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विधानसभा की दीवारों पर नंदा देवी राजजात यात्रा, जानिए विशेषता

उत्तराखंड विधानसभा भवन के बाहरी दीवारों पर नंदादेवी राजजात यात्रा को उकेरा गया है. इस रिपोर्ट के जरिए जानिए नंदादेवी राजजात यात्रा का महत्व.

Nanda Devi Raj Jat Yatra
विधानसभा की दीवारों पर नंदा देवी राजजात यात्रा.
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Published : Jun 27, 2020, 5:03 PM IST

देहरादून: उत्तराखंड की नंदा देवी राजजात धार्मिक यात्रा ही नहीं बल्कि लोगों को प्रकृति का नजदीकी से साक्षत्कार करने का मौका भी मिलता है. देश-विदेश के लोग जिसकी पौराणिक और सांस्कृतिक विरासत को देखने के लिए हमेशा लालायित रहते हैं. यात्रा के हर पड़ाव का अपना ऐतिहासिक महत्व है. उत्तराखंड की लोक संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए उत्तराखंड विधानसभा भवन के बाहरी दीवारों पर नंदादेवी राजजात यात्रा को उकेरा गया है. दीवारों पर उकेरी गई इस कलाचित्र का लोकार्पण सोमवार को विधानसभा स्पीकर करेंगे.

विधानसभा की दीवारों पर नंदा देवी राजजात यात्रा.

सुभाष राज ने विधानसभा की दीवारों पर नंदादेवी राजजात यात्रा को उकेरा है. ETV BHARAT से खास बातचीत में सुभाष ने बताया कि दीवारों पर यात्रा की पेटिंग बनाने से पहले उन्हें इस यात्रा के संदर्भ में काफी रिसर्च करना पड़ा. सुभाष बताते हैं कि पेटिंग बनाने समय उन्हें इस बात का भी ध्यान रखना पड़ा कि लोग पेटिंग को देखते ही यात्रा की महत्व समझ जाएं.

नंदादेवी राजजात यात्रा का महत्व

7वीं शताब्दी में गढ़वाल के राजा शालिपाल ने राजधानी चांदपुर गढ़ी से देवी श्रीनंदा को 12वें वर्ष में मायके से कैलाश भेजने की परंपरा शुरू की थी. राजा कनकपाल ने इस यात्रा को भव्य रूप दिया. इस परंपरा का निर्वहन 12 वर्ष या उससे अधिक समय के अंतराल में गढ़वाल राजा के प्रतिनिधि कांसुवा गांव के राज कुंवर, नौटी गांव के राजगुरु नौटियाल ब्राह्मण सहित 12 थोकी ब्राह्मण और चौदह सयानों के सहयोग से होता है.

ये भी पढ़ें: कोरोना तय करेगा महाकुंभ-2021 का स्वरूप, जानिए क्यों?

यात्रा में चौसिंगा खाडू का महत्व

चौसिंगा खाडू (काले रंग का भेड़) श्रीनंदा राजजात की अगुवाई करता है. मनौती के बाद पैदा हुए चौसिंगा खाडू को ही यात्रा में शामिल किया जाता है. राजजात के शुभारंभ पर नौटी में विशेष पूजा-अर्चना के साथ इस खाडू के पीठ पर फंची (पोटली) बांधी जाती है, जिसमें मां नंदा की श्रृंगार सामग्री सहित देवी भक्तों की भेंट होती है. खाडू पूरी यात्रा की अगुवाई करता है.

यात्रा का शुभारंभ स्थल है नौटी

सिद्धपीठ नौटी में भगवती नंदादेवी की स्वर्ण प्रतिमा पर प्राण प्रतिष्ठा के साथ रिंगाल की पवित्र राज छतोली और चार सींग वाले भेड़ (खाडू) की विशेष पूजा की जाती है. कांसुवा के राजवंशी कुंवर यहां यात्रा के शुभारंभ और सफलता का संकल्प लेते हैं. मां भगवती को देवी भक्त आभूषण, वस्त्र, उपहार, मिष्ठान आदि देकर हिमालय के लिए विदा करते हैं.

कब-कब हुई श्रीनंदादेवी राजजात यात्रा

राजजात समिति के अभिलेखों के अनुसार हिमालयी महाकुंभ श्रीनंदा देवी राजजात वर्ष 1843, 1863, 1886, 1905, 1925, 1951, 1968, 1987 तथा 2000 में आयोजित हो चुकी है. वर्ष 1951 में मौसम खराब होने के कारण राजजात पूरी नहीं हो पाई थी. जबकि वर्ष 1962 में मनौती के छह वर्ष बाद वर्ष 1968 में राजजात हुई.

यात्रा के पड़ाव

नौटी से शुरू होने वाली नंदादेवी राजजात में 20 पड़ाव हैं. इसमें बाण तक ग्रामीण अंचल है. नौटी से लेकर बाण तक भक्त गांवों की परंपरा से भी अवगत हो सकेंगे. असली यात्रा होती है बाण गांव के बाद. इस गांव के बाद यात्रा घने जंगलों के बीच से बढ़ती है. रोमांच से भरी यह यात्रा प्राकृतिक सौंदर्य से भी भक्तों को रूबरू करवाती है. नंदादेवी राजजात यात्रा के पड़ावों में वेदनी बुग्याल, वेदनी कुंड, राज्यपुष्प ब्रह्मकल और राज्य पक्षी मोनाल सहित अनेक जड़ी बूटियां देखने को मिलती हैं.

देहरादून: उत्तराखंड की नंदा देवी राजजात धार्मिक यात्रा ही नहीं बल्कि लोगों को प्रकृति का नजदीकी से साक्षत्कार करने का मौका भी मिलता है. देश-विदेश के लोग जिसकी पौराणिक और सांस्कृतिक विरासत को देखने के लिए हमेशा लालायित रहते हैं. यात्रा के हर पड़ाव का अपना ऐतिहासिक महत्व है. उत्तराखंड की लोक संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए उत्तराखंड विधानसभा भवन के बाहरी दीवारों पर नंदादेवी राजजात यात्रा को उकेरा गया है. दीवारों पर उकेरी गई इस कलाचित्र का लोकार्पण सोमवार को विधानसभा स्पीकर करेंगे.

विधानसभा की दीवारों पर नंदा देवी राजजात यात्रा.

सुभाष राज ने विधानसभा की दीवारों पर नंदादेवी राजजात यात्रा को उकेरा है. ETV BHARAT से खास बातचीत में सुभाष ने बताया कि दीवारों पर यात्रा की पेटिंग बनाने से पहले उन्हें इस यात्रा के संदर्भ में काफी रिसर्च करना पड़ा. सुभाष बताते हैं कि पेटिंग बनाने समय उन्हें इस बात का भी ध्यान रखना पड़ा कि लोग पेटिंग को देखते ही यात्रा की महत्व समझ जाएं.

नंदादेवी राजजात यात्रा का महत्व

7वीं शताब्दी में गढ़वाल के राजा शालिपाल ने राजधानी चांदपुर गढ़ी से देवी श्रीनंदा को 12वें वर्ष में मायके से कैलाश भेजने की परंपरा शुरू की थी. राजा कनकपाल ने इस यात्रा को भव्य रूप दिया. इस परंपरा का निर्वहन 12 वर्ष या उससे अधिक समय के अंतराल में गढ़वाल राजा के प्रतिनिधि कांसुवा गांव के राज कुंवर, नौटी गांव के राजगुरु नौटियाल ब्राह्मण सहित 12 थोकी ब्राह्मण और चौदह सयानों के सहयोग से होता है.

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यात्रा में चौसिंगा खाडू का महत्व

चौसिंगा खाडू (काले रंग का भेड़) श्रीनंदा राजजात की अगुवाई करता है. मनौती के बाद पैदा हुए चौसिंगा खाडू को ही यात्रा में शामिल किया जाता है. राजजात के शुभारंभ पर नौटी में विशेष पूजा-अर्चना के साथ इस खाडू के पीठ पर फंची (पोटली) बांधी जाती है, जिसमें मां नंदा की श्रृंगार सामग्री सहित देवी भक्तों की भेंट होती है. खाडू पूरी यात्रा की अगुवाई करता है.

यात्रा का शुभारंभ स्थल है नौटी

सिद्धपीठ नौटी में भगवती नंदादेवी की स्वर्ण प्रतिमा पर प्राण प्रतिष्ठा के साथ रिंगाल की पवित्र राज छतोली और चार सींग वाले भेड़ (खाडू) की विशेष पूजा की जाती है. कांसुवा के राजवंशी कुंवर यहां यात्रा के शुभारंभ और सफलता का संकल्प लेते हैं. मां भगवती को देवी भक्त आभूषण, वस्त्र, उपहार, मिष्ठान आदि देकर हिमालय के लिए विदा करते हैं.

कब-कब हुई श्रीनंदादेवी राजजात यात्रा

राजजात समिति के अभिलेखों के अनुसार हिमालयी महाकुंभ श्रीनंदा देवी राजजात वर्ष 1843, 1863, 1886, 1905, 1925, 1951, 1968, 1987 तथा 2000 में आयोजित हो चुकी है. वर्ष 1951 में मौसम खराब होने के कारण राजजात पूरी नहीं हो पाई थी. जबकि वर्ष 1962 में मनौती के छह वर्ष बाद वर्ष 1968 में राजजात हुई.

यात्रा के पड़ाव

नौटी से शुरू होने वाली नंदादेवी राजजात में 20 पड़ाव हैं. इसमें बाण तक ग्रामीण अंचल है. नौटी से लेकर बाण तक भक्त गांवों की परंपरा से भी अवगत हो सकेंगे. असली यात्रा होती है बाण गांव के बाद. इस गांव के बाद यात्रा घने जंगलों के बीच से बढ़ती है. रोमांच से भरी यह यात्रा प्राकृतिक सौंदर्य से भी भक्तों को रूबरू करवाती है. नंदादेवी राजजात यात्रा के पड़ावों में वेदनी बुग्याल, वेदनी कुंड, राज्यपुष्प ब्रह्मकल और राज्य पक्षी मोनाल सहित अनेक जड़ी बूटियां देखने को मिलती हैं.

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