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ग्लेशियरों के खत्म होने के बाद भी बना रहेगा नदियों का अस्तित्व, जानिए क्या है वजह ? - Glacier News

वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी, देहरादून की रिसर्च के मुताबिक पर्यावरण परिवर्तन के कारण उत्तराखंड के ग्लेशियर लगातार पिघल रहे हैं. अगर ग्लेशियर पूरी तरह पिघल भी गए तो नदियों का अस्तित्व बना रहेगा, जानिए क्या कहती है रिसर्च...

Rivers of Uttarakhand
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Published : Oct 18, 2021, 11:04 AM IST

Updated : Oct 18, 2021, 8:15 PM IST

देहरादून: हिमालयी क्षेत्रों में लगातार पिघल रहे ग्लेशियर वैज्ञानिकों के लिए हमेशा से ही एक चिंता का विषय रहे हैं. इस दिशा में वैज्ञानिकों की खोज लगातार जारी है. हाल ही में वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी, देहरादून (Wadia Institute of Himalayan Geology, Dehradun) की ओर से किए गए एक रिसर्च में सबित हुआ है कि गंगोत्री ग्लेशियर हर साल 15 से 20 सेंटीमीटर पिघल रहा है, जो आने वाले समय में एक चिंता का विषय बन सकता है. वैज्ञानिकों के अनुसार अगर ग्लेशियर खत्म भी हो जाते हैं, तो उसका बहुत अधिक प्रभाव नहीं पड़ेगा.

हिमालयी क्षेत्रों में मौजूद ग्लेशियर जीवन के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि ग्लेशियर एक तरह से रिजर्व वाटर है, जो नदियों को जीवित रखने में अहम भूमिका निभाता है. हालांकि, ग्लेशियर का पिघलना और ग्लेशियर का बढ़ना यह एक नेचुरल प्रक्रिया है लेकिन इससे अलग ग्लेशियरों के पिघलने के भी कई कारण भी हैं, जिसमे मुख्य वजह क्लाइमेट चेंज है. तो वही, वाडिया इंस्टीट्यूट के रिसर्च के मुताबिक गंगोत्री ग्लेशियर 15-20 सेंटीमीटर हर साल पिघल रहा है. उत्तराखंड में करीब एक हजार ग्लेशियर मौजूद हैं और सभी ग्लेशियरों का यही हाल है.

ग्लेशियरों के खत्म होने के बाद भी बना रहेगा नदियों का अस्तित्व.

क्लाइमेट चेंज का ग्लेशियर पर पड़ रहा है असर: क्लाइमेट चेंज का सीधा असर ग्लेशियरों पर पड़ रहा है. उत्तराखंड और हिमाचल दोनों ही जगह के ग्लेशियर पिघल रहे हैं. इनका आकार दिन प्रतिदिन छोटा होता जा रहा है. ऐसे में जब हिमालय के संरक्षण की बात करते हैं तो मुख्य रूप से इन बिंदुओं पर भी फोकस करने की जरूरत है. क्लाइमेट चेंज होने की मुख्य वजह मानव जाति ही है, क्योंकि अपनी सुविधाओं और विकास के लिए यह भूल जाते हैं कि जितनी कार्बन डाइऑक्साइड प्रोड्यूस कर रहे हैं. उसका सीधा असर क्लाइमेट पर पड़ रहा है.

नदियों को जीवित रखने में 4 एलिमेंट्स जरूरी: डॉ. कालाचंद साईं के मुताबिक हिमालय में मौजूद ग्लेशियर से नदियों की उत्पत्ति है लेकिन जो नदियां बहती हैं. उसमें सिर्फ ग्लेशियर का ही कंट्रीब्यूशन नहीं है बल्कि अन्य स्रोतों का भी सहयोग है. नदियों ग्लेशियर मेल्ट, बारिश, ग्राउंड वॉटर और स्प्रिंग्स का पानी भी होता है. साईं के मुताबिक जितनी ऊंचाई पर जाएंगे उसी के अनुसार नदियों में इन चारों का सहयोग अलग अलग तरीके से मिलता है. अधिक ऊंचाई पर सबसे अधिक कंट्रीब्यूशन ग्लेशियर का होता लेकिन जैसे-जैसे नदी मैदानी क्षेत्रों की ओर बढ़ती है तो नदी का पानी और अधिक बढ़ जाता है.

खत्म नहीं होगा नदियों का अस्तित्व: कालाचंद साईं के अनुसार नदियों में ग्लेशियर मेल्टिंग का करीब 10 फीसदी ही सहयोग रहता है. ऐसे में अगर ग्लेशियर खत्म भी हो जाते हैं, तो नदी खत्म नहीं होंगी. हालांकि, लोग ऐसा सोचते हैं कि अगर ग्लेशियर खत्म हो जाएंगे तो पानी खत्म हो जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं है. अगर ग्लेशियर खत्म हो जाएंगे, तो थोड़ी दिक्कत जरूर होंगी लेकिन लोगों को पानी उपलब्ध होगा, क्योंकि नदियों में आने वाले पानी के कई सोर्स हैं, जिसमें से सबसे बड़ा सोर्स बारिश है. अगर, बारिश बंद हो गई तो सब कुछ खत्म हो जाएगा. बता दें, उत्तराखंड में काली नदी, अलकनंदा, भागीरथी, कौसी, रामगंगा और यमुना प्रमुख नदियां हैं.

पढ़ें- बदरीनाथ धाम की पहाड़ियों पर बर्फबारी से घाटी में कड़ाके की ठंड शुरू

वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के डायरेक्टर डॉ. कालाचंद साईं के मुताबिक हिमालयन रीजन में करीब 10 हजार ग्लेशियर हैं, जिसमे से करीब एक हजार ग्लेशियर उत्तराखंड रीजन में मौजूद हैं. ऐसे में सभी ग्लेशियर की मॉनिटरिंग किया जाना संभव नहीं है. ऐसे में जितनी सुविधाएं उपलब्ध हैं उसके अनुसार वाडिया इंस्टीट्यूट ने 8-10 ग्लेशियर की मॉनिटरिंग की है. किए गए रिसर्च के अनुसार गंगोत्री ग्लेशियर 15 से 20 सेंटीमीटर हर साल पीछे खिसक रहा है, जिसकी मुख्य वजह ग्लोबल वार्मिंग है.

घटता जा रहा है बर्फ से ढका क्षेत्र: डॉ. कालाचंद साईं के मुताबिक एक रिसर्च में पता चला है कि बर्फ से ढका क्षेत्र ((ice covered area)) तेजी से घटता जा रहा है. ग्लेशियर जीरो डिग्री टेंपरेचर में ही बर्फ के फॉर्म में रहता है लेकिन अगर तापमान बढ़ता है तो बर्फ पिघलने लगती है. ऐसे में अब स्नोलाइन भी बढ़ती जा रही है. पहले जहां पहले ग्लेशियर हुआ करते थे अब वहां पेड़ पौधे उग आए हैं. ऐसे में यह स्पष्ट हो गया है कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ग्लेशियर पिघल रहे हैं लेकिन इसके असल फैक्टर क्या है ? उसको ढूंढने में वैज्ञानिक जुटे हुए हैं.

सच साबित हुई वाडिया इंस्टीट्यूट की 'भविष्यवाणी': राजधानी देहरादून स्थित वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी भारत सरकार के उन संस्थानों में शुमार है, जो हिमालय में हो रही गतिविधियों के साथ ही ग्लेशियरों पर रिसर्च करता है. वाडिया इंस्टीट्यूट ने पहले भी ऐसे तमाम रिसर्च किए हैं, जो सच साबित हुए हैं. साल 2013 में केदारघाटी में आई भीषण आपदा के पहले ही वाडिया के साइंटिस्ट ने केदारघाटी में बड़ी आपदा आने की आशंका जताई थी, जिसके कुछ सालों बाद ही 2013 में केदारघाटी में भीषण आपदा आयी थी.

यही नहीं, वैज्ञानिकों ने मॉनसून सीजन के बाद हिमालई क्षेत्रों में भूकंप आने की फ्रीक्वेंसी को लेकर भी रिसर्च किया था, जिसमें यह बात निकलकर सामने आई थी कि वास्तव में मॉनसून सीजन के बाद भूकंप आने की फ्रीक्वेंसी बढ़ गई थी. इसी तरह वाडिया इंस्टीट्यूट ने हिमालय में मौजूद गर्म कुंड से बिजली बनाने को लेकर रिसर्च किया था, जिस पर काम शुरू हो गया है. ऐसे में एक बार फिर वाडिया इंस्टीट्यूट ने दावा किया है कि अगर ग्लेशियर खत्म हो जाते हैं, तो नदियों से पानी खत्म नहीं होगा. हालांकि, ग्लेशियर के खत्म होने से इसका असर जरूर पड़ेगा.

देहरादून: हिमालयी क्षेत्रों में लगातार पिघल रहे ग्लेशियर वैज्ञानिकों के लिए हमेशा से ही एक चिंता का विषय रहे हैं. इस दिशा में वैज्ञानिकों की खोज लगातार जारी है. हाल ही में वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी, देहरादून (Wadia Institute of Himalayan Geology, Dehradun) की ओर से किए गए एक रिसर्च में सबित हुआ है कि गंगोत्री ग्लेशियर हर साल 15 से 20 सेंटीमीटर पिघल रहा है, जो आने वाले समय में एक चिंता का विषय बन सकता है. वैज्ञानिकों के अनुसार अगर ग्लेशियर खत्म भी हो जाते हैं, तो उसका बहुत अधिक प्रभाव नहीं पड़ेगा.

हिमालयी क्षेत्रों में मौजूद ग्लेशियर जीवन के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि ग्लेशियर एक तरह से रिजर्व वाटर है, जो नदियों को जीवित रखने में अहम भूमिका निभाता है. हालांकि, ग्लेशियर का पिघलना और ग्लेशियर का बढ़ना यह एक नेचुरल प्रक्रिया है लेकिन इससे अलग ग्लेशियरों के पिघलने के भी कई कारण भी हैं, जिसमे मुख्य वजह क्लाइमेट चेंज है. तो वही, वाडिया इंस्टीट्यूट के रिसर्च के मुताबिक गंगोत्री ग्लेशियर 15-20 सेंटीमीटर हर साल पिघल रहा है. उत्तराखंड में करीब एक हजार ग्लेशियर मौजूद हैं और सभी ग्लेशियरों का यही हाल है.

ग्लेशियरों के खत्म होने के बाद भी बना रहेगा नदियों का अस्तित्व.

क्लाइमेट चेंज का ग्लेशियर पर पड़ रहा है असर: क्लाइमेट चेंज का सीधा असर ग्लेशियरों पर पड़ रहा है. उत्तराखंड और हिमाचल दोनों ही जगह के ग्लेशियर पिघल रहे हैं. इनका आकार दिन प्रतिदिन छोटा होता जा रहा है. ऐसे में जब हिमालय के संरक्षण की बात करते हैं तो मुख्य रूप से इन बिंदुओं पर भी फोकस करने की जरूरत है. क्लाइमेट चेंज होने की मुख्य वजह मानव जाति ही है, क्योंकि अपनी सुविधाओं और विकास के लिए यह भूल जाते हैं कि जितनी कार्बन डाइऑक्साइड प्रोड्यूस कर रहे हैं. उसका सीधा असर क्लाइमेट पर पड़ रहा है.

नदियों को जीवित रखने में 4 एलिमेंट्स जरूरी: डॉ. कालाचंद साईं के मुताबिक हिमालय में मौजूद ग्लेशियर से नदियों की उत्पत्ति है लेकिन जो नदियां बहती हैं. उसमें सिर्फ ग्लेशियर का ही कंट्रीब्यूशन नहीं है बल्कि अन्य स्रोतों का भी सहयोग है. नदियों ग्लेशियर मेल्ट, बारिश, ग्राउंड वॉटर और स्प्रिंग्स का पानी भी होता है. साईं के मुताबिक जितनी ऊंचाई पर जाएंगे उसी के अनुसार नदियों में इन चारों का सहयोग अलग अलग तरीके से मिलता है. अधिक ऊंचाई पर सबसे अधिक कंट्रीब्यूशन ग्लेशियर का होता लेकिन जैसे-जैसे नदी मैदानी क्षेत्रों की ओर बढ़ती है तो नदी का पानी और अधिक बढ़ जाता है.

खत्म नहीं होगा नदियों का अस्तित्व: कालाचंद साईं के अनुसार नदियों में ग्लेशियर मेल्टिंग का करीब 10 फीसदी ही सहयोग रहता है. ऐसे में अगर ग्लेशियर खत्म भी हो जाते हैं, तो नदी खत्म नहीं होंगी. हालांकि, लोग ऐसा सोचते हैं कि अगर ग्लेशियर खत्म हो जाएंगे तो पानी खत्म हो जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं है. अगर ग्लेशियर खत्म हो जाएंगे, तो थोड़ी दिक्कत जरूर होंगी लेकिन लोगों को पानी उपलब्ध होगा, क्योंकि नदियों में आने वाले पानी के कई सोर्स हैं, जिसमें से सबसे बड़ा सोर्स बारिश है. अगर, बारिश बंद हो गई तो सब कुछ खत्म हो जाएगा. बता दें, उत्तराखंड में काली नदी, अलकनंदा, भागीरथी, कौसी, रामगंगा और यमुना प्रमुख नदियां हैं.

पढ़ें- बदरीनाथ धाम की पहाड़ियों पर बर्फबारी से घाटी में कड़ाके की ठंड शुरू

वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के डायरेक्टर डॉ. कालाचंद साईं के मुताबिक हिमालयन रीजन में करीब 10 हजार ग्लेशियर हैं, जिसमे से करीब एक हजार ग्लेशियर उत्तराखंड रीजन में मौजूद हैं. ऐसे में सभी ग्लेशियर की मॉनिटरिंग किया जाना संभव नहीं है. ऐसे में जितनी सुविधाएं उपलब्ध हैं उसके अनुसार वाडिया इंस्टीट्यूट ने 8-10 ग्लेशियर की मॉनिटरिंग की है. किए गए रिसर्च के अनुसार गंगोत्री ग्लेशियर 15 से 20 सेंटीमीटर हर साल पीछे खिसक रहा है, जिसकी मुख्य वजह ग्लोबल वार्मिंग है.

घटता जा रहा है बर्फ से ढका क्षेत्र: डॉ. कालाचंद साईं के मुताबिक एक रिसर्च में पता चला है कि बर्फ से ढका क्षेत्र ((ice covered area)) तेजी से घटता जा रहा है. ग्लेशियर जीरो डिग्री टेंपरेचर में ही बर्फ के फॉर्म में रहता है लेकिन अगर तापमान बढ़ता है तो बर्फ पिघलने लगती है. ऐसे में अब स्नोलाइन भी बढ़ती जा रही है. पहले जहां पहले ग्लेशियर हुआ करते थे अब वहां पेड़ पौधे उग आए हैं. ऐसे में यह स्पष्ट हो गया है कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ग्लेशियर पिघल रहे हैं लेकिन इसके असल फैक्टर क्या है ? उसको ढूंढने में वैज्ञानिक जुटे हुए हैं.

सच साबित हुई वाडिया इंस्टीट्यूट की 'भविष्यवाणी': राजधानी देहरादून स्थित वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी भारत सरकार के उन संस्थानों में शुमार है, जो हिमालय में हो रही गतिविधियों के साथ ही ग्लेशियरों पर रिसर्च करता है. वाडिया इंस्टीट्यूट ने पहले भी ऐसे तमाम रिसर्च किए हैं, जो सच साबित हुए हैं. साल 2013 में केदारघाटी में आई भीषण आपदा के पहले ही वाडिया के साइंटिस्ट ने केदारघाटी में बड़ी आपदा आने की आशंका जताई थी, जिसके कुछ सालों बाद ही 2013 में केदारघाटी में भीषण आपदा आयी थी.

यही नहीं, वैज्ञानिकों ने मॉनसून सीजन के बाद हिमालई क्षेत्रों में भूकंप आने की फ्रीक्वेंसी को लेकर भी रिसर्च किया था, जिसमें यह बात निकलकर सामने आई थी कि वास्तव में मॉनसून सीजन के बाद भूकंप आने की फ्रीक्वेंसी बढ़ गई थी. इसी तरह वाडिया इंस्टीट्यूट ने हिमालय में मौजूद गर्म कुंड से बिजली बनाने को लेकर रिसर्च किया था, जिस पर काम शुरू हो गया है. ऐसे में एक बार फिर वाडिया इंस्टीट्यूट ने दावा किया है कि अगर ग्लेशियर खत्म हो जाते हैं, तो नदियों से पानी खत्म नहीं होगा. हालांकि, ग्लेशियर के खत्म होने से इसका असर जरूर पड़ेगा.

Last Updated : Oct 18, 2021, 8:15 PM IST
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