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उत्तराखंडः पंचायत एक्ट में संशोधन सरकार के लिए बना गले की फांस, कोर्ट ने भी जवाब मांगा - देहरादून न्यूज

पंचायत एक्ट में संशोधन के बाद सरकार की जमकर आलोचना हो रही है.पंचायत मंच का सरकार पर आरोप है कि भारत गांवों का देश है और विकास की इस बुनियादी इकाई को कमजोर करने का लगातार सरकार प्रयास कर रही है.

पंचायत एक्ट
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Published : Aug 24, 2019, 10:28 AM IST

Updated : Aug 24, 2019, 11:25 AM IST

देहरादूनः पंचायत चुनावों को लेकर सरकार के सामने मुश्किलों का पहाड़ समय के साथ-साथ और बड़ा होता जा रहा है. पंचायत जन अधिकार मंच के जरिए राज्य के तमाम पंचायत प्रतिनिधियों ने कोर्ट में सरकार के सामने सवालों की झड़ी लगाई है जिनका जवाब सरकार से देते नहीं बन रहा है. जानिए पंचायत एक्ट संशोधन पर खड़े होने वाले वो तमाम तकनीकी सवाल.

पंचायत एक्ट में संशोधन का लगातार विरोध जारी है.

पंचायत चुनावों को लेकर जहां एक तरफ सरकार प्रशासनिक तैयारियों में लगी है, तो वहीं दूसरी तरफ कई अन्य संगठन सरकार को घेरने में लगे हैं. सरकार द्वारा पंचायत एक्ट में शैक्षणिक योग्यता और दो बच्चों को लेकर किये गये संशोधन के बाद कई तरह के सवाल खड़े किये जा रहे हैं.

सरकार द्वारा पंचायत एक्ट में किये गये इस तरह के तमाम संशोधन के बात पंचायतों से जुड़े तमाम लोग इस फैसले का विरोध कर रहे हैं, तो वहीं पंचायत से जुड़े तमाम प्रतिनिधियों द्वारा सरकार के इस फैसले के खिलाफ एक पंचायत जन अधिकार मंच का गठन किया गया है. जिसके संयोजक जोतसिंह बिष्ट द्वारा सभी पंचायत प्रतिनिधियों को पत्र लिखकर इस मंच पर आने की अपील की है.

यह भी पढ़ेंः हल्द्वानी में तीन तलाक के दो मामले आए सामने, गर्भवती महिला ने लगाई इंसाफ की गुहार

जोत सिंह बिष्ट ने बताया कि उनके द्वारा सरकार द्वारा लिए गये इस अव्यवहारिक फैसले के खिलाफ कोर्ट में आवाज उठाई गई जिस पर कोर्ट ने सरकार से संशोधित पंचायत एक्ट पर नोटिस जारी कर तमाम बिन्दुओं पर जवाब मांगा है.
संशोधित पंचायत एक्ट पर कुछ तकनीकी सवाल

1- संशोधित शैक्षिक योग्यता के अनुसार क्या मिल पायेगा पंचायत में प्रत्याशी?
उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्र की साक्षरता दर 65 फीसदी है और ग्रामीण क्षेत्र का अगर अध्ययन किया जाए तो गांव में थोड़ा भी पढ़ लिख जाने वाला व्यक्ति रोजगार के लिए शहर की ओर पलायन कर जाता है. ऐसे में एक ग्राम पंचायत के गठन के लिए न्यूनतम 8 लोगों की जरुरत होती है जिसमें एक प्रधान और सात सदस्य. गांव की आबादी के चलते ये संख्या 15 या 16 तक भी चली जाती है.

एक पद के लिए तीन लोग भी अगर चुनाव लड़ते हैं तो गांव में कम से कम 25 से 30 लोग आठवीं और दसवीं पास की जरुरत है तो क्या ऐसे में संशोधित पंचायत एक्ट के अनुसार उत्तराखंड के उस दूरस्थ गांव में जिसने हमेशा संसाधनों की कमी के बीच गुजारा किया है वहां क्या 10 वीं और 8वीं पास 25 से 30 लोग मिल पाएंगे ?

2- पंचायत एक्ट संशोधन वालों ने क्या पिछले पंचायत चुनावों का अध्ययन नहीं किया था?
उत्तराखंड में वर्ष 2008 और 2014 के हुए त्रिस्तरीय पंचायतों के चुनावों पर अगर नजर डाली जाय तो पंचायतों के तकरीबन 15 हजार पद प्रत्याशी न मिलने या फिर अन्य तकनीकी कारणों की वजह से खाली रह गये थे. जिसका अगर अध्ययन किया जाय तो साफ पता चलता है कि उत्तराखंड ग्रामीण क्षेत्र में चुनावों को बढ़ावा देने के लिए और अधिक सहूलियत और सरलता देने की जरुरत है

लेकिन सरकार द्वारा खड़ी की गई सख्ताई क्या पिछले चुनावों की इस रिक्तता को और बढ़ावा नहीं देगी. पिछले पंचायत चुनावों की तुलना में से यदि देखा जाए तो पंचायत एक्ट में हुए इन नए संशोधनों के बाद इस बार के पंचायत चुनावों में 70 फीसदी पंचायतों के गठन पर खतरा मंडरा रहा है.

3- जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर कहीं सीमांत गांव न हो जाएं खाली!
जनसंख्या के आंकड़ों का अगर अध्यन किया जाए तो उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में जनसंख्या वृद्धि दर 2001 में 75 फीसदी से घटकर 2011 में 69 फीसदी हो गई थी. यानि उत्तराखंड के गांवों में जनसख्यां वृद्धि में 5 फीसदी की कमी आयी है. एक दूसरे पहलू पर अगर नजर डाली जाय तो राज्य गठन के बाद से ही जनगणना के आंकड़ों के अनुसार मैदानी जिलों के अपेक्षा पर्वतीय जिलों के ग्रामीण क्षेत्रों में जनसंख्या वृद्धि बहुत कम हुई है.

ऐसे में सीमावर्ती राज्य उत्तराखंड में जहां पहले से ही पलायन का दंश राज्य को खोखला करता जा रहा है वहां जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर ये फैसला गांवों को खाली करने की ओर प्रेरणा देता नजर आता है तो क्या कहना गलत होगा कि पंचायत एक्ट में दो बच्चों को लेकर लिया गया ये फैसला सीमावर्ती राज्य होने के बावजूद सीमांत गांवों और ज्यादा वीरानियत की ओर धकेल रहा है. साथ ही एक सवाल यह भी उठता है कि यदि यह फैसला भविष्य से लागू होता तो इससे कितना बड़ा नुकसान हो रहा था ?

कुछ और सवाल सवाल भी
4- पहले से आरक्षित ओबीसी को संशोधित पंचायत एक्ट में आरक्षण क्यों नहीं?
5- राज्य में 70 फीसदी से ज्यादा ग्रामीण लोग सहकारी समिति के सदस्य हैं. ऐसे में को-आपरेटिव सोसाइटी के सदस्यों को चुनाव लड़ने से रोकना पंचायतों के गठन पर एक और खतरे की ओर इशारा कर रहा है.
6- जब विधायकों और सांसदों के वेतन भत्तों और सुख सुविधाओं में लगातार बढ़ोतरी हुई है तो पंचायत के बजट में कटौती और पंचायत प्रतिनिधियों के वेतन-भत्ते में कटौती क्यों ?

पंचायत जन अधिकार मंच के सरकार पर आरोप

पंचायत जन अधिकार मंच का आरोप है कि सरकार समय से चुनाव न करवाकर पंचायत प्रतिनिधियों का दायित्व प्रशासकों पर रखकर जनता के अधिकारों से खिलवाड़ कर रही है. पंचायत जन अधिकार मंच के संयोजक जोत सिंह बिष्ट का कहाना है कि लोकसभा चुनावों में पूर्ण बहुमत के साथ जीतने के बाद भी ये उत्तराखंड सरकार की विफलाताओं का ही डर है कि वो पंचायत चुनाव समय से करवाने का साहस नहीं कर पा रही है.

साथ ही सरकार द्वारा बिना तैयारी के पंचायत एक्ट संशोधन कर पंचायतों के गठन न होकर अपने नामित कार्यकताओं को स्थापित करने का ये असंवैधानिक और अव्यवहारिक तरीका लेकर आयी है. पंचायत जन अधिकार मंच का सरकार पर ये भी आरोप है कि सरकार एक तरफ रिवर्स पलायन की बात करती है तो दूसरी तरफ खुद ही जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर राज्य के पहले से ही वीरान हो चुके सीमांत गांवों को खाली करने को बढ़ावा देने का काम कर रही है.

पंचायत मंच का सरकार पर आरोप है कि भारत गांवों का देश है और विकास की इस बुनियादी इकाई को कमजोर करने का लगातार सरकार प्रयास कर रही है. वो बात चाहे पंचायत के बजट कटौती की हो या फिर पंचायत प्रतिनिधियों के वेतन भत्ते की बात. सरकार द्वारा लगातर पंचायतों को कमजोर करने का प्रयास किया जा रहा है.

देहरादूनः पंचायत चुनावों को लेकर सरकार के सामने मुश्किलों का पहाड़ समय के साथ-साथ और बड़ा होता जा रहा है. पंचायत जन अधिकार मंच के जरिए राज्य के तमाम पंचायत प्रतिनिधियों ने कोर्ट में सरकार के सामने सवालों की झड़ी लगाई है जिनका जवाब सरकार से देते नहीं बन रहा है. जानिए पंचायत एक्ट संशोधन पर खड़े होने वाले वो तमाम तकनीकी सवाल.

पंचायत एक्ट में संशोधन का लगातार विरोध जारी है.

पंचायत चुनावों को लेकर जहां एक तरफ सरकार प्रशासनिक तैयारियों में लगी है, तो वहीं दूसरी तरफ कई अन्य संगठन सरकार को घेरने में लगे हैं. सरकार द्वारा पंचायत एक्ट में शैक्षणिक योग्यता और दो बच्चों को लेकर किये गये संशोधन के बाद कई तरह के सवाल खड़े किये जा रहे हैं.

सरकार द्वारा पंचायत एक्ट में किये गये इस तरह के तमाम संशोधन के बात पंचायतों से जुड़े तमाम लोग इस फैसले का विरोध कर रहे हैं, तो वहीं पंचायत से जुड़े तमाम प्रतिनिधियों द्वारा सरकार के इस फैसले के खिलाफ एक पंचायत जन अधिकार मंच का गठन किया गया है. जिसके संयोजक जोतसिंह बिष्ट द्वारा सभी पंचायत प्रतिनिधियों को पत्र लिखकर इस मंच पर आने की अपील की है.

यह भी पढ़ेंः हल्द्वानी में तीन तलाक के दो मामले आए सामने, गर्भवती महिला ने लगाई इंसाफ की गुहार

जोत सिंह बिष्ट ने बताया कि उनके द्वारा सरकार द्वारा लिए गये इस अव्यवहारिक फैसले के खिलाफ कोर्ट में आवाज उठाई गई जिस पर कोर्ट ने सरकार से संशोधित पंचायत एक्ट पर नोटिस जारी कर तमाम बिन्दुओं पर जवाब मांगा है.
संशोधित पंचायत एक्ट पर कुछ तकनीकी सवाल

1- संशोधित शैक्षिक योग्यता के अनुसार क्या मिल पायेगा पंचायत में प्रत्याशी?
उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्र की साक्षरता दर 65 फीसदी है और ग्रामीण क्षेत्र का अगर अध्ययन किया जाए तो गांव में थोड़ा भी पढ़ लिख जाने वाला व्यक्ति रोजगार के लिए शहर की ओर पलायन कर जाता है. ऐसे में एक ग्राम पंचायत के गठन के लिए न्यूनतम 8 लोगों की जरुरत होती है जिसमें एक प्रधान और सात सदस्य. गांव की आबादी के चलते ये संख्या 15 या 16 तक भी चली जाती है.

एक पद के लिए तीन लोग भी अगर चुनाव लड़ते हैं तो गांव में कम से कम 25 से 30 लोग आठवीं और दसवीं पास की जरुरत है तो क्या ऐसे में संशोधित पंचायत एक्ट के अनुसार उत्तराखंड के उस दूरस्थ गांव में जिसने हमेशा संसाधनों की कमी के बीच गुजारा किया है वहां क्या 10 वीं और 8वीं पास 25 से 30 लोग मिल पाएंगे ?

2- पंचायत एक्ट संशोधन वालों ने क्या पिछले पंचायत चुनावों का अध्ययन नहीं किया था?
उत्तराखंड में वर्ष 2008 और 2014 के हुए त्रिस्तरीय पंचायतों के चुनावों पर अगर नजर डाली जाय तो पंचायतों के तकरीबन 15 हजार पद प्रत्याशी न मिलने या फिर अन्य तकनीकी कारणों की वजह से खाली रह गये थे. जिसका अगर अध्ययन किया जाय तो साफ पता चलता है कि उत्तराखंड ग्रामीण क्षेत्र में चुनावों को बढ़ावा देने के लिए और अधिक सहूलियत और सरलता देने की जरुरत है

लेकिन सरकार द्वारा खड़ी की गई सख्ताई क्या पिछले चुनावों की इस रिक्तता को और बढ़ावा नहीं देगी. पिछले पंचायत चुनावों की तुलना में से यदि देखा जाए तो पंचायत एक्ट में हुए इन नए संशोधनों के बाद इस बार के पंचायत चुनावों में 70 फीसदी पंचायतों के गठन पर खतरा मंडरा रहा है.

3- जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर कहीं सीमांत गांव न हो जाएं खाली!
जनसंख्या के आंकड़ों का अगर अध्यन किया जाए तो उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में जनसंख्या वृद्धि दर 2001 में 75 फीसदी से घटकर 2011 में 69 फीसदी हो गई थी. यानि उत्तराखंड के गांवों में जनसख्यां वृद्धि में 5 फीसदी की कमी आयी है. एक दूसरे पहलू पर अगर नजर डाली जाय तो राज्य गठन के बाद से ही जनगणना के आंकड़ों के अनुसार मैदानी जिलों के अपेक्षा पर्वतीय जिलों के ग्रामीण क्षेत्रों में जनसंख्या वृद्धि बहुत कम हुई है.

ऐसे में सीमावर्ती राज्य उत्तराखंड में जहां पहले से ही पलायन का दंश राज्य को खोखला करता जा रहा है वहां जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर ये फैसला गांवों को खाली करने की ओर प्रेरणा देता नजर आता है तो क्या कहना गलत होगा कि पंचायत एक्ट में दो बच्चों को लेकर लिया गया ये फैसला सीमावर्ती राज्य होने के बावजूद सीमांत गांवों और ज्यादा वीरानियत की ओर धकेल रहा है. साथ ही एक सवाल यह भी उठता है कि यदि यह फैसला भविष्य से लागू होता तो इससे कितना बड़ा नुकसान हो रहा था ?

कुछ और सवाल सवाल भी
4- पहले से आरक्षित ओबीसी को संशोधित पंचायत एक्ट में आरक्षण क्यों नहीं?
5- राज्य में 70 फीसदी से ज्यादा ग्रामीण लोग सहकारी समिति के सदस्य हैं. ऐसे में को-आपरेटिव सोसाइटी के सदस्यों को चुनाव लड़ने से रोकना पंचायतों के गठन पर एक और खतरे की ओर इशारा कर रहा है.
6- जब विधायकों और सांसदों के वेतन भत्तों और सुख सुविधाओं में लगातार बढ़ोतरी हुई है तो पंचायत के बजट में कटौती और पंचायत प्रतिनिधियों के वेतन-भत्ते में कटौती क्यों ?

पंचायत जन अधिकार मंच के सरकार पर आरोप

पंचायत जन अधिकार मंच का आरोप है कि सरकार समय से चुनाव न करवाकर पंचायत प्रतिनिधियों का दायित्व प्रशासकों पर रखकर जनता के अधिकारों से खिलवाड़ कर रही है. पंचायत जन अधिकार मंच के संयोजक जोत सिंह बिष्ट का कहाना है कि लोकसभा चुनावों में पूर्ण बहुमत के साथ जीतने के बाद भी ये उत्तराखंड सरकार की विफलाताओं का ही डर है कि वो पंचायत चुनाव समय से करवाने का साहस नहीं कर पा रही है.

साथ ही सरकार द्वारा बिना तैयारी के पंचायत एक्ट संशोधन कर पंचायतों के गठन न होकर अपने नामित कार्यकताओं को स्थापित करने का ये असंवैधानिक और अव्यवहारिक तरीका लेकर आयी है. पंचायत जन अधिकार मंच का सरकार पर ये भी आरोप है कि सरकार एक तरफ रिवर्स पलायन की बात करती है तो दूसरी तरफ खुद ही जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर राज्य के पहले से ही वीरान हो चुके सीमांत गांवों को खाली करने को बढ़ावा देने का काम कर रही है.

पंचायत मंच का सरकार पर आरोप है कि भारत गांवों का देश है और विकास की इस बुनियादी इकाई को कमजोर करने का लगातार सरकार प्रयास कर रही है. वो बात चाहे पंचायत के बजट कटौती की हो या फिर पंचायत प्रतिनिधियों के वेतन भत्ते की बात. सरकार द्वारा लगातर पंचायतों को कमजोर करने का प्रयास किया जा रहा है.

Intro:Note- ये स्पेशल खबर है। इस खबर के व्युजवल्स WRAP से भेजे गये हैं और बाइट mojo1165 से भेजी जा रही है।


एंकर- पंचायत चुनावों को लेकर सरकार के सामने मुश्किलों का पहाड़ समय के साथ साथ और बड़ा होता जा रहा है। पंचायत जन अधिकार मंच के जरिए राज्य के तमाम पंचायत प्रतिनिधियों ने कोर्ट में सरकार के सामने सवालों की झड़ी लगाई है जिनका जवाब सरकार से देते नही बन रहा है। जानिए पंचायत एक्ट संसोधन पर खड़े होने वोले वो तमाम तकनीकी सवाल.....Body:पचांयत चुनावों को लेकर जहां एक तरफ सरकार प्रशासनिक तैयारियों में लगी है तो वहीं दूसरी तरफ कई तरह के अन्य संगठन सरकार को घेरने में लगी है। सरकार द्वारा पंचायत एक्ट में शैक्षणिक योग्यता और दो बच्चों को लेकर किये गये संसोधन के बाद कई तरह के सवाल खड़े किये जा रहै है। सरकार द्वारा पंचायत एक्ट में किये गये इस तरह के तमाम संसोधन के बात पंचायतों से जुड़े तमाम लोग इस फैसले का विरोध कर रहें है तो वहीं पंचायत से जुड़े तमाम प्रतिनीधीयों द्वारा सरकार के इस फैसले के खिलाफ एक पचायत जन अधिकार मंच का गठन किया जा गया है जिसके संयोजक जोतसिंह बिष्ट द्वारा सभी पंचायत प्रतिनिधियों को पत्र लिख कर इस मंच पर आने का आव्हाहन किया गया है। जोत सिंह बिष्ट ने बताया कि उनके द्वारा सरकार द्वारा लिए गये इस अव्यवहारिक फैसले के खिलाफ उनके द्वारा कोर्ट में आवाज उठाई गई जिस पर कोर्ट ने सरकार से संसोधित पंचायत एक्ट पर नोटिस जारी कर तमाम बिन्दुओं पर जवाब मांगा है।

संसोधित पंचायत एक पर कुछ तकनीकी सवाल---

1- संसोधित शैक्षिक योग्यता के अनुसार क्या मिल पायेगा पचांयत में प्रत्याषी...?
उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्र की साक्षरता दर 65 फीसदी है। और ग्रामीण क्षेत्र का अगर अध्यन किया जाय तो गांव में थोड़ा भी पड़ लिख जाने वाला व्यक्ती रोजगार के लिए शहर की ओर पलायन कर जाता है एसे में एक ग्राम पचांयत के गठन के लिए न्युनतम 8 लोगों की जरुरत होती है, जिसमें एक प्रधान और सात सदस्या और गांव की आबादी के चलते ये सख्या 15 या 16 तक भी चली जाती है। एक पद के लिए तीन लोग भी अगर चुनाव लड़ते है तो गांव में कम से कम 25 से 30 लोग आठवी और दसवीं पास की जरुरत है तो क्या एसे में संसोधित पंचायत एक्ट के अनुसार उत्तराखंड के उस दूरस्थ गांव में जिसने हमेसा संसाधोन की कमी के बीच गुजारा किया है वहां क्या 10 वीं और 8वीं पास 25 से 30 लोग मिल पायेंगे...?

2- पंचायत एक्ट संसाधन वालो ने क्या पिछले पंचायत चुनावों का अध्यन नही किया था....?
उत्तराखंड में वर्ष 2008 और 2014 के हुए त्रिस्तरीय पंचायतों के चुनावों पर अगर नजर डाली जाय तो पंचायतों के तकरीबन 15 हाजर पद प्रत्याषी ना मिलने या फिर अन्य तकनीकी कारणों की वजह से खाली रह गये थे जिसका अगर अध्यन किया जाय तो साफ पता चलता है कि उत्तराखंड ग्रामीण क्षेत्र में चुनावों का बढ़ावा देने के लिए और अधिक सहूलियत और सरलता देने की जरुरत है लेकिन सरकार द्वारा खड़ी की गई सख्ताई क्या पिछले चुनावों की इस रिक्तता को और बढ़ावा नही देगी.. ? पिछले पंचायत चुनावों की तुलना में से यदी देखा जाय तो पचांयत एक्ट में हुए इन नए संसोधनों के बाद इस बार के पचायत चुनावों में 70 फिसदी पंचायतों के गठन पर खतरा मंडरा रहा है।

3- जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर कहीं सीमांत गांव ना हो जाए खाली...!
जनसंख्या के आकड़ों का अगर अध्यन किया जाय तो उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में जनसख्या वृधी दर 2001 में 75 फीसदी से घट कर 2011 में 69 फीसदी हो गई थी। यानी उत्तराखंड के गांवों में जनसख्यां वृधी में 5 फीसदी की कमी आयी है। एक दूसरे पहलू पर अगर नजर डाली जाय तो राज्य गठन केबाद से ही जनगणना के आंकड़ो के अनुसार मैदानी जिलों के अपेक्षा पर्वतीय जिलों के ग्रामीण क्षेत्रों में जनसख्या वृधी बहुत कम हुई है। एसे में सीमावर्ती राज्य उत्तराखंड में जहां पहले से ही पलायन का दंश राज्य को खोखला करता जा रहा है वहां जनसख्या नियंत्रण के नाम पर ये फैसला गावों को खाली करने की ओर प्रेरणा देता नजर आता है तो क्या कहना गलत होगा कि पंचायत एक्ट में दो बच्चों को लेकर लिया गया ये फैसला सीमावर्ती राज्य होने के बावजूद सीमांत गांवो ओर ज्यादा विरानियत की धकेल रहा है साथ ही एक सवाल यह भी उठता है कि यदि यह फैसला भविष्य से लागू होता तो इससे कितना बड़ा नुकसान हो रहा था...?

कुछ और सवाल सवाल भी-----
4- पहले से आरक्षित ओबीसी को संसोधित पंचायत एक्ट में आरक्षण क्यों नही...?
5- राज्य में 70 फीसदी से ज्यादा ग्रामीण लोग सहकारी समिती के सदस्य हैं, एसे में कोपरेटिव सोसाइटी के सदस्यों को चुनाव लड़ने से रोक लगाना पंचायतों के गठन पर एक और खतरा...
6- जब विधायकों और सासदों के वेतन भत्तों और सुख सुविधा में लगाता बड़ोत्तरी हुई है तो पंचायत के बजट में कटौती और पंचायत प्रतिनिधियों के वेतन-भत्ते में कटौती क्यों...?


पंचायत जन अधिकार मंच के सरकार पर आरोप-----
पचांयत जन अधिकार मंच का आरोप है कि सरकार समय से चुनाव ना करवा कर पंचायत प्रतिनिधियों का दायित्व प्रशासकों पर रख कर जनता के अधिकारों से खिलवाड़ कर रही है। पंचायत जनअधिकार मंच के संयोजक जोत सिंह बिष्ट का कहाना है कि लोकसभा चुनावों में पूर्णबहुमत के साथ जीतने के बाद भी ये उत्तराखंड सरकार की विफलाताओं का ही डर है कि वो पंचायत चुनाव समय से करवाने का साहस नही कर पा रही है और सरकार द्वारा बिना तैयारी के पंचायत एक्ट संसोधन कर पंचायतों के गठन ना होकर अपने नामित कार्यक्रताओं को स्थापित करने का ये असंवैधानिक और अव्यवहारिक तरीका लेकर आयी है। पंचायत जन अधिकार मंच का सरकरा पर ये भी आरोप है कि सरकार एक तरफ रिवर्स पलायन की बात करती है तो दूसरी तरफ खुद ही जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर राज्य के पहले से ही वीरान हो चुके सीमांत गांवों खाली करने को बढ़ावा देने का काम कर रही है। पंचायत मंच का सरकार पर आरोप है कि भारत गावों का देश है और विकास की इस बुनियादी इकाई को कमजोर करने का लगातार सरकार प्रयास कर रही है वो बात चाहै पंचायत के बजट कटौती की हो या फिर पंचायत प्रतिनिधियों के वेतन भत्ते की बात सरकार द्वारा लागातर पंचायतों को कमजोर करने का प्रयास किया जा रहा है।

बाइट- जोत सिंह बिष्ट, संयोजक पंचायत जन अधिकार मंच Conclusion:
Last Updated : Aug 24, 2019, 11:25 AM IST
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