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चिपको आंदोलन@46 साल: महिलाओं ने पेड़ से लिपटकर की थी जंगल की रक्षा, केंद्र को देना पड़ा था दखल

उत्तराखंड के चिपको आंदोलन को पूरे 46 साल पूरे हो गए हैं. चिपको आंदोलन साल 1973 में चमोली जिले के रैणी गांव से हरे-भरे पेड़ों को कटने से बचाने के लिए की गई थी. साल 1972 में प्रदेश के पहाड़ी जिलों में जंगलों की अंधाधुंधकटान से आहत होकर गौरा देवी के नेतृत्व में ग्रामीणों ने बंदूकों की परवाह किए बिना ही उन्होंने पेड़ों को घेर लिया था. महिलाएं पूरी रात पेड़ों से चिपकी रहीं. अगले दिन यह खबर आग की तरह फैल गई और आसपास के गांवों में पेड़ों को बचाने के लिए लोग पेड़ों से चिपकने लगे. चार दिन के टकराव के बाद पेड़ काटने वालों को अपने कदम पीछे खींचने पड़े.

उत्तराखंड चिपको आंदोलन
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Published : Mar 26, 2019, 9:17 PM IST

देहरादूनः उत्तराखंड के कई आंदोलनों में एक चिपको आंदोलन भी शामिल है. मंगलवार को इस आंदोलन के 46 साल पूरे हो गए. चिपको आंदोलन साल 1973 में चमोली जिले के रैणी गांव से हरे-भरे पेड़ों को कटने से बचाने के लिए की गई थी. उस दौरान महिलाएं वनों को बचाने के लिए पेड़ों से चिपक गईं थी. इस आंदोलन का नेतृत्व गौरा देवी ने किया था, जो एक इतिहास बन गईं. वहीं, आंदोलन को मुखर होते देख केंद्र सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम बनाया था.

चिपको आंदोलन के 46 साल पूरे.


गौरतलब है कि यह आंदोलन तत्कालीन उत्तर प्रदेश के चमोली जिले के छोटे से रैणी गांव से 26 मार्च यानि आज ही के दिन से साल 1973 में शुरू हुई थी. साल 1972 में प्रदेश के पहाड़ी जिलों में जंगलों की अंधाधुंध कटाई का सिलसिला शुरू हो चुका था. लगातार पेड़ों के अवैध कटान से आहत होकर गौरा देवी के नेतृत्व में ग्रामीणों ने आंदोलन तेज कर दिया था. बंदूकों की परवाह किए बिना ही उन्होंने पेड़ों को घेर लिया और पूरी रात पेड़ों से चिपकी रहीं. अगले दिन यह खबर आग की तरह फैल गई और आसपास के गांवों में पेड़ों को बचाने के लिए लोग पेड़ों से चिपकने लगे. चार दिन के टकराव के बाद पेड़ काटने वालों को अपने कदम पीछे खींचने पड़े.


ये भी पढे़ंःदून के दर्शन लाल चौक पर पीएम मोदी का पोस्टर जिला प्रशासन को नहीं दिखता, डीएम बोले- हटाएंगे


इस आंदोलन में महिला, बच्चे और पुरुषों ने पेड़ों से लिपटकर अवैध कटान का पुरजोर विरोध किया था. गौरा देवी वो शख्सियत हैं, जिनके प्रयासों से ही चिपको आंदोलन को विश्व पटल पर जगह मिल पाई. इस आंदोलन में प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा, कामरेड गोविंद सिंह रावत, चंडीप्रसाद भट्ट समेत कई लोग भी शामिल थे.


वहीं, 1973 में शुरू हुए इस आंदोलन की गूंज सरकार तक पहुंच गई थी. इस आंदोलन का असर उस दौर में केंद्र की राजनीति में पर्यावरण का एक एजेंडा बना. आंदोलन को देखते हुए केंद्र सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम बनाया. इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य वन की रक्षा करना और पर्यावरण को जीवित करना था. चिपको आंदोलन के चलते ही साल 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक विधेयक बनाया था. जिसके तहत देश के सभी हिमालयी क्षेत्रों में वनों के काटने पर 15 सालों का प्रतिबंध लगा दिया गया था. इस आंदोलन के बलबूते महिलाओं को एक अलग पहचान मिल पाई थी. महिलाओं और पुरुषों ने पेड़ों को बचाने के लिए अपनी जान तक की परवाह नहीं की थी.

देहरादूनः उत्तराखंड के कई आंदोलनों में एक चिपको आंदोलन भी शामिल है. मंगलवार को इस आंदोलन के 46 साल पूरे हो गए. चिपको आंदोलन साल 1973 में चमोली जिले के रैणी गांव से हरे-भरे पेड़ों को कटने से बचाने के लिए की गई थी. उस दौरान महिलाएं वनों को बचाने के लिए पेड़ों से चिपक गईं थी. इस आंदोलन का नेतृत्व गौरा देवी ने किया था, जो एक इतिहास बन गईं. वहीं, आंदोलन को मुखर होते देख केंद्र सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम बनाया था.

चिपको आंदोलन के 46 साल पूरे.


गौरतलब है कि यह आंदोलन तत्कालीन उत्तर प्रदेश के चमोली जिले के छोटे से रैणी गांव से 26 मार्च यानि आज ही के दिन से साल 1973 में शुरू हुई थी. साल 1972 में प्रदेश के पहाड़ी जिलों में जंगलों की अंधाधुंध कटाई का सिलसिला शुरू हो चुका था. लगातार पेड़ों के अवैध कटान से आहत होकर गौरा देवी के नेतृत्व में ग्रामीणों ने आंदोलन तेज कर दिया था. बंदूकों की परवाह किए बिना ही उन्होंने पेड़ों को घेर लिया और पूरी रात पेड़ों से चिपकी रहीं. अगले दिन यह खबर आग की तरह फैल गई और आसपास के गांवों में पेड़ों को बचाने के लिए लोग पेड़ों से चिपकने लगे. चार दिन के टकराव के बाद पेड़ काटने वालों को अपने कदम पीछे खींचने पड़े.


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इस आंदोलन में महिला, बच्चे और पुरुषों ने पेड़ों से लिपटकर अवैध कटान का पुरजोर विरोध किया था. गौरा देवी वो शख्सियत हैं, जिनके प्रयासों से ही चिपको आंदोलन को विश्व पटल पर जगह मिल पाई. इस आंदोलन में प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा, कामरेड गोविंद सिंह रावत, चंडीप्रसाद भट्ट समेत कई लोग भी शामिल थे.


वहीं, 1973 में शुरू हुए इस आंदोलन की गूंज सरकार तक पहुंच गई थी. इस आंदोलन का असर उस दौर में केंद्र की राजनीति में पर्यावरण का एक एजेंडा बना. आंदोलन को देखते हुए केंद्र सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम बनाया. इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य वन की रक्षा करना और पर्यावरण को जीवित करना था. चिपको आंदोलन के चलते ही साल 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक विधेयक बनाया था. जिसके तहत देश के सभी हिमालयी क्षेत्रों में वनों के काटने पर 15 सालों का प्रतिबंध लगा दिया गया था. इस आंदोलन के बलबूते महिलाओं को एक अलग पहचान मिल पाई थी. महिलाओं और पुरुषों ने पेड़ों को बचाने के लिए अपनी जान तक की परवाह नहीं की थी.

Intro:Desk please attach the still photos I am sending from mail.

देहरादून- पहाड़ी प्रदेश उत्तराखंड के इतिहास पर गौर करें तो इस राज्य के साथ एक ऐसे आंदोलन का नाम जुड़ा हुआ है जिसकी शुरुआत 45 साल पहले हरे भरे पेड़ों को कटने से बचाने के मकसद से की गई थी ।

26 मार्च यानी आज ही के दिन से साल 1974 में चमोली जनपद के छोटे से रैणी गांव से चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई थी। इस आंदोलन में महिलाओं और पुरुषों ने पेड़ से लिपटकर पेड़ों की रक्षा की थी।




Body:गौरतलब है कि साल 1972 में प्रदेश के पहाड़ी जनपदों में जंगलों की अंधाधुंध कटाई का सिलसिला शुरू हो चुका था। ऐसे में पेड़ों के अवैध कटान के इस सिलसिले की रोकथाम के लिए साल 1974 में गौरा देवी के नेतृत्व में पहाड़ के स्थानीय निवासियों ने चिपको आंदोलन की शुरुआत की । गौरा देवी वह शख्सियत हैं जिनके प्रयासों से ही चिपको आंदोलन को विश्व पटल पर जगह मिल पाई। इस आंदोलन के तहत ग्रामीणों ने पेड़ों से लिपटकर पेड़ों के अवैध कटान का पुरजोर विरोध करना शुरू कर दिया। वही इस आंदोलन में स्थानीय पुरुषों के साथ ही स्थानीय महिलाओं का भी खास योगदान रहा था।

बता दे कि साल 1974 में शुरू हुए इस आंदोलन की गूंज केंद्र की राजनीति तक पहुंच गई थी। इस आंदोलन का ही असर था की उस दौर में केंद्र की राजनीति में पर्यावरण एक एजेंडा बन गया था। इस आंदोलन को देखते हुए केंद्र सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम बनाया था । इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य वन की रक्षा करना और पर्यावरण को जीवित करना था ।
वही कहा तो ये भी जाता है कि चिपको आंदोलन के चलते ही साल 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक खास विधेयक बनाया था । जिसके तहत देश के सभी हिमालयी क्षेत्रों में वनों के काटने पर 15 सालों का प्रतिबंध लगा दिया गया था।


Conclusion: बहरहाल उत्तराखंड के इतिहास में चिपको आंदोलन किसी मिल पत्थर से कम नही है। यह एक ऐसा आंदोलन है जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। वही इस आंदोलन का हिस्सा बनकर जिस जोश के साथ महिलाओं और पुरुषों ने पेड़ों को बचाने के लिए अपनी जान तक की परवाह नहीं की थी यह आज के युवाओं के लिए किसी प्रेरणास्रोत से कम नहीं है। यदि आज का युवा भी इसी जोश के साथ पर्यावरण संरक्षण को लेकर गंभीर हो तो निश्चित तौर पर हम अपनी प्रकृति को हमेशा हमेशा के लिए सुरक्षित बना सकते हैं।

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