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देहरादून की 5500 बीघा सरकारी जमीन चढ़ गई अतिक्रमण की भेंट, 47 साल से चल रहा खेल

देहरादून की 5500 बीघा सरकारी जमीन पर अतिक्रमण हो गया है. इसका खुलासा तब हुआ जब देहरादून में भाजपा मुख्यालय निर्माण के लिए चिन्हित जमीन चाय बागान की निकली. इसके बाद मामले की जांच की गई तो जमीनों पर कब्जों व कब्जों की तैयारी की कहानी का पता चला है. खास बात ये है कि ये खेल 47 साल से चलता आ रहा है.

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Published : Aug 26, 2022, 11:57 AM IST

Updated : Aug 28, 2022, 5:27 PM IST

देहरादूनः उत्तराखंड में कई योजनाओं और केंद्रीय संस्थाओं को जमीन ना मिलने के कारण इन परियोजनाओं को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है. लेकिन, आपको ये जानकर हैरानी होगी कि देहरादून में ही करीब 5500 बीघा सरकारी जमीन अवैध रूप से कब्जा (encroachment on 5500 bigha government land) की जा रही है. हैरानी की बात ये है कि प्रशासन इन कब्जों पर आंखें मूंद कर बैठा रहा. ये कहानी साल 1960 में लाए गए सीलिंग एक्ट (ceiling act) से शुरू होती है. इस पर यूपी सरकार ने साल 1975 में एक विशेष आदेश जारी किया. हालांकि, ये आदेश सरकारी फाइलों में दबकर रह गया है.

देहरादून में आज जमीनों के दाम आसमान छू रहे हैं. शायद यही वजह है कि भू माफियाओं की नजर हरपल ऐसी बेशकीमती जमीनों पर रहती है, जहां कानूनी दांव पेंच के जरिए वो खुद के वारे-न्यारे कर सकें. आपको जानकर हैरानी होगी कि दून में आपराधिक मामलों में सबसे ज्यादा शिकायतें लैंड फ्रॉड को लेकर ही हैं. लेकिन आज हम बात उस खेल की करेंगे जिसकी शुरुआत 47 साल पहले ही कर दी गई थी. जी हां, 1960 में आए सीलिंग एक्ट पर 1975 में उत्तर प्रदेश सरकार ने एक ऐसा आदेश किया जो जमीनों के खेल को पूरी तरह से प्रतिबंधित करने वाला था.

सरकारी जमीन चढ़ गई अतिक्रमण की भेंट.

चाय बागान की भूमि, सरकार में निहितः दरअसल यूपी सरकार ने 10 अक्टूबर 1975 के बाद चाय बागान से जुड़ी भूमि का लैंड यूज बदलते ही इस भूमि के सरकार में निहित होने का आदेश जारी किया. खास बात यह है कि 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने भी यूपी के 10 अक्टूबर 1975 की समय सीमा से जुड़े फैसले को आदेश में कहा. इस तरह यह तय हो गया कि 1975 के बाद चाय बागान की कोई भी भूमि चाय बागान के अलावा किसी भी रूप में प्रयोग होने पर वह स्वतः ही सरकार में निहित हो जाएगी. मजे की बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बावजूद भी इन जमीनों को खुर्द बुर्द करने का खेल शुरू हो गया. इसमें तेजी तब आई जब उत्तराखंड के उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद देहरादून को अस्थाई राजधानी के रूप में घोषित कर दिया गया.
ये भी पढ़ेंः तो क्या अतिक्रमण की जद में आया BJP का प्रस्तावित मुख्यालय, हरीश रावत ने की CBI जांच की मांग

2005 में तत्कालीन डीएम ने किया था खुलासाः चौंकाने वाली बात यह है कि यह सब सरकार और शासन के साथ प्रशासन के अधिकारियों के सामने होता रहा. ऐसा नहीं कि इसकी जानकारी अधिकारियों को नहीं थी. जानकारी के मुताबिक, 2005 में देहरादून की जिलाधिकारी रहीं मनीषा पंवार ने इस पूरे खेल को तत्कालीन गढ़वाल कमिश्नर को अपनी रिपोर्ट के जरिए बताया. लेकिन इसका कोई असर सरकारी मशीनरी पर नहीं पड़ा और जमीनें खुर्दबुर्द होती रही. यह सब तब हो रहा था जब 1996 में ही तत्कालीन एडीएम जितेंद्र कुमार की तरफ से चाय बागान की जमीन को चिन्हित करते हुए इनके खसरा नंबर तक रिकॉर्ड में ले लिए गए थे.

सीलिंग एक्ट और चाय बागान मामलाः सीलिंग एक्ट 1960 में आया था. इसके अनुसार एक व्यक्ति के पास साढ़े 12 एकड़ से ज्यादा जमीन नहीं रह सकती थी. जमीदारी प्रथा के उन्मूलन के बाद इस एक्ट को लागू किया गया. इसमें कई लोगों ने अपनी जमीनों को सीलिंग से बचाने के लिए चाय बागान में छूट का प्रावधान होने के चलते अपनी जमीनों पर चाय बागान लगाए. लेकिन नियम यह भी था कि चाय बागान को हटाकर कोई भी गतिविधि यदि इस जमीन पर होती है तो यह स्वयं ही सरकार में निहित हो जाएगी. देहरादून में इन जमीनों को चिन्हित कर लिया गया था, लेकिन राज्य स्थापना के बाद जमीनों की कीमतों के बढ़ने के चलते इस पर खेल शुरू हो गया.

HC में PIL देने से हुआ खुलासाः आज स्थिति ये है कि इनमें कई जमीनों पर कॉलोनियां बन चुकी हैं. लोगों का आरोप है कि जमीनों पर माफिया राज चल रहा है. देहरादून में जमीनों पर कब्जे का खुला खेल चलता रहा और अधिकारियों पर राजनीतिक दबाव या लापरवाही ने इस खेल को पूरा संरक्षण दिया. चौंकाने वाली बात तो यह है कि सत्ताधारी भाजपा पर आरोप है कि उसने अपने प्रदेश व्यापी मुख्यालय के लिए करीब 3 करोड़ की भूमि का जो सौदा किया है वह चाय बागान की ही है.

बहरहाल इस मामले का खुलासा तब हुआ जब अधिवक्ता विकेश नेगी ने हाईकोर्ट में इस मामले पर पीआईएल दायर कर दी. इसके बाद हाईकोर्ट ने इन जमीनों पर रजिस्ट्री को लेकर रोक लगा दी है. साथ ही रजिस्ट्रार से इस पर रिपोर्ट भी मांगी है. इतना ही नहीं, इसके लिए अपर जिलाधिकारी की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन भी कर दिया है. अधिवक्ता विकेश नेगी का दावा है कि उनकी तरफ से 350 बीघा जमीन के लिए पीआईएल की गई थी, लेकिन जब दस्तावेज खंगाले गए तो देहरादून की करीब 5500 बीघा जमीन इन्हीं हालातों में कब्जाने की कोशिश की जा रही है.
ये भी पढ़ेंः देहरादून चाय बागान की जमीन की खरीद-फरोख्त पर HC ने लगाई रोक, सरकार से मांगा विस्तृत जवाब

इन जगहों पर अवैध कब्जाः देहरादून में रायपुर, चक रायपुर, नत्थनपुर और लाडपुर क्षेत्र की करीब 350 बीघा जमीन के लिए हाईकोर्ट में पीआईएल की गई है. लेकिन सूचना के अधिकार के तहत मांगे गए रिकॉर्ड से पता चलता है कि देहरादून में ही विकास नगर, हरबंशवाला, बंजारावाला, कांवली, आरकेडिया और प्रेम नगर क्षेत्र को मिलाकर कुल 5500 बीघा जमीन ऐसी है जिसे सरकार में निहित होना चाहिए.

10 बीघा जमीन कराई अतिक्रमण मुक्तः हैरानी की बात यह है कि कई मामलों में तो कोर्ट में वाद चलाए जा रहे हैं. जबकि नियमत: सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ऐसी जमीन पर सरकार का एकाधिकार रहता है. इस मामले में हाईकोर्ट के आदेश के बाद बनाई गई कमेटी के अध्यक्ष अपर जिलाधिकारी शिव कुमार बर्नवाल कहते हैं कि कोर्ट के आदेश के अनुसार फिलहाल सभी जमीनों की जांच की जा रही है. इसमें से करीब 10 बीघा जमीन पर कार्रवाई करते हुए उसे खाली करवाया गया है.

कहीं अधिकारियों की मिलीभगत को नहींः खबर तो यहां तक है कि गलत तथ्यों के साथ कमिश्नर कोर्ट में भी ऐसी जमीनों के कई विवाद चल रहे हैं और कोर्ट से भी कुछ लोगों ने राहत लेकर इस जमीन पर अधिकार पाने की कोशिश की है. लेकिन अब हाईकोर्ट में मामला जाने के बाद हजारों लोगों के बेघर होने का खतरा खड़ा हो गया है. खास बात यह है कि जिस तरह आदेशों के बावजूद उन जमीनों को बेचा गया उसमें प्रशासन के अधिकारियों की मिलीभगत की संभावनाएं भी बेहद ज्यादा बढ़ जाती हैं. यह स्थिति तब है जब पहले ही कोर्ट के आदेश पर दोनों मंडलों में लैंड फ्रॉड कमेटी गठित की हुई है. इसके बावजूद जमीनों को लेकर इतना बड़ा फ्रॉड होता रहा लेकिन किसी ने भी इस पर निगाह नहीं दौड़ाई.
ये भी पढ़ेंः देहरादून में सरकारी जमीन पर कब्जा, राजस्व विभाग के दो अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज

कमिश्नर तक पहुंचे मामलेः देहरादून में नेताओं की भी वोट बैंक के लिए बस्तियां बसाने को लेकर भूमिका संदिग्ध रही है. लेकिन इसका खामियाजा उन बस्तियों में रहने वाले लोगों को उठाना पड़ सकता है जिन्होंने भूलवश या लापरवाही के चलते इन माफियाओं के झांसे में आकर यहां जमीनें खरीदी हैं. गढ़वाल कमिश्नर सुशील कुमार कहते हैं कि उनके पास भी जमीनों ने कब्जे और अभिलेखों से छेड़छाड़ के कई मामले आ रहे हैं. खास तौर पर सरकारी संपत्तियों में कब्जों के मामले भी लगातार शिकायत के रूप में मिल रहे हैं. इस पर कार्रवाई की जा रही है.

देहरादून में इतने सालों से सरकारी जमीनों पर खेल होता रहा है. लेकिन इसको रोकने के लिए कभी कोई प्रयास नहीं हुए. उधर दूसरा पहलू यह है कि सरकार राज्य में लैंड बैंक तैयार करने की बात कहकर सरकारी भूमि उपलब्ध नहीं होने का रोना रोती रहती है. जबकि इस तरह सरकारी भूमि को भूमि माफिया खुर्दबुर्द करते रहे हैं. ऐसे में सवाल ये उठता है कि हाईकोर्ट के आदेश के बाद इन जमीनों को तो खाली करवाया जाएगा, लेकिन उन अफसरों का क्या होगा जो इसके लिए जिम्मेदार हैं और जिनकी सरकारी भूमि में कब्जे ना हो, इसके लिए सीधी जिम्मेदारी है.

देहरादूनः उत्तराखंड में कई योजनाओं और केंद्रीय संस्थाओं को जमीन ना मिलने के कारण इन परियोजनाओं को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है. लेकिन, आपको ये जानकर हैरानी होगी कि देहरादून में ही करीब 5500 बीघा सरकारी जमीन अवैध रूप से कब्जा (encroachment on 5500 bigha government land) की जा रही है. हैरानी की बात ये है कि प्रशासन इन कब्जों पर आंखें मूंद कर बैठा रहा. ये कहानी साल 1960 में लाए गए सीलिंग एक्ट (ceiling act) से शुरू होती है. इस पर यूपी सरकार ने साल 1975 में एक विशेष आदेश जारी किया. हालांकि, ये आदेश सरकारी फाइलों में दबकर रह गया है.

देहरादून में आज जमीनों के दाम आसमान छू रहे हैं. शायद यही वजह है कि भू माफियाओं की नजर हरपल ऐसी बेशकीमती जमीनों पर रहती है, जहां कानूनी दांव पेंच के जरिए वो खुद के वारे-न्यारे कर सकें. आपको जानकर हैरानी होगी कि दून में आपराधिक मामलों में सबसे ज्यादा शिकायतें लैंड फ्रॉड को लेकर ही हैं. लेकिन आज हम बात उस खेल की करेंगे जिसकी शुरुआत 47 साल पहले ही कर दी गई थी. जी हां, 1960 में आए सीलिंग एक्ट पर 1975 में उत्तर प्रदेश सरकार ने एक ऐसा आदेश किया जो जमीनों के खेल को पूरी तरह से प्रतिबंधित करने वाला था.

सरकारी जमीन चढ़ गई अतिक्रमण की भेंट.

चाय बागान की भूमि, सरकार में निहितः दरअसल यूपी सरकार ने 10 अक्टूबर 1975 के बाद चाय बागान से जुड़ी भूमि का लैंड यूज बदलते ही इस भूमि के सरकार में निहित होने का आदेश जारी किया. खास बात यह है कि 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने भी यूपी के 10 अक्टूबर 1975 की समय सीमा से जुड़े फैसले को आदेश में कहा. इस तरह यह तय हो गया कि 1975 के बाद चाय बागान की कोई भी भूमि चाय बागान के अलावा किसी भी रूप में प्रयोग होने पर वह स्वतः ही सरकार में निहित हो जाएगी. मजे की बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बावजूद भी इन जमीनों को खुर्द बुर्द करने का खेल शुरू हो गया. इसमें तेजी तब आई जब उत्तराखंड के उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद देहरादून को अस्थाई राजधानी के रूप में घोषित कर दिया गया.
ये भी पढ़ेंः तो क्या अतिक्रमण की जद में आया BJP का प्रस्तावित मुख्यालय, हरीश रावत ने की CBI जांच की मांग

2005 में तत्कालीन डीएम ने किया था खुलासाः चौंकाने वाली बात यह है कि यह सब सरकार और शासन के साथ प्रशासन के अधिकारियों के सामने होता रहा. ऐसा नहीं कि इसकी जानकारी अधिकारियों को नहीं थी. जानकारी के मुताबिक, 2005 में देहरादून की जिलाधिकारी रहीं मनीषा पंवार ने इस पूरे खेल को तत्कालीन गढ़वाल कमिश्नर को अपनी रिपोर्ट के जरिए बताया. लेकिन इसका कोई असर सरकारी मशीनरी पर नहीं पड़ा और जमीनें खुर्दबुर्द होती रही. यह सब तब हो रहा था जब 1996 में ही तत्कालीन एडीएम जितेंद्र कुमार की तरफ से चाय बागान की जमीन को चिन्हित करते हुए इनके खसरा नंबर तक रिकॉर्ड में ले लिए गए थे.

सीलिंग एक्ट और चाय बागान मामलाः सीलिंग एक्ट 1960 में आया था. इसके अनुसार एक व्यक्ति के पास साढ़े 12 एकड़ से ज्यादा जमीन नहीं रह सकती थी. जमीदारी प्रथा के उन्मूलन के बाद इस एक्ट को लागू किया गया. इसमें कई लोगों ने अपनी जमीनों को सीलिंग से बचाने के लिए चाय बागान में छूट का प्रावधान होने के चलते अपनी जमीनों पर चाय बागान लगाए. लेकिन नियम यह भी था कि चाय बागान को हटाकर कोई भी गतिविधि यदि इस जमीन पर होती है तो यह स्वयं ही सरकार में निहित हो जाएगी. देहरादून में इन जमीनों को चिन्हित कर लिया गया था, लेकिन राज्य स्थापना के बाद जमीनों की कीमतों के बढ़ने के चलते इस पर खेल शुरू हो गया.

HC में PIL देने से हुआ खुलासाः आज स्थिति ये है कि इनमें कई जमीनों पर कॉलोनियां बन चुकी हैं. लोगों का आरोप है कि जमीनों पर माफिया राज चल रहा है. देहरादून में जमीनों पर कब्जे का खुला खेल चलता रहा और अधिकारियों पर राजनीतिक दबाव या लापरवाही ने इस खेल को पूरा संरक्षण दिया. चौंकाने वाली बात तो यह है कि सत्ताधारी भाजपा पर आरोप है कि उसने अपने प्रदेश व्यापी मुख्यालय के लिए करीब 3 करोड़ की भूमि का जो सौदा किया है वह चाय बागान की ही है.

बहरहाल इस मामले का खुलासा तब हुआ जब अधिवक्ता विकेश नेगी ने हाईकोर्ट में इस मामले पर पीआईएल दायर कर दी. इसके बाद हाईकोर्ट ने इन जमीनों पर रजिस्ट्री को लेकर रोक लगा दी है. साथ ही रजिस्ट्रार से इस पर रिपोर्ट भी मांगी है. इतना ही नहीं, इसके लिए अपर जिलाधिकारी की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन भी कर दिया है. अधिवक्ता विकेश नेगी का दावा है कि उनकी तरफ से 350 बीघा जमीन के लिए पीआईएल की गई थी, लेकिन जब दस्तावेज खंगाले गए तो देहरादून की करीब 5500 बीघा जमीन इन्हीं हालातों में कब्जाने की कोशिश की जा रही है.
ये भी पढ़ेंः देहरादून चाय बागान की जमीन की खरीद-फरोख्त पर HC ने लगाई रोक, सरकार से मांगा विस्तृत जवाब

इन जगहों पर अवैध कब्जाः देहरादून में रायपुर, चक रायपुर, नत्थनपुर और लाडपुर क्षेत्र की करीब 350 बीघा जमीन के लिए हाईकोर्ट में पीआईएल की गई है. लेकिन सूचना के अधिकार के तहत मांगे गए रिकॉर्ड से पता चलता है कि देहरादून में ही विकास नगर, हरबंशवाला, बंजारावाला, कांवली, आरकेडिया और प्रेम नगर क्षेत्र को मिलाकर कुल 5500 बीघा जमीन ऐसी है जिसे सरकार में निहित होना चाहिए.

10 बीघा जमीन कराई अतिक्रमण मुक्तः हैरानी की बात यह है कि कई मामलों में तो कोर्ट में वाद चलाए जा रहे हैं. जबकि नियमत: सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ऐसी जमीन पर सरकार का एकाधिकार रहता है. इस मामले में हाईकोर्ट के आदेश के बाद बनाई गई कमेटी के अध्यक्ष अपर जिलाधिकारी शिव कुमार बर्नवाल कहते हैं कि कोर्ट के आदेश के अनुसार फिलहाल सभी जमीनों की जांच की जा रही है. इसमें से करीब 10 बीघा जमीन पर कार्रवाई करते हुए उसे खाली करवाया गया है.

कहीं अधिकारियों की मिलीभगत को नहींः खबर तो यहां तक है कि गलत तथ्यों के साथ कमिश्नर कोर्ट में भी ऐसी जमीनों के कई विवाद चल रहे हैं और कोर्ट से भी कुछ लोगों ने राहत लेकर इस जमीन पर अधिकार पाने की कोशिश की है. लेकिन अब हाईकोर्ट में मामला जाने के बाद हजारों लोगों के बेघर होने का खतरा खड़ा हो गया है. खास बात यह है कि जिस तरह आदेशों के बावजूद उन जमीनों को बेचा गया उसमें प्रशासन के अधिकारियों की मिलीभगत की संभावनाएं भी बेहद ज्यादा बढ़ जाती हैं. यह स्थिति तब है जब पहले ही कोर्ट के आदेश पर दोनों मंडलों में लैंड फ्रॉड कमेटी गठित की हुई है. इसके बावजूद जमीनों को लेकर इतना बड़ा फ्रॉड होता रहा लेकिन किसी ने भी इस पर निगाह नहीं दौड़ाई.
ये भी पढ़ेंः देहरादून में सरकारी जमीन पर कब्जा, राजस्व विभाग के दो अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज

कमिश्नर तक पहुंचे मामलेः देहरादून में नेताओं की भी वोट बैंक के लिए बस्तियां बसाने को लेकर भूमिका संदिग्ध रही है. लेकिन इसका खामियाजा उन बस्तियों में रहने वाले लोगों को उठाना पड़ सकता है जिन्होंने भूलवश या लापरवाही के चलते इन माफियाओं के झांसे में आकर यहां जमीनें खरीदी हैं. गढ़वाल कमिश्नर सुशील कुमार कहते हैं कि उनके पास भी जमीनों ने कब्जे और अभिलेखों से छेड़छाड़ के कई मामले आ रहे हैं. खास तौर पर सरकारी संपत्तियों में कब्जों के मामले भी लगातार शिकायत के रूप में मिल रहे हैं. इस पर कार्रवाई की जा रही है.

देहरादून में इतने सालों से सरकारी जमीनों पर खेल होता रहा है. लेकिन इसको रोकने के लिए कभी कोई प्रयास नहीं हुए. उधर दूसरा पहलू यह है कि सरकार राज्य में लैंड बैंक तैयार करने की बात कहकर सरकारी भूमि उपलब्ध नहीं होने का रोना रोती रहती है. जबकि इस तरह सरकारी भूमि को भूमि माफिया खुर्दबुर्द करते रहे हैं. ऐसे में सवाल ये उठता है कि हाईकोर्ट के आदेश के बाद इन जमीनों को तो खाली करवाया जाएगा, लेकिन उन अफसरों का क्या होगा जो इसके लिए जिम्मेदार हैं और जिनकी सरकारी भूमि में कब्जे ना हो, इसके लिए सीधी जिम्मेदारी है.

Last Updated : Aug 28, 2022, 5:27 PM IST
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