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देहरादून: 18 साल बाद भी 50 प्रतिशत वन पंचायतों का नहीं हुआ गठन - Forest Panchayats

उत्तराखंड राज्य की स्थापना के 18 साल बाद भी 12168 पंचायतों में से महज 4800 पंचायतें ही अस्तित्व में आई हैं. साल 2005 में वन पंचायतों के लिए एक नियमावली तैयार की गई जिसमें  कुल 12168 वन पंचायतें चिह्रित की गई थी. लेकिन करीब 14 सालों बीत जाने के बाद भी इन पंचायतों को स्थापित ही नहीं किया जा सका.

उत्तराखंड में 50 प्रतिशत वन पंचायतों को नहीं मिला अस्तित्व.
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Published : Oct 13, 2019, 3:38 PM IST

देहरादून: साल 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग होकर बने उत्तराखंड राज्य की स्थापना के 18 साल बीत गए हैं. बावजूद इसके वन पंचायतों को अस्तित्व में नहीं लाया गया है. हालांकि, साल 2005 में वन पंचायतों के लिए एक नियमावली तैयार की गई जिसमें कुल 12168 वन पंचायतें चिह्रित की गई थी. लेकिन करीब 14 सालों बीत जाने के बाद भी इन पंचायतों को स्थापित ही नहीं किया जा सका.

उत्तराखंड में 50 प्रतिशत वन पंचायतों को नहीं मिला अस्तित्व.

बता दें कि वन पंचायतों के लिहाज से राज्य में 5.45 लाख हेक्टेयर क्षेत्र चिह्रित है. जबकि, 12168 पंचायतों में से महज 4800 पंचायतों को ही चुनाव के माध्यम से अस्तित्व में लाया जा सका है. इनमें भी करीब 3785 वन पंचायतें ही सक्रिय हैं. यानी 50% पंचायतें अभी तक अस्तित्व में नहीं आ पाई हैं.

जानिए क्यों है वन पंचायतें राज्य के लिए जरूरी

वन पंचायतों का अस्तित्व में आना वनों के संरक्षण और संवर्धन के लिए बेहद ज्यादा जरूरी है. वन पंचायतों के जरिए ही वनों के संरक्षण में लोगों की भूमिका को तय किया जाता है. वन पंचायतें स्थानीय लोगों की आजीविका के लिए भी मददगार है. वन पंचायतों के जरिए पलायन को रोकने की भी योजना है. साथ ही जल संरक्षण और जल संवर्धन के कार्य भी वन पंचायतों के अंतर्गत आते हैं. वहीं, मानव और वन्यजीव संघर्ष के मामलों को भी कम करने में वन पंचायतें मददगार साबित होती हैं.

ये भी पढ़े: ऋषिकेश: बुजुर्ग पर भालू ने किया हमला, गंभीर रूप से घायल

साथ ही वनों में सूखी लकड़ियों और जड़ी बूटियों को बेचने समेत दूसरे कई अधिकार भी वन पंचायतों के ही पास है. जिसके चलते किसी भी राज्य के लिए वन पंचायतें बेहद जरूरी है.
वन मंत्री हरक सिंह रावत ने बताया कि वन पंचायतों को अभी तक हाशिए पर ही रखा गया है. साथ ही वन मंत्री ने जल्द इस मामले पर समीक्षा कर कार्रवाई करने की बात कही हैं.

देहरादून: साल 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग होकर बने उत्तराखंड राज्य की स्थापना के 18 साल बीत गए हैं. बावजूद इसके वन पंचायतों को अस्तित्व में नहीं लाया गया है. हालांकि, साल 2005 में वन पंचायतों के लिए एक नियमावली तैयार की गई जिसमें कुल 12168 वन पंचायतें चिह्रित की गई थी. लेकिन करीब 14 सालों बीत जाने के बाद भी इन पंचायतों को स्थापित ही नहीं किया जा सका.

उत्तराखंड में 50 प्रतिशत वन पंचायतों को नहीं मिला अस्तित्व.

बता दें कि वन पंचायतों के लिहाज से राज्य में 5.45 लाख हेक्टेयर क्षेत्र चिह्रित है. जबकि, 12168 पंचायतों में से महज 4800 पंचायतों को ही चुनाव के माध्यम से अस्तित्व में लाया जा सका है. इनमें भी करीब 3785 वन पंचायतें ही सक्रिय हैं. यानी 50% पंचायतें अभी तक अस्तित्व में नहीं आ पाई हैं.

जानिए क्यों है वन पंचायतें राज्य के लिए जरूरी

वन पंचायतों का अस्तित्व में आना वनों के संरक्षण और संवर्धन के लिए बेहद ज्यादा जरूरी है. वन पंचायतों के जरिए ही वनों के संरक्षण में लोगों की भूमिका को तय किया जाता है. वन पंचायतें स्थानीय लोगों की आजीविका के लिए भी मददगार है. वन पंचायतों के जरिए पलायन को रोकने की भी योजना है. साथ ही जल संरक्षण और जल संवर्धन के कार्य भी वन पंचायतों के अंतर्गत आते हैं. वहीं, मानव और वन्यजीव संघर्ष के मामलों को भी कम करने में वन पंचायतें मददगार साबित होती हैं.

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साथ ही वनों में सूखी लकड़ियों और जड़ी बूटियों को बेचने समेत दूसरे कई अधिकार भी वन पंचायतों के ही पास है. जिसके चलते किसी भी राज्य के लिए वन पंचायतें बेहद जरूरी है.
वन मंत्री हरक सिंह रावत ने बताया कि वन पंचायतों को अभी तक हाशिए पर ही रखा गया है. साथ ही वन मंत्री ने जल्द इस मामले पर समीक्षा कर कार्रवाई करने की बात कही हैं.

Intro:Summary- उत्तराखंड में वन पंचायतों पर ईटीवी भारत की ये स्पेशल रिपोर्ट न केवल सरकार बल्कि वन महकमे में बैठे अधिकारियों की भी पोल खोल देगी.. दरअसल मामला उन वन पंचायतों का है, जिनके सशक्तिकरण को लेकर दशकों से चिंतन तो किया जा रहा है..लेकिन कागजी नियमावली तैयार करने के अलावा इसमें आज तक कुछ नहीं किया जा सका.. वन पंचायतों के खस्ताहाल हालातों को लेकर देखिये ईटीवी भारत की यह पहली रिपोर्ट....





Body:साल 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग होकर बने उत्तराखंड को वन पंचायतों की दिशा में यूं तो बहुत ज्यादा काम करने की जरूरत थी, लेकिन राज्य स्थापना के 18 साल बाद भी इन पंचायतों को अस्तित्व में नही लाया जा सका..हालात ये है कि साल 2005 में वन पंचायतों के लिए एक नियमावली तैयार की गई और कुल 12168 वन पंचायतें चिन्हित की गई...लेकिन करीब 14 सालों में इन पंचायतों को स्थापित ही नही किया गया...आपको बता दें कि वन पंचायतों के लिहाज से राज्य में 5.45 लाख हेक्टेयर क्षेत्र चिन्हित है.. जबकि 12168 पंचायतों में से महज 4800 पंचायतों में ही चुनाव करवाकर उन्हें अस्तित्व में लाया जा सका है.. इसमें भी करीब 3785 वन पंचायतें ही सक्रिय हैं... यानी 50% पंचायतें भी अब तक अस्तित्व में नहीं आ पाई हैं... यह हाल तब है जब आजादी से पहले से ही वन पंचायतों के महत्व और जरूरतों को लेकर इन पर काम करने की बात कही जाती रही है।। 


बाइट- वीरेंद्र बिष्ट, अध्यक्ष, उत्तराखंड वन पंचायत सलाहकार परिषद


जानिए क्यों है वन पंचायतें राज्य के लिए जरूरी 


वन पंचायतों का अस्तित्व में आना वनों के संरक्षण और संवर्धन के लिए बेहद ज्यादा जरूरी है


 वन पंचायतों के जरिए वनों के संरक्षण में लोगों की भूमिका को तय किया जाता है


वन पंचायतें स्थानीय लोगों की आजीविका के लिए बन सकती है मददगार


वन पंचायतों के जरिए पलायन को रोकने की भी है योजना


जल संरक्षण और जल संवर्धन भी है वन पंचायतों का काम


मानव और वन्यजीव संघर्ष के मामलों को भी कम करने में वन पंचायतें हो सकती है मददगार


वनों में लगने वाली आग को भी वन पंचायतें करेंगी रोकने का काम


चेक डैम, वनीकरण जैसे काम भी वन पंचायतों के जरिए संभव


वनों पर अधिकार के जरिए वन पंचायतें राजस्व प्राप्त कर होंगी सशक्त


वनों में सूखी लकड़ी, जड़ी बूटियों को बेचने समेत दूसरे कई अधिकार भी वन पंचायतों के पास



हैरानी की बात यह है कि खुद महकमे के मुखिया वन मंत्री हरक सिंह रावत भी मानते हैं कि वन पंचायतों को अब तक हाशिए पर ही रखा गया है.. ईटीवी भारत के मामले पर सवाल पूछे जाने के बाद वन मंत्री जल्द इस पर समीक्षा कर कार्रवाई करने की बात कह रहे हैं.. वन मंत्री हरक सिंह रावत की मानें तो वन पंचायतों पर खानापूर्ति जैसी स्थिति बनी हुई है... जबकि वन महकमा अब इसको गंभीरता से लेते हुए पंचायतों को सक्रिय करने की दिशा में काम करेगा।।।


बाइट---हरक सिंह रावत, वन मंत्री, उत्तराखंड




Conclusion:वन पंचायतों पर ईटीवी भारत की रिपोर्ट शायद वन महकमे की आंख हो सकेगी... वन पंचायतों के खस्ताहालत को लेकर ईटीवी भारत की इस रिपोर्ट के बाद हम जल्द ये भी बताएंगे कि क्यों यह महकमा अधिकारियों की बेरुखी का शिकार बना हुआ है।

पीटीसी नवीन उनियाल देहरादून
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