देहरादून: उत्तराखंड में इन दिनों चुनावी सरगर्मियां तेज हैं. राजनीतिक पार्टियां दलबदल से लेकर विधानसभा स्तर पर टिकट तक की किच-किच से गुजर रही हैं, लेकिन उत्तराखंड क्रांति दल के हालात कुछ अलग हैं. उत्तराखंड क्रांति दल में न तो दलबदल को लेकर कोई चिंता है और न ही कार्यकर्ताओं को जुटाने का कोई जोश. यूकेडी की इस खामोशी की क्या वजह है आइये जानते हैं.
चुनावी शोर-शराबे के बीच उत्तराखंड का एकमात्र क्षेत्रीय दल यूकेडी अब भी सन्नाटे में है. यहां पार्टी में किसी के आने की न तो खुशी है और न ही जाने की कोई चिंता. पार्टियां इन दिनों अपने नेताओं के दल छोड़ने की टेंशन में परिवार को एकजुट करने की कोशिश में जुटी हैं.
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कहीं ब्लॉक स्तर के नेता और कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर दूसरे दल में जा रहे हैं तो कहीं विधायकों ने भी अपने दल पर विश्वास नहीं किया. इस दल-बदल और चुनावी घमासान के बीच उत्तराखंड क्रांति दल बिल्कुल जुदा दिखाई दे रहा है.
दरअसल, उत्तराखंड क्रांति दल के आंगन में प्रदेश का कोई बड़ा चेहरा जाना ही नहीं चाहता. उधर सभी विधानसभाओं में कार्यकर्ताओं को जुटाना ही पार्टी के लिए खासा मुश्किल है. यहां तक की विधानसभाओं में पर्याप्त संख्या में चुनाव के दौरान बस्ते लगाने वाले ही पार्टी को नहीं मिल रहे हैं.
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इस मामले पर वरिष्ठ पत्रकार भगीरथ शर्मा कहते हैं कि राज्य में उत्तराखंड क्रांति दल ने अब तक जिस तरह की राजनीति की है, उससे उनका प्रदेश में वर्चस्व कम हुआ है. एक समय था जब उत्तराखंड क्रांति दल पर जनता को विश्वास दिखाई देता था, लेकिन अब पार्टी को खुद का अस्तित्व बचाना भी एक मुश्किल काम दिख रहा है.
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उत्तराखंड क्रांति दल के लिए यह बात बड़ी बात है, लेकिन पार्टी इस पर पार्टी कुछ खास काम करती हुई नहीं दिखाई दे रही है. प्रदेश में बड़े चेहरे तो दूर कार्यकर्ताओं की भी भारी किल्लत है. इसका असर चुनाव पर भी सीधे तौर से दिखाई देता है. उत्तराखंड क्रांति दल के नेता शांति प्रसाद भट्ट कहते हैं कि पार्टी के पास चुनाव को लेकर बहुत ज्यादा साधन नहीं हैं, लेकिन दल-बदल को लेकर जो स्थितियां हैं, उस पर यही कहा जा सकता है कि उत्तराखंड क्रांति दल में एक विचारधारा से जुड़े लोग रहते हैं. दलबदल करने वाले लोग केवल व्यक्तिगत लाभ के लिए पार्टी ज्वॉइन करते हैं.
सिमटती गई यूकेडी: राज्य के पहले विधानसभा चुनाव (2002) में यूकेडी ने चार सीटें जीतीं, लेकिन फिर कभी इसे दोहरा नहीं पाया. 2007 में यूकेडी को 3 और 2012 में केवल एक सीट मिली. राज्य गठन के बाद जब यूकेडी को मुद्दों पर फोकस कर जनाधार को मजबूत करना था, तभी वह सरकारों की कठपुतली बन गया. यूकेडी 2002 में गठित कांग्रेस सरकार का हिस्सा नहीं रहा, लेकिन सरकार के खिलाफ भी खड़ा नहीं हुआ.
यूकेडी ने 9 मुद्दों पर भाजपा को समर्थन दिया था. भाजपा ने यूकेडी को कैबिनेट मंत्री का एक पद दिया और यही पद उसके बिखरने का कारण भी बना. दिसंबर 2010 में यूकेडी ने सरकार से समर्थन वापस लिया लेकिन एक धड़ा कैबिनेट मंत्री दिवाकर भट्ट के नेतृत्व में सरकार के साथ जमा रहा. तब से लेकर अब तक यूकेडी अपने असतित्व की लड़ाई लड़ रहा है.