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उत्तराखंड की संस्कृति का प्रतीक 'मंगसीर बग्वाल', उत्तरकाशी में तिब्बत विजय का है उत्सव - उत्तरकाशी में तिब्बत विजय का है उत्सव

मंगसीर बग्वाल उत्तराखंड की संस्कृति का प्रतीक है. अनघा माउंटेन एसोसिएशन हर साल स्थानीय लोगों के साथ मिलकर मंगसीर बग्वाल का आयोजन करती है. पिछलों 16 सालों से लगातार उत्तरकाशी में मंगसीर बग्वाल का आयोजन किया जा रहा है.

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Published : Nov 10, 2022, 5:42 PM IST

देहरादून: उत्तराखंड के कोने-कोने में लोग बरसों से अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाए हुए हैं. इसी कड़ी में एक कदम अपनी संस्कृति और परंपराओं को अक्षुण रखने के लिए उत्तरकाशी में अनघा माउंटेन एसोसिएशन भी कर रहा है. अनघा माउंटेन एसोसिएशन स्थानीय लोगों के साथ मिलकर बीते 16 बरसों से मंगसीर बग्वाल का आयोजन कर रहा है. जिसमें देश-विदेश के लोग बड़ी संख्या में शिरकत करते हैं.

सीमांत जनपद उत्तरकाशी के विभिन्न क्षेत्रों में दीपावली के ठीक एक माह बाद मंगसीर बग्वाल का आयोजन किया जाता है. मान्यता है कि गढ़वाल नरेश महिपत शाह के शासनकाल में तिब्बती लुटेरे गढ़वाल की सीमाओं में घुसकर लूटपाट करते थे. तब राजा ने माधो सिह भंडारी एवं लोदी रिखोला के नेतृत्व में चमोली के पैनखंडा और उत्तरकाशी के टकनौर क्षेत्र से गड़तांग गली नेलांग के रास्ते सेना भेजी.

पढे़ं- भूकंप के झटकों से कांपा पूर्वोत्तर भारत, तीव्रता 5.7, अरुणाचल का सियांग था केंद्र

भोट प्रान्त दावाघाट (तिब्बत) में तिब्बती आक्रमणकारियों को पराजित करने के पश्चात विजयी होकर जब वीर माधो सिंह अपने सैनिकों के साथ वापस टिहरी रियासत में पहुंचे. तत्कालीन समय से ही विजयोत्सव के रूप में टिहरी रियासत (सकलाना, सम्पूर्ण जौनपुर, रवांईं, टकनौर, बाड़ाहाट, बाड़ागड्डी, धनारी, धौंत्री प्राताप नगर क्षेत्र) में मंगसीर बग्वाल मनाने की परंपरा चली आई आ रही है. कहा जाता है कि चीन तथा भारत के बीच मैकमोहन रेखा के निर्धारण में वीर माधो सिंह द्वारा रखे गये मुनारों का सीमांकन के समय ध्यान रखा गया था.

पढे़ं- मसूरी में 4.5 तीव्रता का भूकंप, बिल्डिंग में आई दरार, देखें पहाड़ों की रानी का हाल

तब से लेकर आज तक मंगसीर के महीने में उक्त बग्वाल का आयोजन किया जाता है. इसका एक दूसरा प्रमुख कारण यह भी है कि कार्तिक दीपावली के एक माह बाद अपनी खेती-बाड़ी के काम को सम्पन्न कर, अनाज को अपने कुठार-भंडार में रखकर फुरसत से मंगसीर की बग्वाल हर्षाेल्लास के साथ मनाते हैं. गढ़वाल के विभिन्न क्षेत्रों में आज भी इस प्रथा का प्रचलन है.

लोक संस्कृति से जुड़े अजय पुरी कहते हैं कि उत्तरकाशी में 2007 से स्थानीय लोगों की पहल पर रामलीला मैदान में इस आयोजन को बाड़ाहाट की मंगसीर बग्वाल के नाम से किया जाता है. जिसमे गढ़भोज, गढ़बाजणा, गढ़ बाजार, गढ़ संग्रहालय का तीन दिवसीय कार्यक्रम होता है.

पढे़ं- गढ़वाल केंद्रीय विवि में छात्रसंघ चुनाव से पहले ABVP को झटका, 200 कार्यकर्ताओं ने दिया इस्तीफा

अगली पीढ़ी को हम क्या संस्कृति और परंपरा प्रदान कर सकते हैं, इस उद्देश्य से विभिन्न विद्यालयी छात्र छात्राओं के मध्य गढ़ भाषण, गढ़ निबंध, गढ़ चित्रण, गढ़ फैशन शो, रस्साकस्सी, मुर्गा झपट की प्रतियोगिता सम्पन्न की जाती हैं, जो कि बच्चों में बग्वाल का प्रमुख आकर्षण होता है. भैलों, सामूहिक रांसो, तांदी नृत्य के साथ मंगसीर बग्वाल मनाई जाती है. इस बार से गढ़वाली भाषा के मुहावरों के प्रोत्साहन के लिए गढ़ औखांण की बाल प्रतियोगिता भी आयोजित की जा रही है.

देहरादून: उत्तराखंड के कोने-कोने में लोग बरसों से अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाए हुए हैं. इसी कड़ी में एक कदम अपनी संस्कृति और परंपराओं को अक्षुण रखने के लिए उत्तरकाशी में अनघा माउंटेन एसोसिएशन भी कर रहा है. अनघा माउंटेन एसोसिएशन स्थानीय लोगों के साथ मिलकर बीते 16 बरसों से मंगसीर बग्वाल का आयोजन कर रहा है. जिसमें देश-विदेश के लोग बड़ी संख्या में शिरकत करते हैं.

सीमांत जनपद उत्तरकाशी के विभिन्न क्षेत्रों में दीपावली के ठीक एक माह बाद मंगसीर बग्वाल का आयोजन किया जाता है. मान्यता है कि गढ़वाल नरेश महिपत शाह के शासनकाल में तिब्बती लुटेरे गढ़वाल की सीमाओं में घुसकर लूटपाट करते थे. तब राजा ने माधो सिह भंडारी एवं लोदी रिखोला के नेतृत्व में चमोली के पैनखंडा और उत्तरकाशी के टकनौर क्षेत्र से गड़तांग गली नेलांग के रास्ते सेना भेजी.

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भोट प्रान्त दावाघाट (तिब्बत) में तिब्बती आक्रमणकारियों को पराजित करने के पश्चात विजयी होकर जब वीर माधो सिंह अपने सैनिकों के साथ वापस टिहरी रियासत में पहुंचे. तत्कालीन समय से ही विजयोत्सव के रूप में टिहरी रियासत (सकलाना, सम्पूर्ण जौनपुर, रवांईं, टकनौर, बाड़ाहाट, बाड़ागड्डी, धनारी, धौंत्री प्राताप नगर क्षेत्र) में मंगसीर बग्वाल मनाने की परंपरा चली आई आ रही है. कहा जाता है कि चीन तथा भारत के बीच मैकमोहन रेखा के निर्धारण में वीर माधो सिंह द्वारा रखे गये मुनारों का सीमांकन के समय ध्यान रखा गया था.

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तब से लेकर आज तक मंगसीर के महीने में उक्त बग्वाल का आयोजन किया जाता है. इसका एक दूसरा प्रमुख कारण यह भी है कि कार्तिक दीपावली के एक माह बाद अपनी खेती-बाड़ी के काम को सम्पन्न कर, अनाज को अपने कुठार-भंडार में रखकर फुरसत से मंगसीर की बग्वाल हर्षाेल्लास के साथ मनाते हैं. गढ़वाल के विभिन्न क्षेत्रों में आज भी इस प्रथा का प्रचलन है.

लोक संस्कृति से जुड़े अजय पुरी कहते हैं कि उत्तरकाशी में 2007 से स्थानीय लोगों की पहल पर रामलीला मैदान में इस आयोजन को बाड़ाहाट की मंगसीर बग्वाल के नाम से किया जाता है. जिसमे गढ़भोज, गढ़बाजणा, गढ़ बाजार, गढ़ संग्रहालय का तीन दिवसीय कार्यक्रम होता है.

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अगली पीढ़ी को हम क्या संस्कृति और परंपरा प्रदान कर सकते हैं, इस उद्देश्य से विभिन्न विद्यालयी छात्र छात्राओं के मध्य गढ़ भाषण, गढ़ निबंध, गढ़ चित्रण, गढ़ फैशन शो, रस्साकस्सी, मुर्गा झपट की प्रतियोगिता सम्पन्न की जाती हैं, जो कि बच्चों में बग्वाल का प्रमुख आकर्षण होता है. भैलों, सामूहिक रांसो, तांदी नृत्य के साथ मंगसीर बग्वाल मनाई जाती है. इस बार से गढ़वाली भाषा के मुहावरों के प्रोत्साहन के लिए गढ़ औखांण की बाल प्रतियोगिता भी आयोजित की जा रही है.

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