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महिला दिवस विशेष: जागर गायिका बसंती देवी ने दिलाई देवभूमि की संस्कृति को नई पहचान

ईटीवी भारत आपको ऐसी महिलाओं से मिलवाने जा रहा है. जिन्होंने अपनी दम पर समाज में अपनी एक अलग पहचान बनाई है. पद्मश्री बसंती बिष्ट ऐसी ही शख्सियतों में से एक हैं. देखिए ETV भारत पर बसंती देवी से खास बातचीत...

जागर गायिक बसंती बिष्ट.
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Published : Feb 28, 2019, 9:03 PM IST

देहरादून: आगामी 8 मार्च को पूरे विश्व अंतरराष्ट्रीय महिला दिवास मनाने जा रहा है. ऐसे में ईटीवी भारत आपको ऐसी महिलाओं से मिलवाने जा रहा है. जिन्होंने अपनी दम पर समाज में अपनी एक अलग पहचान बनाई है. पद्मश्री बसंती बिष्ट ऐसी ही शख्सियतों में से एक हैं. जिन्होंने न सिर्फ अपनी प्रतिभा से राष्ट्रीय फलक पर सूबे का नाम रोशन किया है. बल्कि, देश-दुनिया को भी उत्तराखंड की संस्कृति से रूबरू करवाया.

उत्तराखंड की लोकसंस्कृति के संरक्षण और संवर्धन में जुटी हैं बसंती बिष्ट.

उत्तराखंड की लोक संस्कृति की ध्वज वाहक बनकर बसंती बिष्ट ने आज देवभूमि की पारंपरिक जागर विधा को जिंदा रखे हुए हैं. ETV भारत से महिलाओं के सशक्तिकरण को लेकर बातचीत में बसंती बिष्ट ने कहा कि आज महिलाओं के सशक्तिकरण को लेकर जो प्रयास हो रहे हैं. उनका समाज में निश्चित रूप से प्रभाव दिख रहा है. लेकिन आज भी न्याय के मामलों महिलाएं पिछड़ी हुईं हैं.

बसंती बिष्ट ने कहा कि उत्तराखंड राज्य निर्माण में महिलाओं ने अग्रमी भूमिका निभाई. लेकिन आज भी उन्हें अपने सपनों का उत्तराखंड नहीं मिल पाया है. पहाड़ी क्षेत्रों में आज भी महिलाओं की स्थिति जस की तस बनी हुई है. उनके सिर का बोझ आज भी कम नहीं हुआ है.

ईटीवी भारत पर अपने लोक जागरों के सफर को साझा करते हुए बसंती देवी ने कहा कि जब वो छोटी थी तब अपनी मां से वह जागर सुना करती थीं. उन्हें जागर गाना बहुत पसंद था. उनकी मां पूजा में जो जागर गाती और अगली दिन वो वही जागर अपनी मां से फिर से सुनती. बसंती बिष्ट ने बताया कि उस दौर में महिलाओं को गाने की इतनी आजादी नहीं थी. शादी के बाद उन्होंने अपने पति से सहयोग से चंडीगढ़ में 6 साल तक शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली.

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बसंती बिष्ट को 26 जनवरी 2017 को मिला था पद्मश्री सम्मान.

बसंती बिष्ट बताती है कि उन्हें उसे दौर में बॉलीवुड के गाने और गजल भी पसंद आते थे. लेकिन उनकी रूचि लोक जागरों में ही थी. लिहाजा उन्होंने विलुप्ति की ओर जा रही उत्तराखंड की लोक संस्कृति के संरक्षण का जिम्मा उठाया. बसंती बिष्ट का कहना है कि जो वह गाती हैं. वह 10 प्रतिशत से भी कम है. जितना समृद्ध लोकसंगीत उन्होंने सुना और समझा है. उनका कहना है कि जागर गायन हमारे पित्रों के लिए एक समर्पण है. उनसे जितना बन पाता है वह इसमें अपना योगदान देती है.

लोकसंस्कृति को बचाने के सवाल पर बसंती बिष्ट कहती हैं कि संस्कृति को बचाने की चिंता अक्सर वह लोग करते हैं, जिनके हाथों में पावर नहीं है. उनका कहना है कि संस्कृति के संरक्षण की चिंता करने की आवश्यकता उनको है जो बदलाव ला सकते हैं. बसंती बिष्ट का कहना है कि आज बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ की बात हो रही है. लेकिन इसकी आवश्यकता आज क्यों आन पड़ी है. इस बात पर मंथन करने की आवश्यकता है.

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बसंती देवी का कहना है कि हमें अपनी पीढ़ी को संस्कारवान बनाने की आवश्यकता है. महिलाएं भोग की विषय वस्तु नहीं है. समाज में बेटा और बेटी के फर्क को दूर केवल संस्कारों के बूते ही किया जा सकता है. महिला उत्थान का जिम्मा केवल सरकार का नहीं है. समाज के हर नागरिक की जिम्मेदारी बनती है कि वह इस दिशा में काम करे और दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर ही इस संकल्प को पूरा किया जा सकता है.

देहरादून: आगामी 8 मार्च को पूरे विश्व अंतरराष्ट्रीय महिला दिवास मनाने जा रहा है. ऐसे में ईटीवी भारत आपको ऐसी महिलाओं से मिलवाने जा रहा है. जिन्होंने अपनी दम पर समाज में अपनी एक अलग पहचान बनाई है. पद्मश्री बसंती बिष्ट ऐसी ही शख्सियतों में से एक हैं. जिन्होंने न सिर्फ अपनी प्रतिभा से राष्ट्रीय फलक पर सूबे का नाम रोशन किया है. बल्कि, देश-दुनिया को भी उत्तराखंड की संस्कृति से रूबरू करवाया.

उत्तराखंड की लोकसंस्कृति के संरक्षण और संवर्धन में जुटी हैं बसंती बिष्ट.

उत्तराखंड की लोक संस्कृति की ध्वज वाहक बनकर बसंती बिष्ट ने आज देवभूमि की पारंपरिक जागर विधा को जिंदा रखे हुए हैं. ETV भारत से महिलाओं के सशक्तिकरण को लेकर बातचीत में बसंती बिष्ट ने कहा कि आज महिलाओं के सशक्तिकरण को लेकर जो प्रयास हो रहे हैं. उनका समाज में निश्चित रूप से प्रभाव दिख रहा है. लेकिन आज भी न्याय के मामलों महिलाएं पिछड़ी हुईं हैं.

बसंती बिष्ट ने कहा कि उत्तराखंड राज्य निर्माण में महिलाओं ने अग्रमी भूमिका निभाई. लेकिन आज भी उन्हें अपने सपनों का उत्तराखंड नहीं मिल पाया है. पहाड़ी क्षेत्रों में आज भी महिलाओं की स्थिति जस की तस बनी हुई है. उनके सिर का बोझ आज भी कम नहीं हुआ है.

ईटीवी भारत पर अपने लोक जागरों के सफर को साझा करते हुए बसंती देवी ने कहा कि जब वो छोटी थी तब अपनी मां से वह जागर सुना करती थीं. उन्हें जागर गाना बहुत पसंद था. उनकी मां पूजा में जो जागर गाती और अगली दिन वो वही जागर अपनी मां से फिर से सुनती. बसंती बिष्ट ने बताया कि उस दौर में महिलाओं को गाने की इतनी आजादी नहीं थी. शादी के बाद उन्होंने अपने पति से सहयोग से चंडीगढ़ में 6 साल तक शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली.

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बसंती बिष्ट को 26 जनवरी 2017 को मिला था पद्मश्री सम्मान.

बसंती बिष्ट बताती है कि उन्हें उसे दौर में बॉलीवुड के गाने और गजल भी पसंद आते थे. लेकिन उनकी रूचि लोक जागरों में ही थी. लिहाजा उन्होंने विलुप्ति की ओर जा रही उत्तराखंड की लोक संस्कृति के संरक्षण का जिम्मा उठाया. बसंती बिष्ट का कहना है कि जो वह गाती हैं. वह 10 प्रतिशत से भी कम है. जितना समृद्ध लोकसंगीत उन्होंने सुना और समझा है. उनका कहना है कि जागर गायन हमारे पित्रों के लिए एक समर्पण है. उनसे जितना बन पाता है वह इसमें अपना योगदान देती है.

लोकसंस्कृति को बचाने के सवाल पर बसंती बिष्ट कहती हैं कि संस्कृति को बचाने की चिंता अक्सर वह लोग करते हैं, जिनके हाथों में पावर नहीं है. उनका कहना है कि संस्कृति के संरक्षण की चिंता करने की आवश्यकता उनको है जो बदलाव ला सकते हैं. बसंती बिष्ट का कहना है कि आज बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ की बात हो रही है. लेकिन इसकी आवश्यकता आज क्यों आन पड़ी है. इस बात पर मंथन करने की आवश्यकता है.

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बसंती देवी का कहना है कि हमें अपनी पीढ़ी को संस्कारवान बनाने की आवश्यकता है. महिलाएं भोग की विषय वस्तु नहीं है. समाज में बेटा और बेटी के फर्क को दूर केवल संस्कारों के बूते ही किया जा सकता है. महिला उत्थान का जिम्मा केवल सरकार का नहीं है. समाज के हर नागरिक की जिम्मेदारी बनती है कि वह इस दिशा में काम करे और दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर ही इस संकल्प को पूरा किया जा सकता है.

Feed sensed by Live U
Name- Basant Bist

 Riport- Dheeraj Sajwan, Dehradun



महिलाओं के उत्थान के लिए सरकार ही नही आम जन के दृढ इच्छा की भी जरुरत
एंकर- जहां एक तरफ हम आगामी 8 मार्च को अंतराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने जा रहें है तो इस दौर उन महिलाओं का जिक्र करना जरुरी है जिन्होने अपने दम पर समाज में अपनी एक अलग पहचान बनाई है... उत्तराखंड की एसी ही एक महीला है बंसती बिष्ट.. पद्मश्री, राष्ट्रीय देवी अहिल्या बाई, तीलू रोतेली, के साथ तकरीबन दर्जनभर पुरस्कारों से सम्मानित उत्तराखंड चमोली के देवाल ब्लाक की मूल नीवासी बसंती बिष्ट से Etv भारत ने उनके इस प्ररेणा दायक सफर के बातचीत की और जाना कि आज उत्तराखंड में महीला उत्थान पर उनका क्या कहना है.....

वीओ- उत्तराखंड की विलुप्त होती लोक पारंपरिक जागर को पहचान देने वाली पहली महीला बसंती बिष्ट आज महीला दिवस के रुप में एक बड़ी प्रेरणा है... Etv भारत से खास बातचीत में बसंती बिष्ट ने कहा की महिलाओं के सशक्तिकरण को लेकर कुछ तो प्रयास हुए हैं लेकिन जितना प्रयास होना चाहिए था उतना नहीं हुआ है। महिलाओं का समाज के प्रति जितना समर्पण रहा है उतना न्याय महिलाओं के हिस्से में नही आया है। खास तौर से उत्तराखंड की महिलाओं की स्थीती पर बोलते हुए बंसती बिष्ट ने कहा कि उत्तराखंड राज्य को पाने में पहाड़ की महिलाओं की भागीदारी किसी से छुपी नही है। लेकिन जिन सपनो के साथ उत्तराखंड की महिलाओं ने राज्य आंदोलन में अपनी आहुती दी है उसका फल उन्हे नही मिला है।

अपने अब तक के सफर को ईटीवी भारत से साझा करते हुए बसंती बिष्ट ने बताया कि जब वो छोटी थी तब ही उनकी माता से उन्हे जागर गायन की प्रेरणा मिल गई थी.... बसंती बिष्ट बताती है कि उनकी माता जी पूजा में गाया करती थी तो अगले दिन आकर वही जागर वो उन से सुना करती थी और साथ में उनका भावार्थ भी समझा करती थी... उसके बाद उन्होने उस दौर में जब महिलाओं को उतनी आजादी नही थी तब छुप छुप कर उन्होने अपनी इस कला को निखारा और जब उनकी शादी हुई तो उनके पति के सहयोग से उन्होने चडिंगढ में 6 साल तक संगीत की शिक्षा ली और उस दौरान उन्होने संगीत के गई रुप देखे जिसमें बॉलीबुड में लता जी को भी सुना करती थी लेकिन उन्होने विलुप्त होती जा रही उत्तराखंड की लोक संस्कृती के संरक्षण करने का जिम्मा उठाया और लोग जागर के क्षेत्र में काम करने की साची... बसंति बिष्ट ने कहा कि जितनो वो जागर गाती हैं और जितना वो समझती है जागर का विषय उससे कई गुना ज्यादा समृध और बड़ा है और वो उस में से केवल 10 फीसदी ही समझ और गा पाती है... उन्होंने कहा कि उत्तराखंड की लोक संस्कृति, पहाड़ की परंपरा और पितरों के लिए एक समर्पण है और वह चाहती हैं कि जब तक हो सकता है वह उत्तराखंड की लोक संस्कृति के प्रति अपने समर्पण को दे सके। बसंती बिष्ट ने लोक जागरण के बारे में बताते हुए कहा कि उत्तराखंड की लोक संस्कृति में कई प्रकार के वेद और कई प्रकार के वर्णन इस जागरण शैली में है उन्होंने प्रकृति से जुड़े हुए कुछ जागर गुनगुनाए भी और उनके मतलब भी समझाएं जिससे यह साबित होता है कि उत्तराखंड की लोक संस्कृति कितनी पारंपरिक और पुरानी है इसके अलावा उन्होंने पहाड़ पर संघर्ष करती महिला के दर्द को भी अपने जागर रचनाओं के माध्यम से रखा... 

विलुप्त होती इस संस्कृती के बारे में बंसती बिष्ट कहती है कि वो लोग इस संस्कृति की चिंता करते हैं उनके हाथ में पावर नहीं है लेकिन जिन लोगों के हाथ में पावर हैं वह लोग आज इस लोक संस्कृति के संरक्षण के बारे में इतना नहीं सोचते हैं। बसंती बिष्ट ने महिला उत्थान पर कहा कि हम मन से तो बात करते हैं बेटी बचाने की लेकिन उन्होंने एक कुमाउ में मौजूद एक परिवार का उदाहरण देते हुए कहा कि 109 साल की एक वृद्ध महिला है उसकी 7 बेटीयां है लेकिन उसको कोई किसी भी तरह की पेंशन नहीं मिल पा रही है उन्होंने उस परिवार के बारे में बताते हुए कहा कि उस परिवार ने अपनी सभी बेटियों को वेद मंत्र और सभी प्रकार के संस्कारों से परिपूर्ण किया है। उन्होने कहा कि हमें बचपन से लेकर बड़ों तक महिलाओं को सम्मान के प्रति लोगो में संस्कार देने की जुरुरत है। उन्होने कहा कि हमें हमें महिलाओं को भोग का विषय ना समझ कर जरुरत की दृष्टी से सोचने का संस्कार समाज में भरने का काम करना होगा और यही हमारे संसार को पूरा करता है। उन्होने पुरुषो ही नही महिलाओं को भी इस बदलाव में आने की अपील की। उन्होने कहा कि महिला उत्थान के लिए केवल सरकारे की ही नही आम जन की दृढ़ इच्छा भी जरुरी है...।

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