देहरादून: देवभूमि उत्तराखंड में दिख रहे जनसांख्यिकीय बदलाव (Demographic Change) और इसके चलते हो रहा पलायन कुछ वर्षों से बुद्धिजीवियों के बीच विमर्श का विषय बना हुआ है. इसके साथ ही सरकार इस मामले में जल्द ही कुछ बड़ा निर्णय ले सकती है. यह किसी से छिपा नहीं है कि उत्तराखंड का पहाड़ी क्षेत्र पलायन की मार से जूझ रहा है. इस परिदृश्य के बीच बड़े पैमाने पर बाहर से आए व्यक्तियों, विशेषकर एक समुदाय विशेष के व्यक्तियों ने पिछले 10-11 वर्षों में यहां न सिर्फ ताबड़तोड़ जमीनें खरीदीं, बल्कि उनकी बसावट भी तेज हुई है.
इस सबको देखते हुए पिछले वर्ष से उत्तराखंड में लैंड जिहाद (Land Jihad in Uttarakhand) शब्द लगातार चर्चा में है. इंटरनेट मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर तो इसे लेकर बहस का क्रम जारी है तो अब आमजन के बीच भी यह चिंता का विषय बनकर उभरा है. क्योंकि हाल ही में विश्व प्रसिद्ध जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क के प्रतिबंधित क्षेत्र में कथिर मजारें बनाए जाने की खबरें सामने आई हैं. ये वो क्षेत्र हैं जहां बिना अनुमति लोगों के जाने पर भी मनाही है. ऐसे में इन क्षेत्रों में कथित मजारें बनाने से जनसांख्यिकीय बदलाव (Demographic Change) की खबरों कुछ हद तक पुख्ता भी हो रही हैं.
वहीं दूसरी ओर बीते एक साल में लगातार सरकार के कई विधायक भी इस बात पर चिंता जाहिर करते रहे हैं कि राज्य में अचानक से कुछ अनजान लोगों की संख्या बढ़ी है. पूर्व विधायक कुंवर प्रणव सिंह चैंपियन ने तो उत्तराखंड में रोहिंग्या की घुसपैठ की बात भी सरकार तक पहुंचाई थी.
राज्य गठन के समय पड़ी जनसांख्यिकीय बदलाव की नींव: जनसांख्यिकीय बदलाव कोई अचानक होने वाली प्रक्रिया नहीं है. उत्तराखंड में इस परिवर्तन की नींव अविभाजित उत्तर प्रदेश के दौरान पड़ गई थी. उत्तराखंड राज्य गठन के बाद इस दिशा में तेजी आई है. लेकिन सरकारें जाने-अनजाने इसकी अनदेखी करती रहीं. प्रदेश में यह परिवर्तन दो तरह का है. देहरादून, हरिद्वार एवं उधमसिंह नगर जैसे जिलों में बाहरी प्रदेशों से लोग विभिन्न कारणों से आ बसे हैं. यह प्रक्रिया सामान्य है, लेकिन एक समुदाय विशेष के लोग इन जिलों के क्षेत्र विशेष में जमीन खरीद कर या अतिक्रमण कर भी बड़ी संख्या में बसे हैं. इस कारण वहां पहले से बसे लोगों ने अपनी भूमि औने-पौने दामों पर बेच कर अन्यत्र बसना उचित समझा. अब इन जिलों के कुछ क्षेत्रों में मिश्रित जनसंख्या के बजाय समुदाय विशेष की किलेबंदी जैसी दिखने लगी है.
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बड़े खतरे की आहट: सीमांत राज्य उत्तराखंड में नियोजित या अनियोजित ढंग से हो रहा जनसांख्यिकीय बदलाव (Demographic Chang) बड़े खतरे की आहट है. देश एवं राज्य हित चाहने वाला कोई भी व्यक्ति इसे नकार नहीं सकता. उत्तराखंड गठन के बाद से कांग्रेस व भाजपा की सरकारें आईं और गईं, लेकिन इस आहट को सुनने में नाकाम रहीं या सियासी लाभ के लिए जानबूझ कर नकारती रही हैं. अब जब स्थिति विकट होने के कगार पर है, तब भी सरकार जिला प्रशासन एवं पुलिस को सतर्क रहने तक की ही हिदायत दे पाई है.
RSS ने जताई थी चिंता: वहीं, बीते दिनों RSS सहित 30 से अधिक संगठनों ने राज्य सरकार को एक पत्र सौंपा था. जिसमें जनसंख्या नियंत्रण कानून लाने की मांग की थी. 2021 के विधानसभा सत्र के दौरान भी प्रदेश में जनसांख्यिकीय बदलाव का मुद्दा सदन में उठा था. इसके बाद बीजेपी और आरएसएस के तमाम बड़े नेताओं ने इस मामले को लेकर एक बैठक की थी. आरएसएस से जुड़े संगठनों का कहना है कि देहरादून, हरिद्वार, उधम सिंह नगर और नैनीताल जैसे जनपदों में बीते कुछ सालों में तेजी से मुस्लिम जनसंख्या में वृद्धि हुई है.
गांवों में बस रहे अनजान लोग: इतना ही नहीं पहाड़ के उन खाली गांव में भी कुछ अनजान लोग अपना डेरा डाले हुए हैं, जो कभी आसपास भी देखे नहीं गए थे. इस बैठक के बाद मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इस बात के लिए हामी भरी थी कि राज्य में जल्द ही वह इस पर कोई ठोस निर्णय ले सकते हैं. हालांकि 2011 के बाद 2021 में राज्य में जनगणना होनी थी. जो कोरोना और अन्य दूसरों कारणों के चलते नहीं हो पायी है.
उत्तराखंड में तेजी से बढ़ रही आबादी: एक आंकड़े के मुताबिक असम के बाद उत्तराखंड में सबसे तेजी से मुस्लिम आबादी में इजाफा हुआ है. सबसे अधिक इजाफा अगर किसी जिले में हुआ है तो वह हरिद्वार है. एक अनुमान के मुताबिक हरिद्वार जिले में मुस्लिमों की संख्या लगभग 20 लाख के करीब पहुंच गई है. बताया जा रहा है कि बीते 10 सालों में 40% मुस्लिमों की संख्या बढ़ी है. एक आंकड़े के मुताबिक उत्तराखंड राज्य में कुल आबादी के हिसाब से अगर देखा जाए तो 13.9% मुस्लिमों की आबादी है. जबकि साल 2001 में यह आबादी कुल जनसंख्या के 11.9% थी.
जानकारों का मानना है कि 2011 के बाद राज्य में गणना नहीं हुई है. लिहाजा मतदाताओं और जिलों पर एक नजर डालें तो अब यह प्रतिशत बढ़कर लगभग 18 से 20% हो गया है. उत्तराखंड जब उत्तर प्रदेश से अलग हुआ था और साल 2012 में जब गणना हुई तो राज्य की जनसंख्या 1 करोड़ 2 लाख के करीब थी. लेकिन 2021 में अनुमानित राज्य की जनसंख्या 1 करोड़ 17 लाख के करीब पहुंच गई है.
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उत्तराखंड में जनसांख्यिकीय बदलाव रोकना बेहद जरूरी: देवभूमि उत्तराखंड में समुदाय विशेष की नियोजित बसावट को रोका जाना क्यों जरूरी है, इसके तीन ठोस आधार हैं. सबसे पहले देवभूमि के मूल स्वरूप को बचाना आवश्यक है. देवभूमि के मूल चरित्र के कारण जो कभी यहां आए भी नहीं, वे भी इस स्वरूप को संरक्षित रखना चाहते हैं. वहीं, जो भौतिकवादी सोच के लोग हैं, वे भी राज्य की आर्थिकी के लिए इस स्वरूप को कायम रखना चाहते हैं. क्योंकि सब जानते हैं कि उत्तराखंड के पर्यटन उद्योग की रीढ़ तीर्थाटन ही है.
हरिद्वार जिले में 37.39 फीसदी समुदाय विशेष की आबादी: धर्मनगरी हरिद्वार जिले में जनसांख्यिकीय संतुलन तेजी से बदल रहा है. हरिद्वार शहर विधानसभा क्षेत्र को छोड़कर बाकी सभी विधानसभा सीटों में समुदाय विशेष की आबादी की दर बढ़ रही है. जिले की कुल आबादी में करीब 37.39 फीसदी समुदाय विशेष की हो गई है. आबादी के साथ धार्मिक शिक्षा संस्थान और इबादत स्थल बनने से हिंदू संगठनों की ओर से अक्सर विवाद भी होता है.
पिथौरागढ़ के लोगों की भी बढ़ी चिंता: जनसांख्यिकीय बदलाव ने सीमांत जिला पिथौरागढ़ के वाशिंदों की चिंता बढ़ा दी है. देश के कई राज्यों के साथ ही नेपाल से आकर छोटा-बड़ा कारोबार शुरू कर रहे वर्ग विशेष के अपरिचित चेहरों के कारण चीन और नेपाल से लगे इस सीमांत जिले की संवेदनशीलता बढ़ गई है. इस डेमोग्राफिक चेंज से चिंतित सीमांत के लोगों ने नोटिफाइड एरिया फिर से जौलजीबी करने की मांग मुखर कर दी है.
असुविधाओं के पहाड़ से जिस तेजी से यहां के लोग शहरी क्षेत्रों के लिए पलायन कर रहे हैं, उसी अनुपात में बाहर के लोग सीमांत के हर कस्बे तक पहुंचने लगे हैं. इनमें मजदूर से लेकर व्यापारी तक शामिल हैं. खुफिया एजेंसियां भी मानती हैं कि पिछले कुछ सालों में कारीगर, नाई, सब्जी, फेरी व्यवसाय सहित अन्य छोटे-मोटे व्यापार में बाहर से आए लोगों की भीड़ बढ़ी है.
कबाड़ बीनने वालों की संख्या भी नगर और कस्बों में तेजी से बढ़ी है. बाहरी लोगों का पुलिस सत्यापन कर रही है. मकान मालिकों और व्यापारियों को भी नौकरों का सत्यापन करने के निर्देश दिए गए हैं. इसके बावजूद अधिकांश लोग बिना सत्यापन के घूमते नजर आते हैं. चीन और नेपाल सीमा से सटे धारचूला तहसील में वर्ष 1998 तक बाहरी लोगों के लिए प्रवेश आसान नहीं था. नोटिफाइड एरिया और इनर लाइन उस समय जौलजीबी में थी. ऐसे में यहां जाने के लिए पास जरूरी होता था.
अल्मोड़ा में बाहरी लोगों की संख्या में वृद्धि: पर्वतीय क्षेत्र में भी जनसांख्यिकी में धीरे-धीरे बदलाव होना शुरू हो गया है. अल्मोड़ा में बाहरी हिस्सों से लोग पहुंच रहे हैं. भवन और जमीन खरीदकर यहीं रहने लगे हैं. ऐसे लोगों पर खुफिया एजेंसियां भी नजर बनाए हुए हैं. अल्मोड़ा नगर क्षेत्र का ही उदाहरण लें तो पिछले पांच सालों में बाहर से आए लोगों की बसासत में करीब 20 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है. अल्मोड़ा नगर में पूर्व तक पालिका क्षेत्र में ऐसे लोगों की संख्या छह से सात हजार के करीब थी. एलआईयू से जुड़े अधिकारियों के मुताबिक पिछले पांच सालों में विशेष वर्ग के लोगों की संख्या करीब एक हजार से डेढ़ हजार तक बढ़ी हैं. ये लोग यहां रोजगार की तलाश में आते हैं और कुछ समय बाद यहीं भूमि और मकान खरीदकर स्थायी रूप से बस रहे हैं.
नैनीताल में बढ़ी समुदाय विशेष की बस्तियां: नैनीताल में पहाड़ के अलावा मैदानी इलाकों में समुदाय विशेष के लोगों ने जमीनें खरीदी हैं. उत्तर प्रदेश के बरेली, रामपुर, पीलीभीत और मुरादाबाद के लोगों ने यहां आकर घर बना लिए हैं. हल्द्वानी के गौलापार, लामाचौड़, रामनगर और कालाढूंगी क्षेत्र में विशेष समुदाय ने जमीनें खरीदीं हैं. वन क्षेत्र बागजाला में पहले जहां दो मकान थे. अब बड़ी बस्ती विशेष समुदाय की स्थापित हो गई है. रहमपुर, बरेली, मुरादाबाद, पीलीभीत से विशेष समुदाय के लोग आकर किराए के कमरे में रह रहे हैं और वहीं कुछ लोगों ने अपने मकान बना लिये हैं.
लोगों की स्क्रीनिंग जरूरी: उत्तराखंड सरकार ने मैदानी व पहाड़ी जिलों में हो रहे जनसांख्यिकीय परिवर्तन को लेकर जिला प्रशासन को सतर्क रहने के निर्देश दिए हैं. जिला व पुलिस प्रशासन को जिला स्तरीय समितियों के गठन, अन्य राज्यों से आकर बसे व्यक्तियों के सत्यापन और धोखा देकर रह रहे विदेशियों के खिलाफ कार्रवाई के निर्देश दिए गए हैं.
सरकार के इस कदम का एक और ठोस आधार देश की सीमाओं की सुरक्षा भी है. नेपाल एवं चीन की सीमा से लगने वाले इस राज्य की सीमाओं में मूल निवासियों के पलायन को रोकना जितना जरूरी है, उतना ही तर्कसंगत बाहर से आकर बसने वालों की स्क्रीनिंग करना भी है. इस राज्य के सीमांत जिलों के हर गांव-परिवार के स्वजन सीमाओं पर सैनिक के रूप में तैनात हैं. जो गांवों में हैं वे बिना वर्दी के समर्पित सैनिक हैं. इनकी भूमिका को सेना द्वारा सराहा जाता रहा है. इन क्षेत्रों में सुनियोजित बाहरी बसावट की ओर यूं ही आंख मूंद कर नहीं बैठा जा सकता है.