देहरादून: आगामी 8 मार्च को पूरे विश्व अंतरराष्ट्रीय महिला दिवास मनाने जा रहा है. ऐसे में ईटीवी भारत आपको ऐसी महिलाओं से मिलवाने जा रहा है. जिन्होंने अपनी दम पर समाज में अपनी एक अलग पहचान बनाई है. पद्मश्री बसंती बिष्ट ऐसी ही शख्सियतों में से एक हैं. जिन्होंने न सिर्फ अपनी प्रतिभा से राष्ट्रीय फलक पर सूबे का नाम रोशन किया है. बल्कि, देश-दुनिया को भी उत्तराखंड की संस्कृति से रूबरू करवाया.
उत्तराखंड की लोक संस्कृति की ध्वज वाहक बनकर बसंती बिष्ट ने आज देवभूमि की पारंपरिक जागर विधा को जिंदा रखे हुए हैं. ETV भारत से महिलाओं के सशक्तिकरण को लेकर बातचीत में बसंती बिष्ट ने कहा कि आज महिलाओं के सशक्तिकरण को लेकर जो प्रयास हो रहे हैं. उनका समाज में निश्चित रूप से प्रभाव दिख रहा है. लेकिन आज भी न्याय के मामलों महिलाएं पिछड़ी हुईं हैं.
बसंती बिष्ट ने कहा कि उत्तराखंड राज्य निर्माण में महिलाओं ने अग्रमी भूमिका निभाई. लेकिन आज भी उन्हें अपने सपनों का उत्तराखंड नहीं मिल पाया है. पहाड़ी क्षेत्रों में आज भी महिलाओं की स्थिति जस की तस बनी हुई है. उनके सिर का बोझ आज भी कम नहीं हुआ है.
ईटीवी भारत पर अपने लोक जागरों के सफर को साझा करते हुए बसंती देवी ने कहा कि जब वो छोटी थी तब अपनी मां से वह जागर सुना करती थीं. उन्हें जागर गाना बहुत पसंद था. उनकी मां पूजा में जो जागर गाती और अगली दिन वो वही जागर अपनी मां से फिर से सुनती. बसंती बिष्ट ने बताया कि उस दौर में महिलाओं को गाने की इतनी आजादी नहीं थी. शादी के बाद उन्होंने अपने पति से सहयोग से चंडीगढ़ में 6 साल तक शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली.
बसंती बिष्ट बताती है कि उन्हें उसे दौर में बॉलीवुड के गाने और गजल भी पसंद आते थे. लेकिन उनकी रूचि लोक जागरों में ही थी. लिहाजा उन्होंने विलुप्ति की ओर जा रही उत्तराखंड की लोक संस्कृति के संरक्षण का जिम्मा उठाया. बसंती बिष्ट का कहना है कि जो वह गाती हैं. वह 10 प्रतिशत से भी कम है. जितना समृद्ध लोकसंगीत उन्होंने सुना और समझा है. उनका कहना है कि जागर गायन हमारे पित्रों के लिए एक समर्पण है. उनसे जितना बन पाता है वह इसमें अपना योगदान देती है.
लोकसंस्कृति को बचाने के सवाल पर बसंती बिष्ट कहती हैं कि संस्कृति को बचाने की चिंता अक्सर वह लोग करते हैं, जिनके हाथों में पावर नहीं है. उनका कहना है कि संस्कृति के संरक्षण की चिंता करने की आवश्यकता उनको है जो बदलाव ला सकते हैं. बसंती बिष्ट का कहना है कि आज बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ की बात हो रही है. लेकिन इसकी आवश्यकता आज क्यों आन पड़ी है. इस बात पर मंथन करने की आवश्यकता है.
बसंती देवी का कहना है कि हमें अपनी पीढ़ी को संस्कारवान बनाने की आवश्यकता है. महिलाएं भोग की विषय वस्तु नहीं है. समाज में बेटा और बेटी के फर्क को दूर केवल संस्कारों के बूते ही किया जा सकता है. महिला उत्थान का जिम्मा केवल सरकार का नहीं है. समाज के हर नागरिक की जिम्मेदारी बनती है कि वह इस दिशा में काम करे और दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर ही इस संकल्प को पूरा किया जा सकता है.