देहरादून: सूबे के मुखिया त्रिवेंद्र सिंह रावत को बेहतर इलाज के लिए परिवार संग दिल्ली एम्स में भर्ती होना पड़ा. इससे पहले तमाम मंत्री और विधायक भी या तो दिल्ली या केंद्रीय स्वास्थ्य संस्थान एम्स पर ही भरोसा करते रहे हैं. ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि आखिर राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्थाएं इतनी लचर हैं कि प्रदेश के नीति नियंताओं को उस पर खुद ही भरोसा नहीं है. उत्तराखंड में बीमार स्वास्थ्य व्यवस्थाओं पर खुद सवाल उठाने वाले जनप्रतिनिधियों से आम जनता बस यही सवाल कर रही है कि गरीब तबका इलाज के लिए आखिर कहां जाए ?
स्वास्थ्य सेवाओं की जमीनी हकीकत
कोविड-19 से पहले भी प्रदेश में मरीजों को चारपाई पर ले जाते तस्वीरें यहां की कनेक्टिविटी और स्वास्थ्य व्यवस्थाओं पर सवाल खड़े करती रही है. लेकिन कोरोना संक्रमण के इस दौर में राजनेताओं के इलाज को लेकर प्रदेश के अस्पतालों पर विश्वास नहीं करने से प्रदेश की स्वास्थ्य सेवा पर सवाल उठने लाजिमी हैं. समय-समय पर प्रदेश के स्वास्थ्य व्यवस्था की तस्वीर सामने आती रही है, जिससे हालात किसी से छुपे नहीं हैं. अब ये साफ हो गया है कि उत्तराखंड के सरकारी अस्पताल केवल सर्दी, बुखार जैसी सीजनल बीमारियों का इलाज करने के लिए ही बनाए गए हैं. यही नहीं प्रदेश के मेडिकल कॉलेज भी इस लायक नहीं की यहां की स्वास्थ्य सुविधाओं पर विश्वास किया जा सकें.
महज रेफर सेंटर बन गए हैं सूबे के अस्पताल
बता दें कि राज्य सरकार ने भारी संख्या में चिकित्सकों की भर्ती की है और अस्पतालों में कई इक्विपमेंट्स भी स्थापित किए हैं. लेकिन, अब तक प्रदेश में कई स्थान ऐसे हैं. जहां सड़क मार्ग तक नहीं पहुंचाया जा सका है और मजबूरन लोगों को आज भी स्वास्थ्य के लिए कई किलोमीटर की दूरी नापनी पड़ती है. जहां स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर महज खानापूर्ति ही होती है और किसी भी गंभीर बीमारी को रेफर कर दिया जाता है.
ये भी पढ़ें : कर्मकार कल्याण बोर्ड कार्यालय को खाली करने का नोटिस, लाखों रुपए का बकाया
सुबोध उनियाल ने रखा पक्ष
कैबिनेट मंत्री सुबोध उनियाल ने कहा कि उन्होंने अपने बेटे का इलाज देहरादून में रहकर ही करवाया है. जहां तक सवाल मुख्यमंत्री का है तो उन्हें हाईकमान की तरफ से दिल्ली में इलाज कराने के लिए कहा गया होगा और इसलिए वे दिल्ली इलाज के लिए गए हैं. हालांकि, अपने मुख्यमंत्री और सरकार के बचाव में कैबिनेट मंत्री सुबोध उनियाल ने जो बात कहीं वह हजम करने वाली नहीं थी. ऐसा इसलिए कि जो सरकार प्रदेश के स्वास्थ्य व्यवस्था पर बड़े-बड़े दावा करती हो, उसके मंत्री, विधायक और मुख्यमंत्री ही यदि इन अस्पतालों को छोड़कर दूसरे संस्थानों और प्रदेशों के अस्पतालों पर भरोसा नहीं जताएंगे तो निश्चित तौर पर स्वास्थ्य सेवाओं पर सवाल उठेंगे. इस मुद्दे पर विपक्ष भी सत्ता पक्ष पर हमलावर है.
ये भी पढे़ं : मजदूरों का 100 करोड़ दबाए बैठा वित्त विभाग, कैमरे के सामने छलका श्रम मंत्री का दर्द
गौरतलब है कि राज्य के गठन को 20 साल हो गए हैं और इन 20 सालों में यदि हल्द्वानी और देहरादून को छोड़ दिया जाए तो पहाड़ी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाएं बेहद खराब स्तर पर है. पहाड़ों में बेस अस्पताल और मुख्यालय में बने अस्पतालों को गंभीर बीमारियों के लिए केवल रेफर सेंटर बन गए हैं. आखिर प्रदेश की जनता को कब बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मिलेंगी? जबकि सूबे के मुखिया ही स्वास्थ्य का जिम्मा संभाले हुए हैं.