देहरादून: प्रदेश में सशक्त भू कानून की मांग जोर पकड़ने लगी है. उत्तराखंड में लंबे समय से भू कानून की मांग को लेकर विभिन्न संगठनों का प्रदर्शन आए दिन राजधानी देहरादून में देखने को मिलता है. इसी कड़ी में भू कानून संयुक्त संघर्ष मोर्चा ने गांधी पार्क से कचहरी स्थित शहीद स्थल तक सांस्कृतिक रैली निकाली. इस दौरान रैली में शामिल महिलाओं ने प्रदेश में भू-कानून लागू करने की मांग की. इस रैली में राज्य आंदोलनकारी मंच, गढ़वाल सभा, देव शक्ति संगठन, युवा शक्ति संगठन सहित विभिन्न संगठनों ने महिला मंच के स्थापना दिवस के अवसर पर आज रैली निकाली.
इस दौरान महिलाओं का कहना है कि हम अपनी उत्तराखंडी अस्मिता, पहचान और सम्मान व संस्कृति को बचाने का प्रयास कर रहे हैं. इसके साथ ही उन्होंने कहा उत्तराखंड की जमीनें उत्तराखंड वासियों के हाथों में बची रह सकें, इसके लिए 2018 के भू-कानून को तत्काल रद्द किया जाए.
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बता दें आंदोलनकारी लगातार कह रहे हैं कि उत्तराखंड में लागू मौजूदा भू-कानून राज्य के लिए ठीक नहीं है. इस कानून का फायदा उठाकर बाहरी लोग यहां की जमीन खरीद रहे हैं. इस कानून से खेती और रिहायशी जमीनों की किल्लत होगी. बल्कि यहां की संस्कृति को भी इससे खतरा है. ऐसे में उत्तराखंड में हिमाचल की तर्ज पर सशक्त भू-कानून लागू करने की मांग जोर-शोर से उठने लगी हैं.
क्या होता है भू-कानून और उत्तराखंड में क्या है इसका इतिहास
भू-कानून का सीधा-सीधा मतलब भूमि के अधिकार से है. यानी आपकी भूमि पर केवल आपका अधिकार है न की किसी और का. जब उत्तराखंड बना था तो उसके बाद साल 2002 तक बाहरी राज्यों के लोग उत्तराखंड में केवल 500 वर्ग मीटर तक जमीन खरीद सकते थे. वर्ष 2007 में बतौर मुख्यमंत्री बीसी खंडूड़ी ने यह सीमा 250 वर्ग मीटर कर दी. इसके बाद 6 अक्टूबर 2018 को भाजपा के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत एक नया अध्यादेश लाए, जिसका नाम 'उत्तरप्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम,1950 में संशोधन का विधेयक' था. इसे विधानसभा में पारित किया गया.
इसमें धारा 143 (क), धारा 154(2) जोड़ी गई. यानी पहाड़ों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा को समाप्त कर दिया गया. अब कोई भी राज्य में कहीं भी भूमि खरीद सकता था. साथ ही इसमें उत्तराखंड के मैदानी जिलों देहरादून, हरिद्वार, यूएसनगर में भूमि की हदबंदी (सीलिंग) खत्म कर दी गई. इन जिलों में तय सीमा से अधिक भूमि खरीदी या बेची जा सकेगी.
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उत्तराखंड की अगर बात करें तो एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2000 के आंकड़ों पर नजर डालें तो उत्तराखंड की कुल 8,31,227 हेक्टेयर कृषि भूमि 8,55,980 परिवारों के नाम दर्ज थी. इनमें 5 एकड़ से 10 एकड़, 10 एकड़ से 25 एकड़ और 25 एकड़ से ऊपर की तीनों श्रेणियों की जोतों की संख्या 1,08,863 थी. इन 1,08,863 परिवारों के नाम 4,02,422 हेक्टेयर कृषि भूमि दर्ज थी.
यानी राज्य की कुल कृषि भूमि का लगभग आधा भाग. बाकी 5 एकड़ से कम जोत वाले 7,47,117 परिवारों के नाम मात्र 4,28,803 हेक्टेयर भूमि दर्ज थी. ये आंकड़े दर्शाते हैं कि, किस तरह राज्य के लगभग 12 फीसदी किसान परिवारों के कब्जे में राज्य की आधी कृषि भूमि है. बची 88 फीसदी कृषि आबादी भूमिहीन की श्रेणी में पहुंच चुकी है. हिमाचल के मुकाबले उत्तराखंड का भू कानून बहुत ही लचीला है इसलिए सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय लोग, एक सशक्त, हिमाचल के जैसे भू-कानून की मांग कर रहे हैं.
क्या है हिमाचल का भू-कानून: 1972 में हिमाचल में एक सख्त कानून बनाया गया. इस कानून के अंतर्गत बाहर के लोग हिमाचल में जमीन नहीं खरीद सकते थे. दरअसल, हिमाचल उस वक्त इतना सम्पन्न नहीं था. डर था कि कहीं हिमाचल के लोग बाहरी लोगों को अपनी जमीन न बेच दें. जाहिर सी बात थी कि वो भूमिहीन हो जाते. भूमिहीन होने का अर्थ है कि अपनी संस्कृति और सभ्यता को भी खोने का खतरा.
दरअसल, हिमाचल के प्रथम मुख्यमंत्री डॉ. यशवंत सिंह परमार ये कानून लेकर आए थे. लैंड रिफॉर्म एक्ट 1972 में प्रावधान के तहत एक्ट के 11वें अध्याय में Control on Transfer of Lands में धारा -118 के तहत हिमाचल में कृषि भूमि नहीं खरीदी जा सकती. गैर हिमाचली नागरिक को यहां जमीन खरीदने की इजाजत नहीं है. कमर्शियल प्रयोग के लिए आप जमीन किराए पे ले सकते हैं.
2007 में धूमल सरकार ने धारा-118 में संशोधन किया और कहा कि बाहरी राज्य का व्यक्ति, जो हिमाचल में 15 साल से रह रहा है, वो यहां जमीन ले सकता है. बाद में अगली सरकार ने इसे बढ़ा कर 30 साल कर दिया.