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Investors Summit Uttarakhand: क्या भू-कानून के साथ हुआ खिलवाड़? जानें अपने दावों पर कितनी खरी उतरी सरकार

साल 2017 में बीजेपी की सरकार में तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने 7 अक्टूबर, 2018 को देहरादून में एक बड़े इन्वेस्टर्स समिट का आयोजन किया था, जिसमें प्रदेश में हजारों करोड़ के उद्योगों के लाने के दावा किया गया था.

Investors Summit in Uttarakhand
इन्वेस्टर्स समिट 2018
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Published : May 27, 2022, 2:54 PM IST

Updated : May 28, 2022, 1:04 PM IST

देहरादून: उत्तराखंड में बतौर मुख्यमंत्री रहते त्रिवेंद्र सिंह रावत ने राजधानी दून में साल 7 अक्टूबर 2018 में 'डेस्टिनेशन उत्तराखंड' के नाम से इन्वेस्टर्स समिट का आयोजन किया था. इसका मुख्य उद्देश्य देश-विदेश के निवेशकों को प्रदेश में निवेश के लिए आकर्षित करना था. इस इन्वेस्टर्स समिट के माध्यम से पूर्व सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत ने प्रदेश में हजारों करोड़ के उद्योगों के लाने के दावा किया था, लेकिन क्या सच में प्रदेश सरकार अपने दावों पर खरी उतरी है? प्रदेश में इन्वेस्टर्स समिट का क्या हश्र हुआ, क्या इन्वेस्टर्स समिट के नाम पर भू-कानून के साथ खिलवाड़ हुआ है? इन सवालों के जवाब तलाशेंगे.

उत्तराखंड में पिछली भाजपा सरकार में बतौर मुख्यमंत्री रहते त्रिवेंद्र सिंह रावत ने इन्वेस्टर समिट को लेकर खूब बातें की गईं. इन्वेस्टर्स समिट में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत देश-विदेश के 500 से ज्यादा उद्योगपति भी शामिल हुए थे. सभी ने उत्तराखंड में इन्वेस्टमेंट को लेकर रुचि दिखाई थी. सरकार की ओर से कहा जा रहा था कि उत्तराखंड में इन्वेस्टमेंट को लेकर माहौल बन रहा है. जानकारी दी गई कि समिट के माध्यम से प्रदेश में 1 लाख 24 हजार के 576 अनुबंध (MOU) छोटी-बड़ी सभी कंपनियों के साथ किया गया, जिससे प्रदेश में तकरीबन 1 लाख 24 हजार करोड़ के इन्वेस्टमेंट को लेकर सपने सजाए गए थे.

क्या भू-कानून के साथ हुआ खिलवाड़ ?

समय बदला और उत्तराखंड में नेतृत्व परिवर्तन के बाद नए सीएम पुष्कर सिंह धामी ने भी राज्य में उद्योगों के जरिए इन्वेस्टमेंट लाने की बात कही. इसी बीच पूर्व की त्रिवेंद्र सरकार में हुए निवेश और समिट को लेकर भी चर्चाओं ने जोर पकड़ा. सवाल उठने लगे कि नए निवेश की बात तो कही जा रही है लेकिन प्रदेश को पुराने इन्वेस्टमेंट्स का क्या फायदा मिला ये बात जाननी जरूरी है.

4 साल बाद क्या है स्थिति: प्रदेश में आए इन्वेस्टमेंट्स को लेकर उद्योग निदेशक सुधीर चंद्र नौटियाल ने बताया कि इन्वेस्टर समिट का उत्तराखंड में बेहद अच्छा रिस्पॉन्स रहा है. अन्य राज्यों में हुए इस तरह के इन्वेस्टर्स समिट के बाद के परिणामों से अगर तुलना की जाए तो अमूमन सभी राज्यों में इन्वेस्टर्स समिट के दौरान साइन किये गये MOU के 10 से 15 फीसदी प्रोजेक्ट ही धरातल पर उतरे हैं. लिहाजा, इस तरह के आयोजन का आइडल रिटर्न तकरीबन 10 से 15 फीसदी ही बताया जाता है लेकिन उत्तराखंड में यह आंकड़ा काफी ज्यादा है.
पढ़ें- 'लापता' निवेशकों को ढूंढेगी उत्तराखंड सरकार, CM धामी को भरोसा जमेगा कारोबार

इन्वेस्टर्स समिट से कितना मिला रोजगार: उद्योग विभाग के अनुसार, अब तक 1 लाख 24 हजार करोड़ के सापेक्ष 30 हजार करोड़ के प्रोजेक्ट्स की ग्राउंडिंग (प्रोजेक्ट का पहला स्टेज) हुई है. उसके तहत तकरीबन 83 हजार लोगों को रोजगार मिला है. वहीं, इससे पहले 13 हजार करोड़ के अलग-अलग इन्वेस्टमेंट में 50 हजार लोगों को रोजगार मिला है. ऐसे में कुल मिलाकर अब तक इन्वेस्टर्स समिट के तहत 1 लाख से ज्यादा लोगों को रोजगार मिल चुका है.

Investors Summit in Uttarakhand
उत्तराखंड में निवेश

क्या कहते हैं जानकार: वहीं, जानकारों की मानें तो जमीनी हकीकत इससे इतर है. वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत बताते हैं कि इन्वेस्टर्स समिट के नाम पर जितना हल्ला किया गया था, उससे धरातल पर हासिल कुछ नहीं हुआ है. इन्वेस्टर समिट के बाद कई उद्योग उत्तराखंड से पलायन कर गए. जिस तरह का माहौल पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के समय में प्रदेश में उद्योगों को लेकर बना था वह माहौल दिन-ब-दिन कम होता जा रहा है. प्रदेश में उद्योगों के विकास के लिए बनाई गए सिडकुल लगातार घोटालों का अड्डा बनता जा रहा है. इसके अलावा उद्योग विभाग के तमाम दावों को उन्होंने खोखला बताया और कहा कि जिन प्रोजेक्ट को लेकर उद्योग विभाग ग्राउंडिंग की बात कर रहा है वह धरातल पर मौजूद नहीं है.
पढ़ें- सशक्त भू-कानून की मांग को लेकर हल्लाबोल, महिलाओं ने पारंपरिक वेशभूषा में नृत्य कर किया प्रदर्शन

इन्वेस्टमेंट की आड़ भू-कानून से खिलवाड़: इन्वेस्टर्स समिट को लेकर एक बड़ा आरोप उत्तराखंड के भूमि संबंधी कानून से किए गए खिलवाड़ को लेकर भी किया जाता है. भू-कानून पर मजबूत पकड़ रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत बताते हैं कि इन्वेस्टर्स समिट के नाम पर उत्तराखंड में जमीनों को खुर्द-बुर्द किया गया. उन्होंने बताया कि, जिस तरह से उत्तराखंड में एक मजबूत कानून था, उसे उत्तराखंड में इन्वेस्टमेंट की आड़ में खोखला किया गया. इन्वेस्टर्स समिट का मकसद उत्तराखंड की आर्थिकी को मजबूत करने का था लेकिन वो पूरा नहीं हो पाया बल्कि उसकी आड़ में उत्तराखंड की जमीनों को खुर्द-बुर्द किया गया है.

जानते हैं उत्तराखंड में भू-कानून का इतिहास: देश की आजादी के बाद पहली बार 1950 में लैंड रिफॉर्म एक्ट लाया गया था, जिसका नाम जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम रखा गया. इस कानून को उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में भी लागू किया गया जिसे UPZLAR (Uttar Pradesh Zamindari Abolition & Land reform Act) का नाम दिया गया. इस एक्ट के बाद लाखों किसानों को जमीनों का अधिकार मिला और सामंतवादी व्यवस्था का अंत हुआ.

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भू-कानून के साथ खिलवाड़

इस एक्ट के अनुसार, 12 एकड़ भूमि तक का अधिकार किसानों को मिला, लेकिन उत्तर प्रदेश में मौजूद पर्वतीय इलाके जो कि ज्यादातर उत्तराखंड के हिस्से में आते थे वहां पर इस कानून को लेकर समस्याएं खड़ी हुईं, क्योंकि 12 एकड़ की भूमि पहाड़ के किसानों के पास नहीं थी. इसे देखते हुए खास तौर से पहाड़ी इलाकों के लिए जमीनों से संबंधित कुमाऊं-उत्तराखंड जमींदारी अपॉलिजशन एंड लैंड रिफॉर्म एक्ट यानी KUZA (Kumaun and Uttarkhand Zamindari Abolition and Land Reforms Rules, 1965) एक्ट बना, जिसे 1965 से उत्तर प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में लागू किया गया और इसके तहत किसानों को ढाई एकड़ तक की भूमि का अधिकार दिया गया. इसके अंतर्गत पूरा उत्तराखंड समाहित था. इसका लाभ उत्तराखंड के पर्वतीय जनपदों में किसानों को मिला.
पढ़ें- उत्तराखंड में जल्द लागू होगा सख्त भू कानून, हिमाचल ही होगा रोल मॉडल!

तिवारी सरकार ने हिमाचल की तर्ज पर बनाया भू-कानून: राज्य आंदोलन के दौरान उत्तराखंड को हिमालयन स्टेट के दर्जे वाली स्पेशल कैटेगरी वाले राज्य की मांग उठने लगी. साल 2000 में राज्य गठन हुआ और अंतरिम भाजपा सरकार ने उत्तराखंड में जमीनों संबंधित कानून को लेकर कोई बदलाव नहीं किया. जब उत्तराखंड में पहली दफा साल 2002 में चुनाव हुआ तो कांग्रेस की तिवारी सरकार पर दबाव बना कि या तो उत्तराखंड को स्पेशल कैटेगरी का स्टेटस दिया जाए या हिमाचल का भूमि कानून जिसे हिमाचल प्रदेश टेंडेंसी एंड लैंड रिफॉर्म एक्ट 1972 की धारा 18 के तहत उत्तराखंड में भी इसी कानून को लागू किया जाए. ये भू-कानून कहता है कि, नॉन एग्रीकल्चर यानी गैर कृषि योग्य भूमि कोई भी राज्य का बाहरी व्यक्ति प्रदेश में नहीं खरीद सकता है. इसी मांग को देखते हुए वर्ष 2003 में राज्य गठन के बाद भूमि कानून को लेकर पहला ऑर्डिनेंस निकाला गया जो हुबहू हिमाचल के भू-कानून जैसा ही था.

कानून को कमजोर करने की कोशिश: कांग्रेस की पहली सरकार में निकले भूमि संबंधी इस ऑर्डिनेंस ने भू-माफियाओं को काफी निराश किया और इसके बाद इस कानून को कमजोर करने की कवायद शुरू हुई. तब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रहे विजय बहुगुणा की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गई. इस कमेटी ने तिवारी सरकार में हिमाचल की तर्ज पर लाए गए ऑर्डिनेंस में एक धारा 2 जोड़ी. इस धारा के तहत ये नियम बनाया गया कि हिमाचल जैसा लाया गया भू-कानून नगरीय क्षेत्रों में लागू नहीं होगा, यानी जो भी क्षेत्र नगर निगम के अधीन आएंगे वहां पर ये कानून लागू नहीं होगा और नगरीय क्षेत्रों में बाहरी व्यक्तियों को जमीन खरीदने ढाई सौ मीटर तक की जमीन खरीदने की अनुमति दी गई, जो केवल आवासीय उद्देश्य के लिए मान्य थी.

एक नियम ये भी रखा गया कि एक बार उत्तराखंड में मानकों के अनुरूप 500 स्क्वायर मीटर जमीन खरीदने के बाद भी वो व्यक्ति यहां स्थायी निवासी नहीं हो जाएगा. उसके बाद भी उसे उत्तराखंड में अपनी मर्जी के जमीन खरीदने की अनुमति नहीं मिलेगी.
पढ़ें- भारत का जनवरी-मार्च आर्थिक विकास 40 लाख करोड़ रुपये होने का अनुमान

सत्ता बदली और बदला कानून: साल 2007 में एक बार फिर उत्तराखंड में सत्ता परिवर्तन हुआ और भाजपा की सरकार आई. मुख्यमंत्री बने भुवन चंद्र खंडूड़ी. एक बार फिर से उत्तराखंड के भू कानून में संशोधन किया गया. भू-कानून को और सख्त किया गया. इसके मुताबिक, जो अब तक नगर निकाय क्षेत्रों में आवासीय उद्देश्य के लिए 500 स्क्वायर मीटर खरीदने की अनुमति थी उसे घटाकर 250 मीटर किया गया. इसके बाद साल 2012 में एक बार फिर से कांग्रेस की सरकार आई और इस बार विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाया गया जिसके बाद गैरसैंण राजधानी को लेकर भी कवायद शुरू हुई और फिर ये विचार आया कि गैरसैंण में जमीनों की खरीद-फरोख्त हो सकती है. फिर कानून में संशोधन कर गैरसैंण तहसील में जमीनों की खरीद पर पूरी तरह से रोक लगा दी गई.

भू-कानून में संशोधन या साजिश: इसके बाद साल 2017 में दोबारा भाजपा की सरकार आई तो फिर से भूमि संबंधी कानूनों में फेरबदल होना शुरू हुआ. साल 2018 में इन्वेस्टर्स समिट से पहले त्रिवेंद्र सरकार ने जमीनों से संबंधित कई कानून बदले. सबसे पहले त्रिवेंद्र रावत सरकार ने गैरसैंण में जमीनों की खरीद को लेकर लगे प्रतिबंध को हटाया. इसके बाद उत्तराखंड के भूमि कानून में कई नई धाराओं का प्रावधान कर दिया, जिसके तहत जमीनों का लैंड यूज चेंज करना. यह सब इन्वेस्टर्स समिट के नाम पर किया गया. कहा गया कि उत्तराखंड में सवा लाख करोड़ का इन्वेस्टर आ रहा है, जिसके तहत हमें जमीनों से संबंधित अपने नियम शिथिल करने होंगे. उत्तराखंड में जो एक सख्त भू-कानून चला आ रहा था, उसमें कई तब्दीलों के बाद उत्तराखंड के भू-कानून की कई ऐसी धाराएं खोली गई, जिनके तहत उत्तराखंड में कोई भी व्यक्ति आकर उद्योग के नाम पर जमीन खरीद सकता है.

इसी दौरान त्रिवेंद्र सरकार द्वारा एक और बदलाव किया गया और प्रदेश के कई नगर निकायों का विस्तार किया गया. कई ऐसे पहाड़ी छोटे शहर जो अब तक निकायों के अधीन नहीं थे उन्हें निकायों का दर्जा दिया गया, जिसका अंजाम ये हुआ कि उत्तराखंड का जो एक बचा-खुचा भू-कानून था वो अब इन इलाकों में लागू नहीं हो रहा था, जिसके बाद उत्तराखंड में जमीनों की खरीद-फरोख्त और आसान हो गई.

देहरादून: उत्तराखंड में बतौर मुख्यमंत्री रहते त्रिवेंद्र सिंह रावत ने राजधानी दून में साल 7 अक्टूबर 2018 में 'डेस्टिनेशन उत्तराखंड' के नाम से इन्वेस्टर्स समिट का आयोजन किया था. इसका मुख्य उद्देश्य देश-विदेश के निवेशकों को प्रदेश में निवेश के लिए आकर्षित करना था. इस इन्वेस्टर्स समिट के माध्यम से पूर्व सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत ने प्रदेश में हजारों करोड़ के उद्योगों के लाने के दावा किया था, लेकिन क्या सच में प्रदेश सरकार अपने दावों पर खरी उतरी है? प्रदेश में इन्वेस्टर्स समिट का क्या हश्र हुआ, क्या इन्वेस्टर्स समिट के नाम पर भू-कानून के साथ खिलवाड़ हुआ है? इन सवालों के जवाब तलाशेंगे.

उत्तराखंड में पिछली भाजपा सरकार में बतौर मुख्यमंत्री रहते त्रिवेंद्र सिंह रावत ने इन्वेस्टर समिट को लेकर खूब बातें की गईं. इन्वेस्टर्स समिट में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत देश-विदेश के 500 से ज्यादा उद्योगपति भी शामिल हुए थे. सभी ने उत्तराखंड में इन्वेस्टमेंट को लेकर रुचि दिखाई थी. सरकार की ओर से कहा जा रहा था कि उत्तराखंड में इन्वेस्टमेंट को लेकर माहौल बन रहा है. जानकारी दी गई कि समिट के माध्यम से प्रदेश में 1 लाख 24 हजार के 576 अनुबंध (MOU) छोटी-बड़ी सभी कंपनियों के साथ किया गया, जिससे प्रदेश में तकरीबन 1 लाख 24 हजार करोड़ के इन्वेस्टमेंट को लेकर सपने सजाए गए थे.

क्या भू-कानून के साथ हुआ खिलवाड़ ?

समय बदला और उत्तराखंड में नेतृत्व परिवर्तन के बाद नए सीएम पुष्कर सिंह धामी ने भी राज्य में उद्योगों के जरिए इन्वेस्टमेंट लाने की बात कही. इसी बीच पूर्व की त्रिवेंद्र सरकार में हुए निवेश और समिट को लेकर भी चर्चाओं ने जोर पकड़ा. सवाल उठने लगे कि नए निवेश की बात तो कही जा रही है लेकिन प्रदेश को पुराने इन्वेस्टमेंट्स का क्या फायदा मिला ये बात जाननी जरूरी है.

4 साल बाद क्या है स्थिति: प्रदेश में आए इन्वेस्टमेंट्स को लेकर उद्योग निदेशक सुधीर चंद्र नौटियाल ने बताया कि इन्वेस्टर समिट का उत्तराखंड में बेहद अच्छा रिस्पॉन्स रहा है. अन्य राज्यों में हुए इस तरह के इन्वेस्टर्स समिट के बाद के परिणामों से अगर तुलना की जाए तो अमूमन सभी राज्यों में इन्वेस्टर्स समिट के दौरान साइन किये गये MOU के 10 से 15 फीसदी प्रोजेक्ट ही धरातल पर उतरे हैं. लिहाजा, इस तरह के आयोजन का आइडल रिटर्न तकरीबन 10 से 15 फीसदी ही बताया जाता है लेकिन उत्तराखंड में यह आंकड़ा काफी ज्यादा है.
पढ़ें- 'लापता' निवेशकों को ढूंढेगी उत्तराखंड सरकार, CM धामी को भरोसा जमेगा कारोबार

इन्वेस्टर्स समिट से कितना मिला रोजगार: उद्योग विभाग के अनुसार, अब तक 1 लाख 24 हजार करोड़ के सापेक्ष 30 हजार करोड़ के प्रोजेक्ट्स की ग्राउंडिंग (प्रोजेक्ट का पहला स्टेज) हुई है. उसके तहत तकरीबन 83 हजार लोगों को रोजगार मिला है. वहीं, इससे पहले 13 हजार करोड़ के अलग-अलग इन्वेस्टमेंट में 50 हजार लोगों को रोजगार मिला है. ऐसे में कुल मिलाकर अब तक इन्वेस्टर्स समिट के तहत 1 लाख से ज्यादा लोगों को रोजगार मिल चुका है.

Investors Summit in Uttarakhand
उत्तराखंड में निवेश

क्या कहते हैं जानकार: वहीं, जानकारों की मानें तो जमीनी हकीकत इससे इतर है. वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत बताते हैं कि इन्वेस्टर्स समिट के नाम पर जितना हल्ला किया गया था, उससे धरातल पर हासिल कुछ नहीं हुआ है. इन्वेस्टर समिट के बाद कई उद्योग उत्तराखंड से पलायन कर गए. जिस तरह का माहौल पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के समय में प्रदेश में उद्योगों को लेकर बना था वह माहौल दिन-ब-दिन कम होता जा रहा है. प्रदेश में उद्योगों के विकास के लिए बनाई गए सिडकुल लगातार घोटालों का अड्डा बनता जा रहा है. इसके अलावा उद्योग विभाग के तमाम दावों को उन्होंने खोखला बताया और कहा कि जिन प्रोजेक्ट को लेकर उद्योग विभाग ग्राउंडिंग की बात कर रहा है वह धरातल पर मौजूद नहीं है.
पढ़ें- सशक्त भू-कानून की मांग को लेकर हल्लाबोल, महिलाओं ने पारंपरिक वेशभूषा में नृत्य कर किया प्रदर्शन

इन्वेस्टमेंट की आड़ भू-कानून से खिलवाड़: इन्वेस्टर्स समिट को लेकर एक बड़ा आरोप उत्तराखंड के भूमि संबंधी कानून से किए गए खिलवाड़ को लेकर भी किया जाता है. भू-कानून पर मजबूत पकड़ रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत बताते हैं कि इन्वेस्टर्स समिट के नाम पर उत्तराखंड में जमीनों को खुर्द-बुर्द किया गया. उन्होंने बताया कि, जिस तरह से उत्तराखंड में एक मजबूत कानून था, उसे उत्तराखंड में इन्वेस्टमेंट की आड़ में खोखला किया गया. इन्वेस्टर्स समिट का मकसद उत्तराखंड की आर्थिकी को मजबूत करने का था लेकिन वो पूरा नहीं हो पाया बल्कि उसकी आड़ में उत्तराखंड की जमीनों को खुर्द-बुर्द किया गया है.

जानते हैं उत्तराखंड में भू-कानून का इतिहास: देश की आजादी के बाद पहली बार 1950 में लैंड रिफॉर्म एक्ट लाया गया था, जिसका नाम जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम रखा गया. इस कानून को उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में भी लागू किया गया जिसे UPZLAR (Uttar Pradesh Zamindari Abolition & Land reform Act) का नाम दिया गया. इस एक्ट के बाद लाखों किसानों को जमीनों का अधिकार मिला और सामंतवादी व्यवस्था का अंत हुआ.

Investors Summit in Uttarakhand
भू-कानून के साथ खिलवाड़

इस एक्ट के अनुसार, 12 एकड़ भूमि तक का अधिकार किसानों को मिला, लेकिन उत्तर प्रदेश में मौजूद पर्वतीय इलाके जो कि ज्यादातर उत्तराखंड के हिस्से में आते थे वहां पर इस कानून को लेकर समस्याएं खड़ी हुईं, क्योंकि 12 एकड़ की भूमि पहाड़ के किसानों के पास नहीं थी. इसे देखते हुए खास तौर से पहाड़ी इलाकों के लिए जमीनों से संबंधित कुमाऊं-उत्तराखंड जमींदारी अपॉलिजशन एंड लैंड रिफॉर्म एक्ट यानी KUZA (Kumaun and Uttarkhand Zamindari Abolition and Land Reforms Rules, 1965) एक्ट बना, जिसे 1965 से उत्तर प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में लागू किया गया और इसके तहत किसानों को ढाई एकड़ तक की भूमि का अधिकार दिया गया. इसके अंतर्गत पूरा उत्तराखंड समाहित था. इसका लाभ उत्तराखंड के पर्वतीय जनपदों में किसानों को मिला.
पढ़ें- उत्तराखंड में जल्द लागू होगा सख्त भू कानून, हिमाचल ही होगा रोल मॉडल!

तिवारी सरकार ने हिमाचल की तर्ज पर बनाया भू-कानून: राज्य आंदोलन के दौरान उत्तराखंड को हिमालयन स्टेट के दर्जे वाली स्पेशल कैटेगरी वाले राज्य की मांग उठने लगी. साल 2000 में राज्य गठन हुआ और अंतरिम भाजपा सरकार ने उत्तराखंड में जमीनों संबंधित कानून को लेकर कोई बदलाव नहीं किया. जब उत्तराखंड में पहली दफा साल 2002 में चुनाव हुआ तो कांग्रेस की तिवारी सरकार पर दबाव बना कि या तो उत्तराखंड को स्पेशल कैटेगरी का स्टेटस दिया जाए या हिमाचल का भूमि कानून जिसे हिमाचल प्रदेश टेंडेंसी एंड लैंड रिफॉर्म एक्ट 1972 की धारा 18 के तहत उत्तराखंड में भी इसी कानून को लागू किया जाए. ये भू-कानून कहता है कि, नॉन एग्रीकल्चर यानी गैर कृषि योग्य भूमि कोई भी राज्य का बाहरी व्यक्ति प्रदेश में नहीं खरीद सकता है. इसी मांग को देखते हुए वर्ष 2003 में राज्य गठन के बाद भूमि कानून को लेकर पहला ऑर्डिनेंस निकाला गया जो हुबहू हिमाचल के भू-कानून जैसा ही था.

कानून को कमजोर करने की कोशिश: कांग्रेस की पहली सरकार में निकले भूमि संबंधी इस ऑर्डिनेंस ने भू-माफियाओं को काफी निराश किया और इसके बाद इस कानून को कमजोर करने की कवायद शुरू हुई. तब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रहे विजय बहुगुणा की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गई. इस कमेटी ने तिवारी सरकार में हिमाचल की तर्ज पर लाए गए ऑर्डिनेंस में एक धारा 2 जोड़ी. इस धारा के तहत ये नियम बनाया गया कि हिमाचल जैसा लाया गया भू-कानून नगरीय क्षेत्रों में लागू नहीं होगा, यानी जो भी क्षेत्र नगर निगम के अधीन आएंगे वहां पर ये कानून लागू नहीं होगा और नगरीय क्षेत्रों में बाहरी व्यक्तियों को जमीन खरीदने ढाई सौ मीटर तक की जमीन खरीदने की अनुमति दी गई, जो केवल आवासीय उद्देश्य के लिए मान्य थी.

एक नियम ये भी रखा गया कि एक बार उत्तराखंड में मानकों के अनुरूप 500 स्क्वायर मीटर जमीन खरीदने के बाद भी वो व्यक्ति यहां स्थायी निवासी नहीं हो जाएगा. उसके बाद भी उसे उत्तराखंड में अपनी मर्जी के जमीन खरीदने की अनुमति नहीं मिलेगी.
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सत्ता बदली और बदला कानून: साल 2007 में एक बार फिर उत्तराखंड में सत्ता परिवर्तन हुआ और भाजपा की सरकार आई. मुख्यमंत्री बने भुवन चंद्र खंडूड़ी. एक बार फिर से उत्तराखंड के भू कानून में संशोधन किया गया. भू-कानून को और सख्त किया गया. इसके मुताबिक, जो अब तक नगर निकाय क्षेत्रों में आवासीय उद्देश्य के लिए 500 स्क्वायर मीटर खरीदने की अनुमति थी उसे घटाकर 250 मीटर किया गया. इसके बाद साल 2012 में एक बार फिर से कांग्रेस की सरकार आई और इस बार विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाया गया जिसके बाद गैरसैंण राजधानी को लेकर भी कवायद शुरू हुई और फिर ये विचार आया कि गैरसैंण में जमीनों की खरीद-फरोख्त हो सकती है. फिर कानून में संशोधन कर गैरसैंण तहसील में जमीनों की खरीद पर पूरी तरह से रोक लगा दी गई.

भू-कानून में संशोधन या साजिश: इसके बाद साल 2017 में दोबारा भाजपा की सरकार आई तो फिर से भूमि संबंधी कानूनों में फेरबदल होना शुरू हुआ. साल 2018 में इन्वेस्टर्स समिट से पहले त्रिवेंद्र सरकार ने जमीनों से संबंधित कई कानून बदले. सबसे पहले त्रिवेंद्र रावत सरकार ने गैरसैंण में जमीनों की खरीद को लेकर लगे प्रतिबंध को हटाया. इसके बाद उत्तराखंड के भूमि कानून में कई नई धाराओं का प्रावधान कर दिया, जिसके तहत जमीनों का लैंड यूज चेंज करना. यह सब इन्वेस्टर्स समिट के नाम पर किया गया. कहा गया कि उत्तराखंड में सवा लाख करोड़ का इन्वेस्टर आ रहा है, जिसके तहत हमें जमीनों से संबंधित अपने नियम शिथिल करने होंगे. उत्तराखंड में जो एक सख्त भू-कानून चला आ रहा था, उसमें कई तब्दीलों के बाद उत्तराखंड के भू-कानून की कई ऐसी धाराएं खोली गई, जिनके तहत उत्तराखंड में कोई भी व्यक्ति आकर उद्योग के नाम पर जमीन खरीद सकता है.

इसी दौरान त्रिवेंद्र सरकार द्वारा एक और बदलाव किया गया और प्रदेश के कई नगर निकायों का विस्तार किया गया. कई ऐसे पहाड़ी छोटे शहर जो अब तक निकायों के अधीन नहीं थे उन्हें निकायों का दर्जा दिया गया, जिसका अंजाम ये हुआ कि उत्तराखंड का जो एक बचा-खुचा भू-कानून था वो अब इन इलाकों में लागू नहीं हो रहा था, जिसके बाद उत्तराखंड में जमीनों की खरीद-फरोख्त और आसान हो गई.

Last Updated : May 28, 2022, 1:04 PM IST
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