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पर्यावरण के संरक्षण का पर्व हरेला आज, जानिए इसका महत्व और परंपरा

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Published : Jul 16, 2021, 5:52 AM IST

आज हरेला है. हरेला उत्तराखंड का एक प्रमुख लोक पर्व है. हरेले को इष्ट-देव को अर्पित करके अच्छे धन-धान्य, दुधारू जानवरों की रक्षा और सगे-संबंधियों की कुशलता की कामना की जाती है. हरेला पर्यावरण संरक्षण का पर्व भी है.

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देहरादून

देहरादूनः उत्तराखंड में हर ऋतु अपने साथ एक त्योहार भी लेकर आती है. श्रावण मास में पड़ने वाला ऐसा ही एक त्योहार हरेला है, जो उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र का लोकप्रिय त्योहार है. यह त्योहार ऋतु परिवर्तन के साथ-साथ किसानों और पर्यावरण से भी जुड़ा हुआ है.

हरेला पर्व उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र का सुप्रसिद्ध और लोक पर्व है. हरेला पर्व से 9 या 10 दिन पहले घरों में थाली, मिट्टी व रिंगाल से बनी टोकरी में 7 प्रकार के अनाज बोये जाते हैं. इस दौरान हर दिन सुबह-शाम जल चढ़ाकर इसकी पूजा-अर्चना की जाती है. साथ ही भगवान से परिवार में सुख, समृद्धि और शांति बनाए रखने की प्रार्थना की जाती है. मान्यता है कि जिसका हरेला जितना बड़ा होगा उसे कृषि में उतना ही लाभ होगा. इससे किसान अपनी फसल की पैदावार का अनुमान भी लगाते हैं.

हरेला पर्व को खुशहाली और उन्नति का प्रतीक भी माना गया है. हरेला काटने से पहले कई तरह के पकवान बनाकर देवी-देवताओं को भोग लगाने के बाद उनकी पूजा की जाती है. हरेला पूजन के बाद घर, परिवार के सभी लोगों को हरेला शिरोधारण कराया जाता है. इस मौके पर ‘लाग हरयाव, लाग बग्वाल, जी रया, जागि रया, यो दिन बार भेटने रयै’ शब्दों के साथ बड़े-बुजुर्ग आशीर्वाद देते हैं.

लोकपर्व 'हरेला' आस्था का प्रतीक: पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक उत्तराखंड को भगवान शिव का निवास स्थान भी माना जाता है. जिसके कारण हरेला पर्व भगवान शिव के विवाह की जयंती के रूप में भी मनाया जाता है. इस दिन भगवान शिव, माता पार्वती और उनके परिवार के सभी सदस्यों की मिट्टी से मूर्तियां बनाई जाती हैं. जिन्हें प्राकृतिक रंगों से रंगा जाता है. कुमाऊं क्षेत्र में कई जगहों पर हरेला पर्व के दिन मेला भी लगता है.

ये भी पढ़ेंः वन अनुसंधान केंद्र ने बनाई तुलसी वाटिका, 24 किस्मों का हो रहा संरक्षण

खास बात यह है कि हरेला पर्व पूरे साल में तीन बार अलग-अलग महीने (चैत्र, श्रावण और आषाढ़) में आता है. लेकिन श्रावण मास के पहले दिन पड़ने वाले हरेला का सबसे अधिक महत्व है. इस दिन भगवान शिव की विशेषकर पूजा की जाती है.

प्रकृति संवर्धन और संरक्षण का प्रतीकः मान्यता है कि श्रावण मास में किसी भी वृक्ष की टहनी बिना जड़ के ही अगर जमीन में रोप दी जाय तो वह एक वृक्ष के रूप में ही बढ़ने लगता है. इसीलिए कई जगहों पर हरेला त्योहार के दिन विशेष रूप से फलदार वृक्ष लगाने का प्रचलन है, जो कि पर्यावरण के प्रति हमारी कर्तव्य निष्ठा और प्रकृति प्रेम को भी दर्शाता है. साथ ही यह त्योहार सामाजिक सद्भाव और सहयोग का पर्व है.

वहीं, पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज का कहना है कि "प्रकृति का संरक्षण और संवर्धन उत्तराखंड की परंपरा का अहम हिस्सा रहा है. हरेला पर्व सुख, शांति और समृद्धि का प्रतीक होने के साथ-साथ सामाजिक सद्भाव और सहयोग का प्रतीक है. इसलिए हरेला पर्व के सुअवसर पर हम अपने पर्यावरण और प्रकृति के संरक्षण का संकल्प लें साथ ही सामाजिक सद्भाव और सहयोग से इस कोरोना रूपी महामारी को दूर करने का संकल्प लें.

वहीं, पर्यटन सचिव दिलीप जावलकर ने कहा कि ‘हरेला पर्व हमारी संस्कृति और पर्यावरण के संगम को दर्शाता है. साथ ही हमें अपने पर्यावरण और प्रकृति के संरक्षण के संकल्प की याद भी दिलाता है. हमें अपने लोक पर्व और संस्कृति को आगे बढ़ाते हुए, हरेला पर्व के दिन एक वृक्ष जरूर लगाना चाहिए.

देहरादूनः उत्तराखंड में हर ऋतु अपने साथ एक त्योहार भी लेकर आती है. श्रावण मास में पड़ने वाला ऐसा ही एक त्योहार हरेला है, जो उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र का लोकप्रिय त्योहार है. यह त्योहार ऋतु परिवर्तन के साथ-साथ किसानों और पर्यावरण से भी जुड़ा हुआ है.

हरेला पर्व उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र का सुप्रसिद्ध और लोक पर्व है. हरेला पर्व से 9 या 10 दिन पहले घरों में थाली, मिट्टी व रिंगाल से बनी टोकरी में 7 प्रकार के अनाज बोये जाते हैं. इस दौरान हर दिन सुबह-शाम जल चढ़ाकर इसकी पूजा-अर्चना की जाती है. साथ ही भगवान से परिवार में सुख, समृद्धि और शांति बनाए रखने की प्रार्थना की जाती है. मान्यता है कि जिसका हरेला जितना बड़ा होगा उसे कृषि में उतना ही लाभ होगा. इससे किसान अपनी फसल की पैदावार का अनुमान भी लगाते हैं.

हरेला पर्व को खुशहाली और उन्नति का प्रतीक भी माना गया है. हरेला काटने से पहले कई तरह के पकवान बनाकर देवी-देवताओं को भोग लगाने के बाद उनकी पूजा की जाती है. हरेला पूजन के बाद घर, परिवार के सभी लोगों को हरेला शिरोधारण कराया जाता है. इस मौके पर ‘लाग हरयाव, लाग बग्वाल, जी रया, जागि रया, यो दिन बार भेटने रयै’ शब्दों के साथ बड़े-बुजुर्ग आशीर्वाद देते हैं.

लोकपर्व 'हरेला' आस्था का प्रतीक: पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक उत्तराखंड को भगवान शिव का निवास स्थान भी माना जाता है. जिसके कारण हरेला पर्व भगवान शिव के विवाह की जयंती के रूप में भी मनाया जाता है. इस दिन भगवान शिव, माता पार्वती और उनके परिवार के सभी सदस्यों की मिट्टी से मूर्तियां बनाई जाती हैं. जिन्हें प्राकृतिक रंगों से रंगा जाता है. कुमाऊं क्षेत्र में कई जगहों पर हरेला पर्व के दिन मेला भी लगता है.

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खास बात यह है कि हरेला पर्व पूरे साल में तीन बार अलग-अलग महीने (चैत्र, श्रावण और आषाढ़) में आता है. लेकिन श्रावण मास के पहले दिन पड़ने वाले हरेला का सबसे अधिक महत्व है. इस दिन भगवान शिव की विशेषकर पूजा की जाती है.

प्रकृति संवर्धन और संरक्षण का प्रतीकः मान्यता है कि श्रावण मास में किसी भी वृक्ष की टहनी बिना जड़ के ही अगर जमीन में रोप दी जाय तो वह एक वृक्ष के रूप में ही बढ़ने लगता है. इसीलिए कई जगहों पर हरेला त्योहार के दिन विशेष रूप से फलदार वृक्ष लगाने का प्रचलन है, जो कि पर्यावरण के प्रति हमारी कर्तव्य निष्ठा और प्रकृति प्रेम को भी दर्शाता है. साथ ही यह त्योहार सामाजिक सद्भाव और सहयोग का पर्व है.

वहीं, पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज का कहना है कि "प्रकृति का संरक्षण और संवर्धन उत्तराखंड की परंपरा का अहम हिस्सा रहा है. हरेला पर्व सुख, शांति और समृद्धि का प्रतीक होने के साथ-साथ सामाजिक सद्भाव और सहयोग का प्रतीक है. इसलिए हरेला पर्व के सुअवसर पर हम अपने पर्यावरण और प्रकृति के संरक्षण का संकल्प लें साथ ही सामाजिक सद्भाव और सहयोग से इस कोरोना रूपी महामारी को दूर करने का संकल्प लें.

वहीं, पर्यटन सचिव दिलीप जावलकर ने कहा कि ‘हरेला पर्व हमारी संस्कृति और पर्यावरण के संगम को दर्शाता है. साथ ही हमें अपने पर्यावरण और प्रकृति के संरक्षण के संकल्प की याद भी दिलाता है. हमें अपने लोक पर्व और संस्कृति को आगे बढ़ाते हुए, हरेला पर्व के दिन एक वृक्ष जरूर लगाना चाहिए.

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