देहरादून: साल 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग होकर बने उत्तराखंड राज्य की स्थापना के 18 साल बीत गए हैं. बावजूद इसके वन पंचायतों को अस्तित्व में नहीं लाया गया है. हालांकि, साल 2005 में वन पंचायतों के लिए एक नियमावली तैयार की गई जिसमें कुल 12168 वन पंचायतें चिह्रित की गई थी. लेकिन करीब 14 सालों बीत जाने के बाद भी इन पंचायतों को स्थापित ही नहीं किया जा सका.
बता दें कि वन पंचायतों के लिहाज से राज्य में 5.45 लाख हेक्टेयर क्षेत्र चिह्रित है. जबकि, 12168 पंचायतों में से महज 4800 पंचायतों को ही चुनाव के माध्यम से अस्तित्व में लाया जा सका है. इनमें भी करीब 3785 वन पंचायतें ही सक्रिय हैं. यानी 50% पंचायतें अभी तक अस्तित्व में नहीं आ पाई हैं.
जानिए क्यों है वन पंचायतें राज्य के लिए जरूरी
वन पंचायतों का अस्तित्व में आना वनों के संरक्षण और संवर्धन के लिए बेहद ज्यादा जरूरी है. वन पंचायतों के जरिए ही वनों के संरक्षण में लोगों की भूमिका को तय किया जाता है. वन पंचायतें स्थानीय लोगों की आजीविका के लिए भी मददगार है. वन पंचायतों के जरिए पलायन को रोकने की भी योजना है. साथ ही जल संरक्षण और जल संवर्धन के कार्य भी वन पंचायतों के अंतर्गत आते हैं. वहीं, मानव और वन्यजीव संघर्ष के मामलों को भी कम करने में वन पंचायतें मददगार साबित होती हैं.
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साथ ही वनों में सूखी लकड़ियों और जड़ी बूटियों को बेचने समेत दूसरे कई अधिकार भी वन पंचायतों के ही पास है. जिसके चलते किसी भी राज्य के लिए वन पंचायतें बेहद जरूरी है.
वन मंत्री हरक सिंह रावत ने बताया कि वन पंचायतों को अभी तक हाशिए पर ही रखा गया है. साथ ही वन मंत्री ने जल्द इस मामले पर समीक्षा कर कार्रवाई करने की बात कही हैं.