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विकास की 'रोशनी' से महरूम देहरादून की ये बस्ती, शिक्षा-स्वास्थ्य और रोजगार का नहीं अता-पता

देहरादून की अधोइवाला बस्ती में कोरोना के बाद शायद सरकार झांकना भूल गई है. कोरोना के बाद लगाये गये लॉकडाउन, कोराना कर्फ्यू के बाद यहां के हालात और खराब हो गये हैं. तब से लेकर यहां सरकारों की योजनाएं की एक किश्त भी नहीं पहुंच पाई है. यहां शिक्षा-स्वास्थ्य और रोजगार सभी दरवाजे बंद हैं.

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Published : Sep 16, 2021, 10:04 PM IST

Updated : Sep 17, 2021, 12:11 PM IST

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अधोइवाला बस्ती के हालात

देहरादून: प्रदेश में कोरोना संक्रमण के कम होते मामलों के बाद लॉकडाउन खत्म करने की घोषणा की गई. साथ ही एहतियात के तौर पर कर्फ्यू में राहत भी दी गई, मगर इस दौरान मेहनतकश दिहाड़ी मजदूरों को वो सुविधाएं नहीं दी गई. जो उन्हें लॉकडाउन के दौरान दी जा रही थी. लॉकडाउन खत्म होने और कर्फ्यू के दौरान सरकार अपनी जिम्मेदारियों को भूल गई. सभी कुछ प्रशासन ने एनजीओ के भरोसे छोड़ दिया गया. इस दौर में उत्तराखंड के सैकड़ों परिवारों को 2 जून की रोटी के लिए संघर्ष करना पड़ा. अधोइवाला बस्ती में रहने वाले परिवारों की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. जहां, हर किसी का अपना एक किस्सा है, जो किसी कहानी से कम नहीं है.

सुमित्रा पिछले कई सालों से देहरादून के अधोइवाला की बस्ती में रहती है. 70 साल की सुमित्रा यहां अपने पति के साथ किसी तरह अपने दिन काट रही थी, लेकिन कोरोना की दस्तक और पति की किडनी की समस्या उसके जीवनभर का दर्द बन गई. सुमित्रा के पति की बीमारी पर उसकी न केवल जमा पूंजी खत्म हो गई. बल्कि वह अब कर्ज के बोझ तले भी दब गई है. कर्ज बढ़ता चला गया तो पति को अस्पताल से इलाज के बिना ही घर लाना पड़ा. नतीजतन पति की उसकी आंखों के सामने ही मौत हो गई.

विकास की 'रोशनी' से महरूम देहरादून की ये बस्ती.

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सुमित्रा अपनी यह बात बताते हुए रो पड़ती है. वह कहती है हर रोज घर पर लेनदार कर्ज वसूलने आ धमकते हैं. उसका इस दुनिया में कोई नहीं है. वह कहां जाएंगी, क्या खाएंगी, कैसे कर्ज चुकाएगी ये सब ऐसे सवाल हैं जिनका कोई जवाब नहीं है.

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अधोइवाला की इस बस्ती में मायूसी और बेबसी की ऐसी कई कहानियां हैं. यहां ऐसे सैकड़ों मजदूर हैं जिन्हें पिछले 2- 3 महीनों से काम नहीं मिल रहा. कहने को तो लॉकडाउन खुल चुका है. लेकिन बाजार में काम ही नहीं है. ऐसे मजदूरों को अपना परिवार चलाने के लिए घर का सामान बेचना पड़ रहा है. मजदूरों के नेता अशोक कुमार कहते हैं मजदूर अपना घर का सामान बेचकर रात की रोटी का इंतजाम कर रहे हैं. वे कहते हैं सरकार, प्रशासन को उनके हालातों की कोई फिक्र नहीं है.

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घर की रोजी रोटी चलाने में असमर्थ यह मजदूर प्रशासन की बेफिक्री का हर्जाना भुगत रहे हैं. शायद सरकार और प्रशासन सुप्रीम कोर्ट के उन आदेशों को भूल चुके हैं जिसमें मजदूरों के लिए इन कठिन हालातों में राशन की व्यवस्था के लिए कहा गया है. इस बस्ती से दर्द की कहानी बस इतनी ही नहीं है. इलाज में कर्जदार बनी सुमित्रा हो या भूखे पेट रहने वाले मजदूर, इन सभी के सामने अपने आज से लेकर बच्चों के भविष्य का सवाल खड़ा है.

पढ़ें- चुनावी मौसम में शुरू हुई सेंधमारी की सियासत, दलों ने किये दल-बदल के बड़े-बड़े दावे

इसी बस्ती के गोपी राम और उनकी पत्नी दोनों ही दिव्यांग हैं. वैसे तो यह दोनों ही सिलाई बुनाई कर अपना घर चलाते थे. लेकिन कोरोना ने इसकी रोजी-रोटी को भी संकट में डाल दिया. गोपी राम कहते हैं कि उनका न तो आज का भरोसा है और न ही कल का. गोपीराम की मानें तो कोरोना से पहले सब ठीक चल रहा था. वह अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा भी दे पा रहे थे. लेकिन स्कूल बंद हो गए, जिससे सब ठप हो गया. अब न उनके पास खाने का कोई इंतजाम है और न ही बच्चों के पास स्मार्टफोन है. जिसके जरिए वे ऑनलाइन कक्षाएं अटेंड कर सके.

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गरीबी में न तो सिस्टम काम आता है और न ही सरकारी योजनाएं, इस बात की तस्दीक अधोइवाला बस्ती कर रही है. कहने को तो उत्तराखंड सरकार ने हर नागरिक को मुफ्त इलाज के लिए अटल आयुष्मान योजना दी है. लेकिन आपको हैरानी होगी कि इसी बस्ती के भारत सिंह की तबीयत खराब हुई, डॉक्टरों ने उन्हें एक्स-रे कराने को कहा तो इसके लिए उन्हें अपना पंखा बेचना पड़ा. यही नहीं भारत सिंह कहते हैं कि सरकारी अस्पताल में जाकर डॉक्टर दवाई बाहर की लिखते हैं. डॉक्टर ने एक हफ्ते की दवाई लिखी है लेकिन उनके पास केवल एक ही दिन की दवाई लाने के ही पैसे थे.

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इस बस्ती में हर परिवार की अपनी-अपनी कहानी है. सभी का अपना एक अलग दर्द है. यहां न तो सरकार की स्वास्थ्य योजनाएं हैं, न शिक्षा और न ही रोजगार जैसी कोई सुविधा. जिनका सराकरें रोज ढिढ़ोरा पीटती हैं. अगर यहां ऐसा कुछ होता तो आज यहां रहने वाले परिवारों को 2 जून की रोटी और दवाई के लिए इतनी मश्क्कत नहीं करनी पड़ती.

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वहीं, जब इन बस्ती के हालातों को लेकर ईटीवी भारत की टीम ने देहरादून जिलाधिकारी डॉ. राजेश कुमार से बात की तो उन्होंने सारी व्यवस्थाएं दुरुस्त होने की बात कही. उन्होंने कहा अक्षय पात्र संस्था के जरिए सभी लोगों को राशन दिया भी जा रहा है. ऐसे जिम्मेदार अधिकारी न इन हालातों में जीते मजदूरों की जानकारी हमसे लेनी चाही और न ही वह इस समस्या को लेकर कुछ खास गंभीर दिखाई दिए.

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दरअसल, शहरों के एसी कमरों में बैठे अधिकारी कभी कागजों से बाहर ही निकल पाते. कागजों में ही उनकी सारी योजनाएं अपने आयाम छूती हैं. इसी के आधार पर वे नेताओं, मंत्रियों और सरकार को रिपोर्ट दे देते हैं. जिसके बाद य सभी दिन रात विकास का ढ़िढोरा पीटते हैं. अगर वाकई में नेता, अफसर धरातल पर उतरकर परेशानियों को समझने की कोशिश करते तो अधोइवाला बस्ती जैसे हालात न बनते.

देहरादून: प्रदेश में कोरोना संक्रमण के कम होते मामलों के बाद लॉकडाउन खत्म करने की घोषणा की गई. साथ ही एहतियात के तौर पर कर्फ्यू में राहत भी दी गई, मगर इस दौरान मेहनतकश दिहाड़ी मजदूरों को वो सुविधाएं नहीं दी गई. जो उन्हें लॉकडाउन के दौरान दी जा रही थी. लॉकडाउन खत्म होने और कर्फ्यू के दौरान सरकार अपनी जिम्मेदारियों को भूल गई. सभी कुछ प्रशासन ने एनजीओ के भरोसे छोड़ दिया गया. इस दौर में उत्तराखंड के सैकड़ों परिवारों को 2 जून की रोटी के लिए संघर्ष करना पड़ा. अधोइवाला बस्ती में रहने वाले परिवारों की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. जहां, हर किसी का अपना एक किस्सा है, जो किसी कहानी से कम नहीं है.

सुमित्रा पिछले कई सालों से देहरादून के अधोइवाला की बस्ती में रहती है. 70 साल की सुमित्रा यहां अपने पति के साथ किसी तरह अपने दिन काट रही थी, लेकिन कोरोना की दस्तक और पति की किडनी की समस्या उसके जीवनभर का दर्द बन गई. सुमित्रा के पति की बीमारी पर उसकी न केवल जमा पूंजी खत्म हो गई. बल्कि वह अब कर्ज के बोझ तले भी दब गई है. कर्ज बढ़ता चला गया तो पति को अस्पताल से इलाज के बिना ही घर लाना पड़ा. नतीजतन पति की उसकी आंखों के सामने ही मौत हो गई.

विकास की 'रोशनी' से महरूम देहरादून की ये बस्ती.

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सुमित्रा अपनी यह बात बताते हुए रो पड़ती है. वह कहती है हर रोज घर पर लेनदार कर्ज वसूलने आ धमकते हैं. उसका इस दुनिया में कोई नहीं है. वह कहां जाएंगी, क्या खाएंगी, कैसे कर्ज चुकाएगी ये सब ऐसे सवाल हैं जिनका कोई जवाब नहीं है.

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अधोइवाला की इस बस्ती में मायूसी और बेबसी की ऐसी कई कहानियां हैं. यहां ऐसे सैकड़ों मजदूर हैं जिन्हें पिछले 2- 3 महीनों से काम नहीं मिल रहा. कहने को तो लॉकडाउन खुल चुका है. लेकिन बाजार में काम ही नहीं है. ऐसे मजदूरों को अपना परिवार चलाने के लिए घर का सामान बेचना पड़ रहा है. मजदूरों के नेता अशोक कुमार कहते हैं मजदूर अपना घर का सामान बेचकर रात की रोटी का इंतजाम कर रहे हैं. वे कहते हैं सरकार, प्रशासन को उनके हालातों की कोई फिक्र नहीं है.

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घर की रोजी रोटी चलाने में असमर्थ यह मजदूर प्रशासन की बेफिक्री का हर्जाना भुगत रहे हैं. शायद सरकार और प्रशासन सुप्रीम कोर्ट के उन आदेशों को भूल चुके हैं जिसमें मजदूरों के लिए इन कठिन हालातों में राशन की व्यवस्था के लिए कहा गया है. इस बस्ती से दर्द की कहानी बस इतनी ही नहीं है. इलाज में कर्जदार बनी सुमित्रा हो या भूखे पेट रहने वाले मजदूर, इन सभी के सामने अपने आज से लेकर बच्चों के भविष्य का सवाल खड़ा है.

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इसी बस्ती के गोपी राम और उनकी पत्नी दोनों ही दिव्यांग हैं. वैसे तो यह दोनों ही सिलाई बुनाई कर अपना घर चलाते थे. लेकिन कोरोना ने इसकी रोजी-रोटी को भी संकट में डाल दिया. गोपी राम कहते हैं कि उनका न तो आज का भरोसा है और न ही कल का. गोपीराम की मानें तो कोरोना से पहले सब ठीक चल रहा था. वह अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा भी दे पा रहे थे. लेकिन स्कूल बंद हो गए, जिससे सब ठप हो गया. अब न उनके पास खाने का कोई इंतजाम है और न ही बच्चों के पास स्मार्टफोन है. जिसके जरिए वे ऑनलाइन कक्षाएं अटेंड कर सके.

पढ़ें- गंगा पूजन के साथ कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा के दूसरे चरण का ऐलान, जानें रणनीति

गरीबी में न तो सिस्टम काम आता है और न ही सरकारी योजनाएं, इस बात की तस्दीक अधोइवाला बस्ती कर रही है. कहने को तो उत्तराखंड सरकार ने हर नागरिक को मुफ्त इलाज के लिए अटल आयुष्मान योजना दी है. लेकिन आपको हैरानी होगी कि इसी बस्ती के भारत सिंह की तबीयत खराब हुई, डॉक्टरों ने उन्हें एक्स-रे कराने को कहा तो इसके लिए उन्हें अपना पंखा बेचना पड़ा. यही नहीं भारत सिंह कहते हैं कि सरकारी अस्पताल में जाकर डॉक्टर दवाई बाहर की लिखते हैं. डॉक्टर ने एक हफ्ते की दवाई लिखी है लेकिन उनके पास केवल एक ही दिन की दवाई लाने के ही पैसे थे.

पढ़ें- 'लापता' निवेशकों को ढूंढेगी उत्तराखंड सरकार, CM धामी को भरोसा जमेगा कारोबार

इस बस्ती में हर परिवार की अपनी-अपनी कहानी है. सभी का अपना एक अलग दर्द है. यहां न तो सरकार की स्वास्थ्य योजनाएं हैं, न शिक्षा और न ही रोजगार जैसी कोई सुविधा. जिनका सराकरें रोज ढिढ़ोरा पीटती हैं. अगर यहां ऐसा कुछ होता तो आज यहां रहने वाले परिवारों को 2 जून की रोटी और दवाई के लिए इतनी मश्क्कत नहीं करनी पड़ती.

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वहीं, जब इन बस्ती के हालातों को लेकर ईटीवी भारत की टीम ने देहरादून जिलाधिकारी डॉ. राजेश कुमार से बात की तो उन्होंने सारी व्यवस्थाएं दुरुस्त होने की बात कही. उन्होंने कहा अक्षय पात्र संस्था के जरिए सभी लोगों को राशन दिया भी जा रहा है. ऐसे जिम्मेदार अधिकारी न इन हालातों में जीते मजदूरों की जानकारी हमसे लेनी चाही और न ही वह इस समस्या को लेकर कुछ खास गंभीर दिखाई दिए.

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दरअसल, शहरों के एसी कमरों में बैठे अधिकारी कभी कागजों से बाहर ही निकल पाते. कागजों में ही उनकी सारी योजनाएं अपने आयाम छूती हैं. इसी के आधार पर वे नेताओं, मंत्रियों और सरकार को रिपोर्ट दे देते हैं. जिसके बाद य सभी दिन रात विकास का ढ़िढोरा पीटते हैं. अगर वाकई में नेता, अफसर धरातल पर उतरकर परेशानियों को समझने की कोशिश करते तो अधोइवाला बस्ती जैसे हालात न बनते.

Last Updated : Sep 17, 2021, 12:11 PM IST
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