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27 साल पहले आज ही के दिन मसूरी के आंदोलनकारियों पर चटकीं थी पुलिस की लाठियां

मसूरी गोलीकांड के बाद भी तत्कालीन यूपी सरकार और पुलिस की बर्बरता कम नहीं हुई थी. 2 सितंबर 1994 को मसूरी गोलीकांड की घटना के बाद 15 सितंबर 1994 को भी पुलिस का ऐसा ही रूप देखने को मिला था. तब पुलिस ने शहीद हुए राज्य आंदोलनकारियों को श्रद्धाजंलि देने जा रहे लोगों के साथ बर्बरता की थी और उन पर लाठियां बरसाई थीं.

मसूरी गोलीकांड
मसूरी गोलीकांड
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Published : Sep 15, 2021, 11:31 AM IST

मसूरी: पृथक राज्य की मांग कर रहे राज्य आंदोलनकारियों पर 2 सितंबर 1994 को मसूरी में जिस तरह के पुलिस ने गोलियां बरसाई थीं, वो मंजर भुलाए नहीं भूला जा सकता है. पुलिस की इस फायरिंग में छह राज्य आंदोलनकारी शहीद हो गए थे. लेकिन पुलिस की बर्बरता यहीं नहीं रुकी थी. इसके बाद शहीद राज्य आंदोलनकारियों को श्रद्धांजलि देने मसूरी पहुंची हजारों की भीड़ पर 15 सितंबर 1994 को भी पुलिस ने लाठीचार्ज किया था. मसूरी गोलीकांड के बाद पुलिस के लाठीचार्ज को भी शायद ही कोई भूल पाएगा.

पुलिस की बर्बरता: 2 सितंबर को गोलीकांड में शहीद हुए राज्य आंदोलनकारियों की तेरहवीं में शिरकत करने के लिए हजारों की तादाद में उत्तरकाशी और टिहरी से आंदोलनकारियों ने मसूरी का रुख किया था. लेकिन पुलिस ने उन्हें धनौल्टी के पास सुवाखोली में रोकने का प्रयास किया. लेकिन जब राज्य आंदोलनकारी नहीं माने तो पुलिस ने उन पर लाठीचार्ज किया. धनौल्टी विधायक प्रीतम सिंह पंवार भी उस आंदोलन में शामिल थे. प्रीतम सिंह पंवार कहते हैं कि पुलिस ने आंदोलनकारियों को रोकने के लिए उन्हें काफी प्रताड़ित किया. लेकिन आंदोलनकारियों ने हार नहीं मानी और आगे बढ़ने के लिए संघर्ष किया. वो जैसे-तैसे मसूरी के बाटाघाट तक पहुंच गए.

पढ़ें- संघर्ष और शहादत की कहानी, कब बनेगा 'सपनों का उत्तराखंड'?

पुलिस ने बरसायी थी लाठियां: पुलिस ने बाटाघाट में भी आंदोलनकारियों को रोक दिया था. लेकिन आंदोलनकारियों ने बाटाघाट से वुडस्टॉक के रास्ते से मसूरी जाना तय किया. जैसे ही आंदोलनकारी मसूरी वुडस्टॉक के गेट के पास पहुंचे, तभी एडीएम के आदेश पर पुलिस ने उन पर लाठियां बरसानी शुरू कर दिया. इस पूरी घटना में प्रीतम सिंह पंवार का पैर भी टूट गया था.

राज्य आंदोलनकारी और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष जोत सिंह बिष्ट ने बताया कि 15 सितंबर को वो घनानंद भट्ट, अधिवक्ता आनंद सिंह पंवार, पूरन सिंह रावत और प्रीतम पंवार समेत हजारों आंदोलनकारियों के साथ बाटाघाट पहुंचे थे, तो पुलिस ने उन्हें घेर लिया था. सभी आंदोलनकारियों को बस के माध्यम से वुडस्टॉक स्कूल के मुख्य गेट से 200 मीटर पहले रोक दिया था.

जान बचाने के लिए खाई में कूदे थे लोग: इस मौके पर तत्कालीन एडीएम और एसीपी से मसूरी जाने को लेकर वार्ता की गई. परन्तु पुलिस और प्रशासन ने उनकी एक नहीं सुनी. इस पर राज्य आंदोलनकारी भड़क गए और वे नारेबाजी करने लगे. तभी यूपी की रैपिड एक्शन फोर्स ने आंदोलनकारियों पर लाठी बरसानी शुरू कर दी. इसके बाद वहां अफरा-तफरी मच गई. कई लोगों ने खाई में भी छलांग मारी दी. इस वजह से कई लोग गंभीर रूप से भी घायल हो गए थे.

पढ़ें- मसूरी गोलीकांड के 27 साल पूरे, नहीं भूल पाए दो सितंबर को मिला वह जख्म

पुलिस ने घायलों को भी नहीं बख्शा: जोत सिंह बिष्ट बताते हैं कि उन्हें आज भी याद है कि उनके नेतृत्व में कुछ आंदोलनकारी जो घायल हुए थे, वे मसूरी वुडस्टॉक स्कूल में चले गए थे, जहां पर उनका उपचार किया जा रहा था. लेकिन पुलिस वहां भी पहुंच गई थी और उनको गिरफ्तार करके ले गई थी. गंभीर रूप से घायल लोगों को दून अस्पताल ले जाया गया था और कईयों को जेल भेज दिया गया था.

आज भी नहींं भूले वो खौफनाक मंजर: जोत सिंह बिष्ट बताते हैं कि आज भी उस मंजर को याद करके कांप उठते हैं. पुलिस की बर्बरता का वो दिन वो कभी नहीं भूलते हैं. उन्होंने कहा कि उसी 15 सितंबर को वुडस्टॉक स्कूल के पास गंभीर रूप से घायल जेठा सिंह को अस्पताल ले जाया गया. जहां पर उनको उपचार के बाद घर भेजा गया, परंतु कुछ महीने बाद ही उनकी मृत्यु हो गई.

जोत सिंह बिष्ट ने कहा कि उत्तराखंड के लिए कई लोग शहीद हुए थे. वहीं कई ऐसे लोग भी थे जिन्होंने उत्तर प्रदेश पुलिस की बर्बरता का दंश झेला था. उत्तराखंड को बने हुए 21 साल हो गए हैं और मसूरी गोलीकांड के भी 27 बरस पूरे हो चुके हैं. इन 21 सालों में उत्तराखंड में काफी विकास हुआ है, लेकिन अभी भी सपनों को उत्तराखंड नहीं बना है.

सीबीआई का मुकदमा झेलने वाली सुभाषिनी बर्त्वाल की दास्तां: सीबीआई का मुकदमा झेलने वाली सुभाषिनी बर्त्वाल ने बताया कि अलग राज्य के निर्माण को लेकर उनके जैसे कई आंदोलनकारियों ने आवाज उठाई थी. लेकिन उनके सपनों के उत्तराखंड का निर्माण नहीं हो सका. न ही आज तक कई आंदोलनकारियों को उनका हक मिल सका है.

पढ़ें- राज्य आंदोलनकारियों की जुबानी, खटीमा और मसूरी गोलीकांड की कहानी

वरिष्ठ आंदोलनकारी जयप्रकाश उत्तराखंडी कहते हैं कि मसूरी की माल रोड पर झूलाघर के पास वे 15 सितंबर 1994 को मसूरी गोलीकांड के विरोध में नारेबाजी कर रहे थे. लेकिन पुलिस ने आंदोलन को कुचलने के लिए पहले से ही तैयारी कर ली थी. लोग नारेबाजी कर रहे थे कि पुलिस ने लाठियां बरसानी शुरू कर दी थी.

राज्य आंदोलनकारी डॉ. हरिमोहन गोयल ने बताया कि जल, जंगल, जमीन और पहाड़ से पलायन के मुद्दे को लेकर राज्य की लड़ाई लड़ी गई थी, लेकिन आज सभी मुद्दे नेताओं की महत्वाकांक्षा के सामने गुम हो गए हैं.

राज्य आंदोलनकारी पूरण जुयाल और प्रदीप भंडारी ने बताया कि ये राज्य सिर्फ नेताओं की ऐशगाह बन गया है. अलग राज्य बनने के बाद कई मुख्यमंत्री बन चुके हैं, लेकिन पहाड़ के विकास के लिए कोई भी गंभीर नहीं है. पलायन जारी है. कोई ठोस नीति नहीं बनी है. उन्होंने कहा कि राज्य के शहीदों और आंदोलनकारियों के अनुरूप उत्तराखंड नहीं बन पाया. न ही शहीदों के हत्यारों को आज तक सजा मिल पाई है.

मसूरी: पृथक राज्य की मांग कर रहे राज्य आंदोलनकारियों पर 2 सितंबर 1994 को मसूरी में जिस तरह के पुलिस ने गोलियां बरसाई थीं, वो मंजर भुलाए नहीं भूला जा सकता है. पुलिस की इस फायरिंग में छह राज्य आंदोलनकारी शहीद हो गए थे. लेकिन पुलिस की बर्बरता यहीं नहीं रुकी थी. इसके बाद शहीद राज्य आंदोलनकारियों को श्रद्धांजलि देने मसूरी पहुंची हजारों की भीड़ पर 15 सितंबर 1994 को भी पुलिस ने लाठीचार्ज किया था. मसूरी गोलीकांड के बाद पुलिस के लाठीचार्ज को भी शायद ही कोई भूल पाएगा.

पुलिस की बर्बरता: 2 सितंबर को गोलीकांड में शहीद हुए राज्य आंदोलनकारियों की तेरहवीं में शिरकत करने के लिए हजारों की तादाद में उत्तरकाशी और टिहरी से आंदोलनकारियों ने मसूरी का रुख किया था. लेकिन पुलिस ने उन्हें धनौल्टी के पास सुवाखोली में रोकने का प्रयास किया. लेकिन जब राज्य आंदोलनकारी नहीं माने तो पुलिस ने उन पर लाठीचार्ज किया. धनौल्टी विधायक प्रीतम सिंह पंवार भी उस आंदोलन में शामिल थे. प्रीतम सिंह पंवार कहते हैं कि पुलिस ने आंदोलनकारियों को रोकने के लिए उन्हें काफी प्रताड़ित किया. लेकिन आंदोलनकारियों ने हार नहीं मानी और आगे बढ़ने के लिए संघर्ष किया. वो जैसे-तैसे मसूरी के बाटाघाट तक पहुंच गए.

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पुलिस ने बरसायी थी लाठियां: पुलिस ने बाटाघाट में भी आंदोलनकारियों को रोक दिया था. लेकिन आंदोलनकारियों ने बाटाघाट से वुडस्टॉक के रास्ते से मसूरी जाना तय किया. जैसे ही आंदोलनकारी मसूरी वुडस्टॉक के गेट के पास पहुंचे, तभी एडीएम के आदेश पर पुलिस ने उन पर लाठियां बरसानी शुरू कर दिया. इस पूरी घटना में प्रीतम सिंह पंवार का पैर भी टूट गया था.

राज्य आंदोलनकारी और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष जोत सिंह बिष्ट ने बताया कि 15 सितंबर को वो घनानंद भट्ट, अधिवक्ता आनंद सिंह पंवार, पूरन सिंह रावत और प्रीतम पंवार समेत हजारों आंदोलनकारियों के साथ बाटाघाट पहुंचे थे, तो पुलिस ने उन्हें घेर लिया था. सभी आंदोलनकारियों को बस के माध्यम से वुडस्टॉक स्कूल के मुख्य गेट से 200 मीटर पहले रोक दिया था.

जान बचाने के लिए खाई में कूदे थे लोग: इस मौके पर तत्कालीन एडीएम और एसीपी से मसूरी जाने को लेकर वार्ता की गई. परन्तु पुलिस और प्रशासन ने उनकी एक नहीं सुनी. इस पर राज्य आंदोलनकारी भड़क गए और वे नारेबाजी करने लगे. तभी यूपी की रैपिड एक्शन फोर्स ने आंदोलनकारियों पर लाठी बरसानी शुरू कर दी. इसके बाद वहां अफरा-तफरी मच गई. कई लोगों ने खाई में भी छलांग मारी दी. इस वजह से कई लोग गंभीर रूप से भी घायल हो गए थे.

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पुलिस ने घायलों को भी नहीं बख्शा: जोत सिंह बिष्ट बताते हैं कि उन्हें आज भी याद है कि उनके नेतृत्व में कुछ आंदोलनकारी जो घायल हुए थे, वे मसूरी वुडस्टॉक स्कूल में चले गए थे, जहां पर उनका उपचार किया जा रहा था. लेकिन पुलिस वहां भी पहुंच गई थी और उनको गिरफ्तार करके ले गई थी. गंभीर रूप से घायल लोगों को दून अस्पताल ले जाया गया था और कईयों को जेल भेज दिया गया था.

आज भी नहींं भूले वो खौफनाक मंजर: जोत सिंह बिष्ट बताते हैं कि आज भी उस मंजर को याद करके कांप उठते हैं. पुलिस की बर्बरता का वो दिन वो कभी नहीं भूलते हैं. उन्होंने कहा कि उसी 15 सितंबर को वुडस्टॉक स्कूल के पास गंभीर रूप से घायल जेठा सिंह को अस्पताल ले जाया गया. जहां पर उनको उपचार के बाद घर भेजा गया, परंतु कुछ महीने बाद ही उनकी मृत्यु हो गई.

जोत सिंह बिष्ट ने कहा कि उत्तराखंड के लिए कई लोग शहीद हुए थे. वहीं कई ऐसे लोग भी थे जिन्होंने उत्तर प्रदेश पुलिस की बर्बरता का दंश झेला था. उत्तराखंड को बने हुए 21 साल हो गए हैं और मसूरी गोलीकांड के भी 27 बरस पूरे हो चुके हैं. इन 21 सालों में उत्तराखंड में काफी विकास हुआ है, लेकिन अभी भी सपनों को उत्तराखंड नहीं बना है.

सीबीआई का मुकदमा झेलने वाली सुभाषिनी बर्त्वाल की दास्तां: सीबीआई का मुकदमा झेलने वाली सुभाषिनी बर्त्वाल ने बताया कि अलग राज्य के निर्माण को लेकर उनके जैसे कई आंदोलनकारियों ने आवाज उठाई थी. लेकिन उनके सपनों के उत्तराखंड का निर्माण नहीं हो सका. न ही आज तक कई आंदोलनकारियों को उनका हक मिल सका है.

पढ़ें- राज्य आंदोलनकारियों की जुबानी, खटीमा और मसूरी गोलीकांड की कहानी

वरिष्ठ आंदोलनकारी जयप्रकाश उत्तराखंडी कहते हैं कि मसूरी की माल रोड पर झूलाघर के पास वे 15 सितंबर 1994 को मसूरी गोलीकांड के विरोध में नारेबाजी कर रहे थे. लेकिन पुलिस ने आंदोलन को कुचलने के लिए पहले से ही तैयारी कर ली थी. लोग नारेबाजी कर रहे थे कि पुलिस ने लाठियां बरसानी शुरू कर दी थी.

राज्य आंदोलनकारी डॉ. हरिमोहन गोयल ने बताया कि जल, जंगल, जमीन और पहाड़ से पलायन के मुद्दे को लेकर राज्य की लड़ाई लड़ी गई थी, लेकिन आज सभी मुद्दे नेताओं की महत्वाकांक्षा के सामने गुम हो गए हैं.

राज्य आंदोलनकारी पूरण जुयाल और प्रदीप भंडारी ने बताया कि ये राज्य सिर्फ नेताओं की ऐशगाह बन गया है. अलग राज्य बनने के बाद कई मुख्यमंत्री बन चुके हैं, लेकिन पहाड़ के विकास के लिए कोई भी गंभीर नहीं है. पलायन जारी है. कोई ठोस नीति नहीं बनी है. उन्होंने कहा कि राज्य के शहीदों और आंदोलनकारियों के अनुरूप उत्तराखंड नहीं बन पाया. न ही शहीदों के हत्यारों को आज तक सजा मिल पाई है.

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