग पहचान मिली है. इसमें चिपको आंदोलन की जन्मदात्री गौरा देवी, वीरांगना तीलू रौतेली, पर्वतारोही बछेंद्री पाल, लोक गायिका कबूतरी देवी, जागर गायिका बसंती बिष्ट और भारत की पहली महिला भारोत्तोलक कोच हंसा मनराल का नाम शुमार है.
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गौरा देवी
हरे भरे पेड़ों को कटने से बचाने के लिए 23 मार्च 1974 को गौरा देवी के नेतृत्व में प्रसिद्ध चिपको आंदोलन की शुरुआत की गई थी. यही कारण है कि गौरा देवी को चिपको आंदोलन की जननी भी कहा जाता है. इस विशेष आंदोलन के लिए गौरा देवी को साल 1986 में प्रथम वृक्ष मित्र पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. इस आंदोलन के तहत जंगल में खड़े हरे-भरे पेड़ो को कटने से बचाने के लिए स्थानीय ग्रामीण महिलाएं खुद पेड़ों से चिपक जाया करती थी.
वीरांगना तीलू रौतेली
तीलू रौतेली यानी तिलोत्तमा देवी उत्तराखंड के पौड़ी जनपद की एक ऐसी वीरांगना है, जो केवल 15 वर्ष की उम्र में ही युद्ध भूमि में कूद पड़ी थी. इस वीरांगना ने सात साल तक युद्ध लगाकर कुमाऊं के राजघराने कत्यूरों को भगाया था. दरअसल, जब भी कुमाऊं या गढ़वाल में फसल काटी जाती थी. तब सैनिक लूटपाट करने पहुंच जाते थे. जिससे स्थानीय ग्रामीण खासे परेशान रहते थे. ऐसे में तीलू ने स्थानीय ग्रामीणों के साथ फौज गठित कर कत्यूरों का सर्वनाश किया था, लेकिन अंत में जब तीलू रौतेली लड़ाई जीतकर अपने गांव गुराड़ वापस लौट आई थी. तब सैनिक रजवाड़ों ने धोखे से उनकी हत्या कर दी थी.
पर्वतारोही बछेंद्री पाल
मूल रूप से उत्तराखंड के उत्तरकाशी जनपद की रहने वाली बछेंद्री पाल माउंट एवरेस्ट फतेह करने वाली पहली भारतीय महिला है. सन 1984 में बछेंद्री पाल ने माउंट एवरेस्ट फतह कर यहां भारत का तिरंगा फहराया था. वहीं, अब इसकी ऊंचाई को छूने वाले वो विश्व की पांचवीं महिला पर्वतारोही हैं.
हंसा मनराल
पिथौरागढ़ के भाटकोट में जन्मी हंसा मनराल भारत की पहली महिला भारोत्तोलक कोच रही है. इनके दिशा-निर्देश में पहली बार भारतीय भारत्तोलक महिलाओं ने विश्व भारोत्तोलन प्रतियोगिता में पांच रजत और दो कांस्य पदक जीते थे. वहीं, चीन में आयोजित एशियन चैंपियनशिप में भी भारतीय महिला टीम ने तीन स्वर्ण, चार रजत और 14 कांस्य पदक प्राप्त किए हैं. यही कारण है कि भारत सरकार की ओर से 29 सितंबर 2001 को हनसा मनराल को द्रोणाचार्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया. बता दें कि, मल्लेश्वरी, रोमा देवी या ज्योत्सना दत्ता सभी वो नाम हैं जो हंसा मनराल के प्रशिक्षणार्थी रही हैं.
कबूतरी देवी
कुमाऊं कोकिला के नाम से अपनी पहचान बनाने वाली कबूतरी देवी राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित हैं. बता दें कि, कबूतरी देवी एक भारतीय उत्तराखंडी लोक गायिका थी. जिन्होंने 70 से 80 के दशक में उत्तराखंड के लोक गीतों को आकाशवाणी और अन्य मंचों के माध्यम से प्रसारित किया था. उनके गीतों में पलायन, चिड़िया, पहाड़, नदी नाले, जंगल, घास के मैदान और प्रदेश के प्रसिद्ध मंदिरों का जिक्र हुआ करता था.
बसंती देवी बिष्ट
पहाड़ी प्रदेश उत्तराखंड के हर घर में हर शुभ मूहर्त पर मां भगवती नंदा के जागरों का गायन किया जाता है, लेकिन आज यह परंपरा कहीं खोती जा रही है. ऐसे में लोक गायिका बसंती देवी बिष्ट ने उत्तराखंड के हर घर तक जागर पहुंचाने का काम किया. इसके लिए उन्हें 26 जनवरी 2017 को भारत सरकार की ओर से पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया. यहां आपको बता दें कि, लोग गायिका बसंती बिष्ट ने अपने गीतों के माध्यम से उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दर्द को भी बखूबी बयां किया. आज भी वह अपने लिखे गीतों के जरिए लोगों से राज आंदोलन को सशक्त करने का आह्वान करती रहती हैं.
बहरहाल, प्रदेश कि इन जानी-मानी महिलाओं से रू-ब-रू होकर अब आप इस बात का अंदाजा बखूबी लगा सकते हैं कि पहाड़ी प्रदेश उत्तराखंड की महिलाएं आखिर कितनी सशक्त हैं. यह उत्तराखंड की महिलाएं ही हैं जो पहाड़ के कठिन जीवन के बीच भी प्रसन्नता पूर्वक ज़िंदगी बिता रही हैं.