देहरादून: उत्तराखंड में बादल फटने की 90 फीसदी खबरें झूठी होती हैं. चौंकिए नहीं, ईटीवी भारत मौसम विभाग से जुड़ी ऐसी हकीकत आपके सामने लाने जा रहा है, जिस पर मौसम वैज्ञानिकों ने भी मुहर लगाई है.
राज्य में मानसून सीजन के दौरान बादल फटने की अक्सर कई घटनाएं सुर्खिया बनती हैं, लेकिन आपको हैरानी होगी कि इन घटनाओं में 90 फीसदी घटनाएं तो बादल फटने से जुड़ी ही नहीं होती. जी हां आपने सही सुना. 90 फीसदी घटनाएं बादल फटना नहीं कही जा सकती. दरअसल इस खबर को समझने के लिए सबसे पहले आपका ये जानना जरूरी है कि बादल फटना किसे कहते हैं.
बादल फटने को लेकर वैज्ञानिकों ने एक परिभाषा तय की है. इसके अनुसार 100 मिलीमीटर प्रति घंटा बारिश होने को बादल फटना माना जाता है या यूं कहें कि बारिश का चरम रूप बादल फटना कहलाता है. इस स्थिति में कुछ ही मिनट में 2 सेंटीमीटर से ज्यादा बारिश एक क्षेत्र में हो जाती है जिस कारण से वहां पर भारी तबाही और बाढ़ की स्थिति पैदा हो जाती है.
हाल ही में अल्मोड़ा, उत्तरकाशी, चमोली, पिथौरागढ़ सहित अन्य भागों में बड़े पैमाने पर बादल फटने की खबरें सामने आईं थी. जिससे काफी नुकसान हुआ था. वर्ष 2013 में केदारनाथ त्रासदी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है.
मौसम वैज्ञानिक क्या कहते हैं?
उत्तराखंड में पिछले कुछ सालों के दौरान बादल फटने की लगातार हो रही घटना को देखते हुए जब ईटीवी भारत ने रिपोर्ट बनानी शुरू की, तो पता चला कि बादल फटने वाली जगहों पर नुकसान का कारण अनियोजित विकास या गदेरों पर भवन निर्माण का होना था. इसी बिंदु पर जब हमने देहरादून में मौसम वैज्ञानिक और निदेशक मौसम विभाग विक्रम सिंह से बात कि तो उन्होंने जो बताया वो चौकाने वाला था.
विक्रम सिंह ने बताया कि उत्तराखंड पहाड़ी राज्य होने के चलते यहां 5-6 सेंटीमीटर बारिश से ही लैंडस्लाइड और गदेरों में पानी आने से बेहद ज्यादा नुकसान हो जाता है और इसी को लोग बदल फटना कह देते हैं, जबकि वैज्ञानिक रूप से बादल फटना 10 सेंटीमीटर/घंटा बारिश आने पर माना जाता है.
खास बात यह है कि उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में मौसम विभाग ने बादल फटने के तय मानक के अनुसार अब तक बारिश रिकॉर्ड नहीं की है. हालांकि प्रदेश में कई ऐसी घटनाएं भी हैं जिन्हें मौसम वैज्ञानिक बादल फटने के रूप में मानते रहे हैं, लेकिन 90 फीसदी कथित बादल फटने की घटनाओं में वैज्ञानिकों के तय मानक के अनुसार बारिश रिकॉर्ड नहीं की गई है.
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हिमालयी पर्यावरण पर काम करने वाले प्रोफेसर एसपी सती ने दावा किया है कि उत्तराखंड में अतिवृष्टि या तेज बारिश को ही बादल फटने के रूप में प्रचारित कर दिया जाता है, जबकि बादल फटने के लिए तय बारिश की मात्रा से कहीं कम बारिश घटना वाली जगह पर होती है.
प्रो. सती बताते हैं कि उत्तराखंड में अतिवृष्टि से बेहद ज्यादा नुकसान होता है और इसीलिए लोग तेज बारिश को ही लोग बादल फटना कह देते हैं जबकि इस नुकसान के लिए अनियोजित विकास कार्य, और गदेरों पर बने घर वजह बनते हैं. इसके अलावा प्रोफेसर सती विकास कार्यों के दौरान भारी मात्रा में नदियों में डाले जा रहे मलबे, और तेजी से बन रहे डेम को भी कारण मानते हैं.
क्यों फटते हैं बादल ?
बादल फटने की घटनाएं अमूमन पृथ्वी से 15 किलोमीटर ऊंचाई पर होती है. वैज्ञानिकों के अनुसार बादलों में बेहद ज्यादा नमी के दौरान जब यह पहाड़ी क्षेत्र में फंस जाते हैं और अचानक लाखों लीटर पानी एक साथ बारिश के रूप में बरसता है. इसके अलावा नमी वाले बादलों पर गर्म हवाओं का झोंका टकराने से भी बादल फटने की घटना घटित होती है.
बादल फटने का शब्द बन रहा प्रदेश के लिए मुसीबत
तेज बारिश या अतिवृष्टि के चलते नुकसान होने पर इसे बादल फटना मान लिया जाता है और सरकार और शासन से जुड़े लोग भी इसे बादल फटने की घटना कहकर अनजाने में प्रदेश को नुकसान पहुंचाते हैं. दरअसल प्रदेश में बादल फटने की घटनाओं में इजाफा होने की बात कही जा रही है जबकि यह तेज बारिश और अतिवृष्टि है. राज्य में बढ़ रही ऐसी घटनाओं के चलते कई बार पर्यटन को बेहद ज्यादा नुकसान होता है और पर्यटक बादल फटने जैसे शब्द से घबराकर प्रदेश का दौरा भी रद्द कर देते हैं.
जरूरत है कि वैज्ञानिक रूप से तय किए गए मानक पर ही बादल फटने की घटना को अधिकृत किया जाए और विकास के नाम पर मानव जनित आपदाओं को कम करने की कोशिश की जाए.
अब तक हुई मौतों का आंकड़ा
उत्तराखंड में इस साल करीब 20 लोगों के आपदा में मरने की सूचना है. साल 2018 में करीब 60 लोगों की तेज बारिश के बाद हुई तबाही में मौत हुई थी, साल 2017 में 84 लोगों की तेज बारिश के चलते मौत हुई. साल 2013 में यह आंकड़ा सबसे ज्यादा है जब सैकड़ों लोग तेज बारिश के चलते काल के गाल में समा गए थे.