देहरादून: उत्ततराखंड में वन्यजीव सुरक्षा का सवाल अब भी बरकरार है. शिकारी और तस्कर जंगलों में घुसकर अपनी कारगुजारियों को अंजाम देते हैं और घटना के बाद विभाग लकीर पीटता रह जाता है. वन्यजीवों की अंतरराष्ट्रीय बाजार में बढ़ती डिमांड की वजह से उत्तराखंड के जंगलों में शिकारी और तस्करों की घुसपैठ ज्यादा हो गई है. ऐसे में प्रदेश के संरक्षित वनों में जंगली जानवरों को सबसे ज्यादा खतरे का सामना करना पड़ रहा है.
71 फीसदी वन भूभाग वाले उत्तराखंड में पर्यावरणीय मामलों की स्थिति भले ही बेहतर हो, लेकिन वन एवं वन्यजीवों की सुरक्षा को लेकर सवाल हमेशा उठते रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय बाजार में सबसे ज्यादा तस्करी बाघ की होती है. जिसकी वजह से उत्तराखंड में इस वन्यजीव को कई खतरों का सामना करना पड़ रहा है. इसके अलावा स्नो लेपर्ड, हाथी, कस्तूरी मृग और कई पक्षियों का भी शिकार किया जाता है.
उत्तराखंड के प्रमुख वन संरक्षक राजीव भरतरी कहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में डिमांड की वजह से वन्यजीवों के तस्कर इनके शिकार को लेकर सक्रिय रहते हैं. हालांकि उत्तराखंड वन विभाग तीन स्तर पर वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए काम करता है. पहले स्तर पर वन्य जीवों की सुरक्षा के लिए वनकर्मियों को तैनात किया गया है जो कि वनों में गश्त करते हुए यहां की सुरक्षा को मजबूत करने का काम करते हैं.
वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए पुलिसकर्मियों और अर्धसैनिक बलों की भी मदद ली जाती है, ताकि वन क्षेत्रों के बाहर भी ऐसे वन्यजीव तस्करों की धरपकड़ की जा सके. इसके साथ ही भारत सरकार का वाइल्ड लाइफ कंट्रोल ब्यूरो और डब्ल्यूडब्ल्यूएफ का ट्रैफिक नेटवर्क भी सूचनाओं को इकट्ठा कर ऐसे तस्करों के खिलाफ कार्रवाई करता है.
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उत्तराखंड वन विभाग ने भी राज्य में स्टेट वाइल्डलाइफ क्राइम कंट्रोल ब्यूरो स्थापित किया है, जो वन्यजीवों का शिकार करने वालों के खिलाफ कार्रवाई करता है. इसके अलावा एडिशनल पीसीसीएफ चीफ की अध्यक्षता में वन्यजीवों से जुड़े अपराधों में दोषियों को सजा दिलवाने के लिए एक कमेटी का गठन किया गया है.
उत्तराखंड के संरक्षित पार्कों में बाघ, हाथी और तमाम विलुप्त होते वन्यजीवों की बहुतायत है. उत्तराखंड की सीमा पड़ोसी देश नेपाल से भी लगी हुई है. लिहाजा चुनौतियां और भी बढ़ी हुईं नजर आती हैं. अंतरराष्ट्रीय बाजारों में जिन वन्यजीवों की करोड़ों में कीमत है, ऐसे वन्यजीवों की बेहद ज्यादा संख्या होने के कारण वन्यजीव तस्करों की निगाह उत्तराखंड के जंगलों पर बनी रहती है. अंतरराष्ट्रीय सीमा नजदीक होने के कारण तस्कर घटना को अंजाम देने के बाद सीमा पार कर नेपाल में दाखिल हो जाते हैं. ऐसे में उत्तराखंड तस्कर और शिकारियों के लिए टॉप-10 मुफीद जगहों में एक है.
देश में बावरिया गैंग वन्यजीव तस्करी को लेकर ज्यादा सुर्खियों में रहा है. यूं तो कठोर कानून और मजबूत सर्विलांस के कारण धीरे-धीरे गैंग कमजोर होता जा रहा है. लेकिन अभी भी उत्तराखंड के जंगलों में कुछ गुर्जरों के इनसे मिले होने की भी आशंका जताई जाती है.
2020-21 में शिकार के आंकड़े
- उत्तराखंड में साल 2020-21 में अब तक कुल अवैध शिकार के 150 मामले सामने आए.
- इस साल जनवरी में कुल 15 अवैध शिकार के मामले सामने आए.
- कुमाऊं मंडल में कुल 93 और गढ़वाल मंडल में 46 अवैध शिकार हुए.
- संरक्षित जोन में कुल 11 अवैध शिकार के मामले सामने आए.
वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972
भारत सरकार ने वर्ष 1972 में भारतीय वन्य जीव संरक्षण अधिनियम पारित किया था. इसका मकसद वन्यजीवों के अवैध शिकार, मांस और खाल के व्यापार पर रोक लगाना था. इसे वर्ष 2003 में संशोधित किया गया. तब इसका नाम भारतीय वन्य जीव संरक्षण (संशोधित) अधिनियम 2002 रखा गया. इसके तहत दंड और जुर्माने को कहीं कठोर कर दिया गया.
बात समझने की है कि वन एवं वन्यजीवों के मामले में उत्तराखंड की देश-दुनिया में अलग पहचान है. इस विरासत को संजोए रखने के लिए ऐसे कदम उठाने की दरकार है, जिससे यह महफूज रहे और यहां के जनजीवन पर भी कोई असर न पड़ने पाए. शिकारियों और तस्करों की गिद्ध दृष्टि से वन्यजीवों को बचाने के लिए जैसे इंतजाम होने चाहिए, उस दिशा में अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है. शिकारी और तस्कर जंगलों में घुसकर अपनी कारगुजारियों को अंजाम देते हैं और बाद में महकमा लकीर पीटता रह जाता है. ये बात अलग है कि संरक्षित क्षेत्रों में नियमित गश्त, लंबी दूरी की गश्त, कैमरा ट्रैप से निगरानी समेत अन्य दावे अक्सर होते आए हैं, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही रहता है.