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चिपको आंदोलन ने पूरी की स्वर्ण जयंती, गौरा देवी के नेतृत्व में ऐसे बचा रैणी का जंगल - severe flood of alaknanda

चिपको आंदोलन ने अपने 50 साल पूरे कर लिए है. 1973 में उत्तराखंड के चमोली जिले में वन और पेड़ बचाने के लिए चिपको आंदोलन शुरू हुआ था. पेश है इस चिपको आंदोलन की गौरवशाली यादें.

Chipko movement
चिपको आंदोलन
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Published : Mar 27, 2023, 1:22 PM IST

Updated : Mar 27, 2023, 1:48 PM IST

देहरादून/चमोली: सन 1973 के शुरुआती दिन थे. चमोली जिले के दशोली इलाके में तत्कालीन उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद स्थित खेल का सामान बनाने वाली कंपनी साइमंड्स को ऐश के पेश काटने से रोका गया. ग्रामीणों ने गोपेश्वर से साठ किमी दूर फाटा रामपुर के जंगलों में साइमंड्स के एजेंटों को पेड़ काटने से रोक दिया.
बाढ़ से तबाह हुआ था इलाका: इससे पहले 1970 में जोशीमठ इलाका अलकनंदा की भीषण बाढ़ से तबाह होकर कराह रहा था. कई साल बाद तक इलाका बाढ़ की तबाही से उबर नहीं पाया था. तभी 1973 में वन विभाग ने जोशीमठ ब्लॉक के रैणी गांव के नजदीक पेंग मुरेंडा जंगल को पेड़ काटने के लिए चुना. ऋषिकेश निवासी ठेकेदार को 680 हेक्टेयर जंगल पौने पांच लाख रुपए में नीलामी में दिया गया.

गौरा देवी के नेतृत्व में हुआ चिपको आंदोलन: रैणी गांव और उसके आसपास के गांवों के लिए ये जंगल उनकी आजीविका का साधन था. यहीं से वो चूल्हे के लिए लकड़ी लाते तो अपने मवेशियों के लिए चारा भी इसी जंगल से लाते थे. जब वन कटने की खबर आग की तरह फैल गई, तो रैणी गांव की मातृ शक्ति ने महिला मंडल की प्रधान गौरा देवी के नेतृत्व में बैठक की. बैठक में फैसला हुआ कि कुछ भी हो जाए, ठेकेदार को जंगल नहीं काटने देंगे. गौरा देवी के नेतृत्व में महिलाओं के समूह ने को ठेकेदार और उसके मजदूरों को जंगल से बाहर खदेड़ दिया.

महिलाओं के आगे हारा ठेकेदार: रैणी निवासी गौरा देवी और उनके साथ की महिलाओं ने पेड़ों को बचाने के लिए दुनिया का सबसे अनोखा आंदोलन किया. ये महिलाएं पेड़ों से चिपक गईं. अपने जंगल के पेड़ों को अपने आलिंगन में लेकर उन्होंने ठेकेदार के लोगों से कहा- इन पेड़ों को काटने से पहले तुम्हें हम पर अपने कुल्हाड़ी और आरे चलाने होंगे. महिलाओं के इस जबरदस्त प्रतिरोध से ठेकेदार और उसके आदमी डर गए और उल्टे पैर लौट गए.

आंदोलन का नाम चिपको क्यों पड़ा: दरअसल गौरा देवी और उनकी साथी महिलाओं ने अपने बाहें पेड़ों से लिपटा दीं और पेड़ से चिपक गईं. इसीलिए इस आंदोलन को चिपको आंदोलन नाम दे दिया गया. इस आंदोलन की गूंज राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली समेत पूरी दुनिया ने सुनी.

उत्तराखंड में पहली बार महिलाओं ने संभाला मोर्चा: चिपको आंदोलन ने नंदा और गौरा की भूमि देवभूमि उत्तराखंड में पहली बार महिलाओं का अहिंसक और सफल आंदोलन देखा. पेड़ों पर कुल्हाड़ी और आरियों से हिंसा करने आए ठेकेदार के लोग महिलाओं के इस अहिंसक आंदोलन के आगे निरुत्तर हो हार मानकर लौट गए.

दिल्ली तक पहुंची चिपको आंदोलन की गूंज: चिपको आंदोलन की गूंज दिल्ली तक सुनाई दी. रैणी की घटना ने तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार को दिल्ली के वनस्पतिशास्त्री वीरेंद्र कुमार की अध्यक्षता में नौ सदस्यीय समिति गठित करने के लिए मजबूर कर दिया. समिति के सदस्यों में सरकारी शामिल अधिकारी थे. इसमें स्थानीय MLA, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के गोविंद सिंह नेगी और जोशीमठ के ब्लॉक प्रमुख गोविंद सिंह रावत शामिल थे.
ये भी पढ़ें: Chipko Andolan: हार्ट अटैक के बाद भी शकुंतला ने नहीं छोड़ी अपनी 'जमीन', गौरा देवी सम्मान से नवाजी गईं

दो साल बाद आई रिपोर्ट: समिति की रिपोर्ट पूरे दो साल बाद पेश की गई. इसके कारण रैणी में अलकनंदा नदी के ऊपरी क्षेत्र में करीब 1,200 वर्ग किमी के हिस्से में व्यावसायिक वानिकी पर 10 साल का प्रतिबंध लगा दिया गया था. 1985 में प्रतिबंध को 10 साल के लिए बढ़ाया गया था.

देहरादून/चमोली: सन 1973 के शुरुआती दिन थे. चमोली जिले के दशोली इलाके में तत्कालीन उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद स्थित खेल का सामान बनाने वाली कंपनी साइमंड्स को ऐश के पेश काटने से रोका गया. ग्रामीणों ने गोपेश्वर से साठ किमी दूर फाटा रामपुर के जंगलों में साइमंड्स के एजेंटों को पेड़ काटने से रोक दिया.
बाढ़ से तबाह हुआ था इलाका: इससे पहले 1970 में जोशीमठ इलाका अलकनंदा की भीषण बाढ़ से तबाह होकर कराह रहा था. कई साल बाद तक इलाका बाढ़ की तबाही से उबर नहीं पाया था. तभी 1973 में वन विभाग ने जोशीमठ ब्लॉक के रैणी गांव के नजदीक पेंग मुरेंडा जंगल को पेड़ काटने के लिए चुना. ऋषिकेश निवासी ठेकेदार को 680 हेक्टेयर जंगल पौने पांच लाख रुपए में नीलामी में दिया गया.

गौरा देवी के नेतृत्व में हुआ चिपको आंदोलन: रैणी गांव और उसके आसपास के गांवों के लिए ये जंगल उनकी आजीविका का साधन था. यहीं से वो चूल्हे के लिए लकड़ी लाते तो अपने मवेशियों के लिए चारा भी इसी जंगल से लाते थे. जब वन कटने की खबर आग की तरह फैल गई, तो रैणी गांव की मातृ शक्ति ने महिला मंडल की प्रधान गौरा देवी के नेतृत्व में बैठक की. बैठक में फैसला हुआ कि कुछ भी हो जाए, ठेकेदार को जंगल नहीं काटने देंगे. गौरा देवी के नेतृत्व में महिलाओं के समूह ने को ठेकेदार और उसके मजदूरों को जंगल से बाहर खदेड़ दिया.

महिलाओं के आगे हारा ठेकेदार: रैणी निवासी गौरा देवी और उनके साथ की महिलाओं ने पेड़ों को बचाने के लिए दुनिया का सबसे अनोखा आंदोलन किया. ये महिलाएं पेड़ों से चिपक गईं. अपने जंगल के पेड़ों को अपने आलिंगन में लेकर उन्होंने ठेकेदार के लोगों से कहा- इन पेड़ों को काटने से पहले तुम्हें हम पर अपने कुल्हाड़ी और आरे चलाने होंगे. महिलाओं के इस जबरदस्त प्रतिरोध से ठेकेदार और उसके आदमी डर गए और उल्टे पैर लौट गए.

आंदोलन का नाम चिपको क्यों पड़ा: दरअसल गौरा देवी और उनकी साथी महिलाओं ने अपने बाहें पेड़ों से लिपटा दीं और पेड़ से चिपक गईं. इसीलिए इस आंदोलन को चिपको आंदोलन नाम दे दिया गया. इस आंदोलन की गूंज राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली समेत पूरी दुनिया ने सुनी.

उत्तराखंड में पहली बार महिलाओं ने संभाला मोर्चा: चिपको आंदोलन ने नंदा और गौरा की भूमि देवभूमि उत्तराखंड में पहली बार महिलाओं का अहिंसक और सफल आंदोलन देखा. पेड़ों पर कुल्हाड़ी और आरियों से हिंसा करने आए ठेकेदार के लोग महिलाओं के इस अहिंसक आंदोलन के आगे निरुत्तर हो हार मानकर लौट गए.

दिल्ली तक पहुंची चिपको आंदोलन की गूंज: चिपको आंदोलन की गूंज दिल्ली तक सुनाई दी. रैणी की घटना ने तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार को दिल्ली के वनस्पतिशास्त्री वीरेंद्र कुमार की अध्यक्षता में नौ सदस्यीय समिति गठित करने के लिए मजबूर कर दिया. समिति के सदस्यों में सरकारी शामिल अधिकारी थे. इसमें स्थानीय MLA, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के गोविंद सिंह नेगी और जोशीमठ के ब्लॉक प्रमुख गोविंद सिंह रावत शामिल थे.
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दो साल बाद आई रिपोर्ट: समिति की रिपोर्ट पूरे दो साल बाद पेश की गई. इसके कारण रैणी में अलकनंदा नदी के ऊपरी क्षेत्र में करीब 1,200 वर्ग किमी के हिस्से में व्यावसायिक वानिकी पर 10 साल का प्रतिबंध लगा दिया गया था. 1985 में प्रतिबंध को 10 साल के लिए बढ़ाया गया था.

Last Updated : Mar 27, 2023, 1:48 PM IST
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