देहरादून: उत्तराखंड राज्य गठन के 22 साल पूरे हो गए (22 years of uttarakhand formation) हैं. इन 22 सालों में प्रदेश की जनता से सत्तासीन दलों ने जो वादे किये, वह कितने धरातल पर उतर पाए हैं. क्या राज्य आंदोलनकारियों के सपनों का उत्तराखंड बना या फिर भ्रष्टाचार की दीमक ने इन 22 सालों ने इस नवोदित प्रदेश की नींव को खोखला किया. ऐसे कितने ही सवाल हैं जो अब यक्ष प्रश्न बन गए हैं. इन 22 सालों में प्रदेश वासियों को क्या कुछ मिला देखिए खास रिपोर्ट.
देश के 27वें राज्य के रूप में 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड का गठन (State Formation day of uttarakhand) हुआ था. उत्तरप्रदेश से पृथक राज्य की मांग इसलिए भी जोर पकड़ रही थी क्योंकि, राजधानी लखनऊ में पहाड़ के लोगों की आवाज नही पहुंच पाती थी. ऐसे में पहाड़ की जनता खुद को ठगा हुआ महसूस करती. वहीं, जब छात्र राजनीति में अलग राज्य की मांग की चिंगारी फूटी तो पूरे पहाड़ के लोग एक हो गए, राज्य आंदोलन के दौरान कई आंदोलनकारियों ने अपनी जान गंवाई.
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आंदोलनकारी और पुलिस प्रशासन के आमने-सामने होने पर पुलिस की तानशाही भी दिखी. ऐसे में निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोलियां भी बरसाई गई. जिसके परिणामस्वरूप श्रीयंत्र टापू , मुज्जफरनगर और मसूरी जैसे गोलीकांठ भी हुए. लेकिन यह गोलीकांड भी आंदोलनकारियों को अपने हक हकूक की लड़ाई लड़ने से रोक नहीं पाए. जिसके बाद आखिरकार राज्य का गठन हो गया.
नेक नीयत मंजिल आसान... कहते हैं कि अगर नीयत सही हो तो सफलता जरूरी मिलती है. उत्तराखंड राज्य का गठन इस नेक नीयत के साथ ही किया गया था कि अलग पर्वतीय राज्य बनने से यहां के सीमांत गांव में विकास की गंगा बहेगी. पलयान रुकेगा. स्वास्थ्य सुविधाएं बढ़ेगी. हर गांव तक सड़क, बिजली और पानी की सुविधा पहुंचेगी. शिक्षा का स्तर सुधरेगा. रोजगार के साधन बढ़ेंगे और उत्तराखंड का विकास होगा.
राज्य गठन से बाद चुनाव दर चुनाव ये लोकलुभावन वादे यहां के जनता के हिस्से आए. प्रदेश का नाम बदला लेकिन नीयत वही रही. साल दर साल गांवों से पलायन होता गया. लोगों ने खेती किसानी छोड़ दी. गांव के गांव भूतहा हो गए. सड़क के अभाव में प्रसूता सड़क पर ही दम तोड़ती दिखीं. नौजवान युवक रोजगार की तलाश में महानगरों में धक्के खाते रहे. दुर्भाग्य की बात ये है कि जिन क्षेत्रीय दलों ने राज्य बनाने की लड़ाई लड़ी थी, वह धीरे-धीरे सत्ता से दूर और अब रसातल में पहुंच गए हैं. राष्ट्रीय दलों की सरकार होने से क्षेत्रीय मुद्दे गौण होते गए और यहां भी मंदिर-मस्जिद चुनावी मुद्दे बन गये.
राज्य की जनता को इन 22 सालों में अब तक 10 मुख्यमंत्री मिल चुके हैं. बीजेपी और कांग्रेस बारी-बारी से सत्ता पर काबिज रही, लेकिन आज तक उत्तराखंड को उसकी स्थानीय राजधानी नहीं मिली है. आज भी राज्य में जल, जगंल, जमीन जैसे ससांधनों के प्रयोग के लिए कोई स्पष्ट नीति नहीं है.
राज्य में रोजगार का साधन केवल पर्यटन ही है जो उतरप्रदेश के शासनकाल में भी विधिवत था लेकिन पर्यटक स्थलों को डेवलप करने के लिए अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं. हालांकि, केंद्र से सहयोग से केदारनाथ और बदरीनाथ को मास्टर प्लान के तहत डेवलप किया जा रहा है. ताकि अधिक से अधिक श्रद्धालु चार धाम यात्रा में पहुंचे. वहीं, राज्य मे कला और संस्कृति के क्षेत्र में भी कोई काम नहीं हुआ है. लोक कलाकार आज भी अपने आपको ठगा सा कर रहे हैं.
प्रदेश के मैदानी क्षेत्र हरिद्वार, देहरादून व उधमसिहं नगर को छोड़ दें तो आप देखेंगे कि आज भी शिक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर सरकार ने केवल बिल्डिंगों को खड़ा करने का काम किया है. यहां आज भी संसाधनों का अभाव बना हुआ है. उत्तराखंड के अधिकांश अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी है. वहीं, अध्यापकों के अभाव में सरकारी विद्यालयों में छात्र संख्या लगातार घट रही है.
राज्य आंदोलनकारियों का कहना है कि 22 सालों में यहां के मूल संसाधनों का दुरूपयोग हुआ है. किसी भी सरकार की ओर से संसाधनों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया. इन 22 सालों में राज्य में खनन, भष्टाचार और शराब की दुकानों को खोलने का ही काम किया गया है. भर्ती परीक्षाओं में धांधलियों से प्रदेश में माथे पर एक और कलंक लगा है. प्रदेश की नींव को भ्रष्टाचार रूपी दीमक ने खोखला कर दिया है. वहीं, कार्रवाई के नाम पर चोर-चोर मौसरे भाई वाली कहावत राज्य में चरितार्थ हो रही है. आंदोलनकारियों का कहना है कि उतराखंड को अलग राज्य बनाने के लिए जो सपने देखे थे वो आज भी अधूरे हैं.