मसूरीः ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ II (Queen Elizabeth II) का बीती 8 सितंबर 2022 को 96 साल की उम्र में निधन हो गया. अब एलिजाबेथ का कीमती कोहिनूर हीरे से जड़ा मुकुट यानी क्राउन अगली पीढ़ी के पास चला जाएगा. इसी बीच कोहिनूर हीरे की भी काफी चर्चा हो रही है. साथ ही कोहिनूर को भारत लाने की मांग भी उठने लगी है. बता दें कि, इस कीमती हीरे का मसूरी से भी नाता रहा है, जिससे आज आपको रूबरू करवाते हैं.
मसूरी के मशहूर इतिहासकार गोपाल भारद्वाज (Mussoorie Historian Gopal Bhardwaj) बताते हैं कि, कोहिनूर हीरे के मालिक महाराजा दलीप सिंह का मसूरी से रिश्ता रहा है. अंग्रेजों ने दलीप सिंह के पिता महाराजा रणजीत सिंह की संपत्ति और धन दौलत पर कब्जा कर लिया था और अंग्रेज चाहते थे कि दलीप सिंह को लाहौर से दूर रखा जाए. इसलिए अंग्रेजों ने महाराजा दलीप सिंह, उनकी मां और उनके चचेरे भाई नौनिहाल सिंह को साल 1852 से 1853 तक मसूरी में रखा था.
बता दें कि, मसूरी पहाड़ों पर अंग्रेजों की ओर से बसाई गई थी. अंग्रेजों ने मसूरी के मेडॉक स्कूल (वर्तमान में होटल सवाय) में दलीप सिंह को शिक्षा दी. यहां दलीप सिंह को ईसाई समुदाय के बारे में पढ़ाया गया. अंग्रेज दलीप सिंह को ईसाई बनाना चाहते थे, जिसमें वो सफल भी हुए. मसूरी के बार्लोगंज स्थित मैनर हाउस पर उनका आवास था, जहां पर वर्तमान में पांच सितारा होटल जेपी रेजिडेंसी है.
गोपाल भारद्वाज बताते हैं कि, दलीप सिंह खेलकूद के शौकीन थे और उन्हें क्रिकेट खेलना पसंद था. ये देखते हुए उनकी देखरेख कर रहे डॉक्टर लॉगिन ने सेंट जॉर्ज कॉलेज मसूरी का मैदान स्थापित किया. जहां पर दलीप सिंह और अधिकारियों के बच्चे एक साथ खेला करते थे. उन्होंने बताया कि दो साल के अंतराल में दलीप सिंह ने मसूरी में पढ़ाई के साथ खेल-कूद में भी भाग लिया. दलीप सिंह मसूरी के मॉल रोड पर घुड़सवारी भी करते थे. उनको बांसुरी बजाने का भी बहुत शौक था. वो अपनी म्यूजिकल टीम के साथ मॉल रोड पर बैंड का प्रदर्शन करते थे. इसकी जानकारी डॉक्टर लॉगिन की पत्नी लीला लॉगिन की ओर से लिखी किताब में दी गई है.
गोपाल भारद्वाज ने बताया कि, कोहिनूर को दुनिया के सबसे कीमती हीरे के रूप में जाना जाता है. मूल रूप में ये 793 कैरेट का था. अब यह 105.6 कैरेट का रह गया है, जिसका वजन 21.6 ग्राम है. यह हीरा भारतीय राज्य आंध्र प्रदेश के गुंटूर में काकतीय राजवंश के शासनकाल में 14वीं सदी में मिला था. तब ये पूरा इलाका गोलकोंडा खनन क्षेत्र में मिला था और मालवा के राजा महलाक देव की संपत्ति में शामिल था.
आंध्र के वारंगल में एक हिंदू मंदिर में इस हीरे को देवता की एक आंख के रूप में इस्तेमाल किया गया था, जिसे बाद में मलिक काफूर (अलाउद्दीन खिलजी का जनरल) ने लूट लिया था. इसके बाद से ये हीरा मुगलों के पास ही रहा. मुगल साम्राज्य के कई शासकों को सौंपे जाने के बाद सिख महाराजा रणजीत सिंह ने लाहौर से कोहिनूर हीरे को हासिल किया था, जिसे लेकर वो पंजाब आए.
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रणजीत सिंह कोहिनूर हीरे को अपने ताज में पहनते थे. साल 1839 में उनकी मौत के बाद हीरा उनके बेटे दलीप सिंह तक पहुंचा. साल 1849 में अंग्रेजों ने महाराजा दलीप सिंह को हराया. तब दलीप सिंह ने तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी के साथ लाहौर की संधि पर हस्ताक्षर किए. इस संधि के बाद कोहिनूर को इंग्लैंड की महारानी को सौंपना पड़ा.
कोहिनूर को लॉर्ड डलहौजी 1850 में लाहौर से मुंबई लेकर आए और वहां से अप्रैल 1850 में मुंबई से इसे लंदन के लिए भेजा गया. जुलाई 1850 को इसे बकिंघम पैलेस में महारानी विक्टोरिया के सामने पेश किया गया. 38 दिनों में हीरों को शेप देने वाली सबसे मशहूर डच फर्म कोस्टर ने इसे नया अंदाज दिया. इसका वजन तब 108.93 कैरेट रह गया. यह रानी के ताज का हिस्सा बना. भारत ने साल 1953 में कोहिनूर की वापसी की मांग की थी, जिसे इंग्लैंड ने अस्वीकार कर दिया था.
गोपाल भारद्वाज बताते हैं कि कोहिनूर हीरा वर्तमान में ब्रिटेन की महारानी के मुकुट में स्थापित है, जो टावर ऑफ लंदन के ज्वेल हाउस में संग्रहित है. जनता इसे देख भी सकती है. उन्होंने कहा कि कोहिनूर हीरे पर ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत अपना अधिकार जताते हैं, लेकिन इतिहास के अनुसार कोहिनूर हीरा भारत का है, जिसे भारत वापस लाया जाना (Kohinoor return to India) चाहिए.
बता दें कि, कोहिनूर हीरा वर्तमान में प्लेटिनम के मुकुट में है, जिसे महारानी एलिजाबेथ द्वितीय ने इंग्लैंड की क्वीन के रूप में अपने शासनकाल के दौरान पहना था. इस साल फरवरी में महारानी ने घोषणा की थी कि जब चार्ल्स इंग्लैंड में राजशाही की बागडोर संभालेंगे तो कैमिला पार्कर बाउल्स क्वीन कंसोर्ट बनेंगी. अब महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के निधन के बाद इस बात की पूरी संभावना है कि कैमिला कोहिनूर पहनेंगी.
कौन थे महाराजा दलीप सिंह? महाराजा दलीप सिंह का जन्म लाहौर में 6 सितंबर 1838 को हुआ था. उनकी मृत्यु 22 अक्टूबर 1893 को पेरिस में हुई. दलीप सिंह महाराजा रणजीत सिंह के सबसे छोटे बेटे और सिख साम्राज्य के अंतिम शासक थे. उन्हें साल 1843 ई. में पांच साल की आयु में ही अपनी मां रानी जींद कौर के संरक्षण में राज सिंहासन पर बैठाया गया था. उस समय राज्य का काम उसकी मां रानी जींद कौर देखती थीं. उस दौरान अराजकता फैली होने के कारण खालसा सेना सर्वशक्तिमान हो गई.
सेना की शक्ति से भयभीत होकर दरबार के कुछ स्वार्थी सिखों ने खालसा फौज को 1845 के प्रथम सिख-अंग्रेज युद्ध में भिड़ा दिया, जिसमें सिखों की हार हुई और उसे सतलुज नदी के बायीं ओर का पूरा क्षेत्र एवं जालंधर दोआब अंग्रेजों को समर्पित कर डेढ़ करोड़ रुपया हर्जाना देकर 1846 में लाहौर की संधि करने के लिए बाध्य होना पड़ा. रानी जींद कौर से नाबालिग राजा की संरक्षकता छीन ली गई और उसके सारे अधिकार सिखों की परिषद में निहित कर दिए गए.
दलीप सिंह की सरकार को 1848 ई. में ब्रिटिश भारतीय सरकार के खिलाफ दूसरे युद्ध में फंसा दिया. इस बार भी अंग्रेजों के हाथों सिखों की पराजय हुई और ब्रिटिश विजेताओं ने दलीप सिंह को अपदस्थ करके पंजाब को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया. कोहिनूर हीरा छीनकर महारानी विक्टोरिया को भेज दिया गया. दलीप सिंह को पांच लाख रुपया सालाना पेंशन देकर इंग्लैंड भेज दिया गया, जहां दलीप सिंह ने ईसाई धर्म को ग्रहण कर लिया.
दलीप सिंह को अपदस्थ कर उनकी मां महारानी जींद कौर से अलग कर ब्रिटेन भेज दिया गया. जींद कौर को कैद कर लिया गया. ब्रिटेन में दलीप सिंह का 16 साल की उम्र में धर्मांतरण कर उन्हें ईसाई बना दिया गया और उन्हें महारानी विक्टोरिया के संरक्षण में रखा गया. 13 साल बाद जब दलीप सिंह अपनी मां जींद कौर से मिले तो उन्हें सिखों के इतिहास और उनकी पहचान के बारे में पता चला.
तब दलीप सिंह ने दोबारा धर्मांतरण कर सिख धर्म अपनाने और ब्रिटिश पेंशन त्यागने का फैसला किया. साल 1886 में वह अपने परिवार के साथ भारत आने वाले थे, लेकिन विद्रोह की आशंका के चलते अंग्रेजों ने उन्हें हिरासत में लेकर नजरबंद कर दिया. साल 1893 में उनका निधन हो गया और उन्हें एल्वेडन गांव में दफना दिया गया.
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