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प्रकृति का एक ऐसा योद्धा जिसने पद्मश्री ठुकराई, बहुगुणा की यादें - Memories of Sundarlal Bahuguna

लोगों का सपना होता है कि उन्हें समाज के लिए किए गए उनके कार्यों के लिए पद्म सम्मान मिलें. लेकिन सुंदरलाल बहुगुणा धरती के ऐसे लाल थे जिन्होंने पद्मश्री लेने से ही इनकार कर दिया था. क्या है ये पूरी कहानी पढ़िए...

बहुगुणा की यादें
बहुगुणा की यादें
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Published : May 21, 2021, 7:54 PM IST

देहरादून: सुंदरलाल बहुगुणा प्रकृति की गोद में पैदा हुए थे. नदी, जंगल, खेत-खलिहान देखकर बड़े हुए थे. ऐसे में सहज ही उनको इनसे प्रेम था. यही कारण था कि वो पेड़ों को कटते नहीं देख सकते थे. तत्कालीन उत्तर प्रदेश में में 1973 से 1981 तक चिपको आंदोलन चलाया. इस आंदोलन में महिलाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. महिलाओं ने पेड़ों से चिपककर पेड़ों को बचाने की मुहिम चलाई. 8 वर्ष तक महिलाओं ने आंदोलन के लिए लंबी लड़ाई लड़ी. सरकार का नारा था-

क्या हैं जंगल के उपकार

लीसा, लकड़ी और व्यापार

तब आंदोलनकारियों महिलाओं का जवाब होता था...

क्या हैं जंगल के उपकार

मिट्टी, पानी और बयार

जिंदा रहने के आधार।

ये भी पढ़िए: पंचतत्व में विलीन हुए हिमालय के रक्षक सुंदरलाल बहुगुणा, राजकीय सम्मान से हुआ अंतिम संस्कार

स्थानीय मजदूरों ने किया मना तो नेपाल से आए मजदूर

स्थानीय मजदूरों ने पेड़ काटने से मना कर दिया था. नेपाल से मजदूर लाए गए. उन लोगों ने भी पेड़ कटाई के कारण हुए भूस्खलन से आहत होकर कटाई छोड़ दी. यूपी सरकार मानने को तैयार नहीं थी. लेकिन महिलाओं के समर्पित आंदोलन के आगे आखिर सरकार को भी झुकना पड़ा. चिपको आंदोलन ने जंगल बचा लिए. ये बात जंगल की आग की तरह दुनिया भर में फैल गई. दुनिया ने ऐसा अनूठा आंदोलन पहले नहीं देखा था.

और बहुगुणा ने पद्मश्री ठुकरा दी

वर्ष 1981 में इंदिरा सरकार ने सुंदरलाल बहुगुणा को पद्मश्री देने के लिए बुलाया. बहुगुणा ने अस्वीकार कर दिया. उन्होंने कहा कि हिमालय का लहू-मांस बह रहा है. और आप मुझे सम्मानित कर रही हैं ? इस पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अगले 15 वर्ष तक जंगलों की कटाई पर रोक लगा दी.

जंगलों को मानते थे नदियों की मां

सुंदरलाल बहुगुणा जंगलों को नदियों की मां मानते थे. उनका कहना था कि जंगल रहेंगे तो नदियों का भी अस्तित्व तभी रहेगा. उस समय तक सरकारें और ठेकेदार जंगलों को बस लकड़ी की खान समझते थे. आजादी से पहले अंग्रेज भी ऐसा ही करते आए थे. उन्हीं के पदचिह्नों पर बाद के लोग भी चल रहे थे.

ये भी पढ़िए: जल-जंगल-जमीन के लिए जीते थे सुंदरलाल बहुगुणा, पहाड़ों की थी चिंता

सुंदरलाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट और गौरा देवी जैसे लोगों ने उस लीक से हटकर लकीर खींची. इन लोगों ने दुनिया को बताया कि जल-जंगल और जमीन इंसानी जीवन और इस सृष्टि के अस्तित्व के लिये कितने जरूरी हैं.

बहुगुणा कहा करते थे- इकोलॉजी मनुष्य और प्रकृति के संबंधों का शास्त्र है. मनुष्य और प्रकृति का संबंध मां-बेटे जैसा है. लेकिन जब हम आर्थिक लाभ के लिए जंगल का दोहन करते हैं, तो थोड़े समय के लिए जरूर लाभ दिखता है. पर हमेशा के लिए विनाश होता है. अर्थशास्त्र के दो गुण आज भी पृथ्वी प्राकृतिक संसाधनों पर ही टिकी हुई है. जल-जंगल-जमीन मनुष्य के लिए जीवन आधार हैं. इनकी तुलना पूजी के साथ करना बेमानी है. हमें अपने अस्तित्व को बचाने के लिए सतत अर्थतंत्र वाले पेड़ों को बचाने की जरूरत है.

देहरादून: सुंदरलाल बहुगुणा प्रकृति की गोद में पैदा हुए थे. नदी, जंगल, खेत-खलिहान देखकर बड़े हुए थे. ऐसे में सहज ही उनको इनसे प्रेम था. यही कारण था कि वो पेड़ों को कटते नहीं देख सकते थे. तत्कालीन उत्तर प्रदेश में में 1973 से 1981 तक चिपको आंदोलन चलाया. इस आंदोलन में महिलाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. महिलाओं ने पेड़ों से चिपककर पेड़ों को बचाने की मुहिम चलाई. 8 वर्ष तक महिलाओं ने आंदोलन के लिए लंबी लड़ाई लड़ी. सरकार का नारा था-

क्या हैं जंगल के उपकार

लीसा, लकड़ी और व्यापार

तब आंदोलनकारियों महिलाओं का जवाब होता था...

क्या हैं जंगल के उपकार

मिट्टी, पानी और बयार

जिंदा रहने के आधार।

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स्थानीय मजदूरों ने किया मना तो नेपाल से आए मजदूर

स्थानीय मजदूरों ने पेड़ काटने से मना कर दिया था. नेपाल से मजदूर लाए गए. उन लोगों ने भी पेड़ कटाई के कारण हुए भूस्खलन से आहत होकर कटाई छोड़ दी. यूपी सरकार मानने को तैयार नहीं थी. लेकिन महिलाओं के समर्पित आंदोलन के आगे आखिर सरकार को भी झुकना पड़ा. चिपको आंदोलन ने जंगल बचा लिए. ये बात जंगल की आग की तरह दुनिया भर में फैल गई. दुनिया ने ऐसा अनूठा आंदोलन पहले नहीं देखा था.

और बहुगुणा ने पद्मश्री ठुकरा दी

वर्ष 1981 में इंदिरा सरकार ने सुंदरलाल बहुगुणा को पद्मश्री देने के लिए बुलाया. बहुगुणा ने अस्वीकार कर दिया. उन्होंने कहा कि हिमालय का लहू-मांस बह रहा है. और आप मुझे सम्मानित कर रही हैं ? इस पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अगले 15 वर्ष तक जंगलों की कटाई पर रोक लगा दी.

जंगलों को मानते थे नदियों की मां

सुंदरलाल बहुगुणा जंगलों को नदियों की मां मानते थे. उनका कहना था कि जंगल रहेंगे तो नदियों का भी अस्तित्व तभी रहेगा. उस समय तक सरकारें और ठेकेदार जंगलों को बस लकड़ी की खान समझते थे. आजादी से पहले अंग्रेज भी ऐसा ही करते आए थे. उन्हीं के पदचिह्नों पर बाद के लोग भी चल रहे थे.

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सुंदरलाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट और गौरा देवी जैसे लोगों ने उस लीक से हटकर लकीर खींची. इन लोगों ने दुनिया को बताया कि जल-जंगल और जमीन इंसानी जीवन और इस सृष्टि के अस्तित्व के लिये कितने जरूरी हैं.

बहुगुणा कहा करते थे- इकोलॉजी मनुष्य और प्रकृति के संबंधों का शास्त्र है. मनुष्य और प्रकृति का संबंध मां-बेटे जैसा है. लेकिन जब हम आर्थिक लाभ के लिए जंगल का दोहन करते हैं, तो थोड़े समय के लिए जरूर लाभ दिखता है. पर हमेशा के लिए विनाश होता है. अर्थशास्त्र के दो गुण आज भी पृथ्वी प्राकृतिक संसाधनों पर ही टिकी हुई है. जल-जंगल-जमीन मनुष्य के लिए जीवन आधार हैं. इनकी तुलना पूजी के साथ करना बेमानी है. हमें अपने अस्तित्व को बचाने के लिए सतत अर्थतंत्र वाले पेड़ों को बचाने की जरूरत है.

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