चमोली: जनपद का सुदूरवर्ती घेस गांव 2018 में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के दौरे के बाद से लगातार सुर्खियों में है. कभी मटर की खेती तो कभी इंटरनेट के कारण घेस गांव लगातार चर्चाओं में चल रहा है. घेस गांव में डिजिटल इंडिया का जो ढोल पीटा गया है, उसकी हकीकत जानने जब हमारी टीम गांव पहुंची तो हकीकत सामने आ गई. साल 2018 में इंटरनेट की दुनिया से जुड़ा घेस गांव अभी भी टेक्नोलॉजी की दुनिया से कोसों दूर है.
साल 2018 में वाई-फाई चौपाल के जरिए घेस गांव में संचार क्रांति लाने के लिए मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की सराहनीय पहल शुरू की गई थी जो फिलहाल दम तोड़ती नजर आती है. आलम ये है कि गांव में लगे वाई-फाई टॉवर और सेट-अप महज शोपीस बने हुए हैं. ग्रामीणों को आज भी तीन किलोमीटर दूर जाकर सिग्नल खोजने पड़ते हैं. घेस गांव में वाई-फाई योजना का दम घुटने की एक बड़ी वजह ये भी है कि यहां वाई-फाई चौपाल के संसाधनों की देख-रेख करने वाला कोई नहीं है.
नतीजन कभी वाई-फाई के एंटीना से छेड़छाड़ तो कभी बैटरियां ही गुम या खराब हो जाती हैं. जिसके चलते ग्रामीण इंटरनेट की दुनिया से महरूम रह जाते हैं. देख-रेख के अभाव में घेस गांव में न तो ई-क्लासेस का सपना साकार हो पा रहा है और न ही डिजिटल विलेज बनाने की मुहिम को अमलीजामा पहनाया जा रहा है.
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मुख्यमंत्री रावत की इस योजना पर बदइंतजामी का जो पलीता लगा है, उससे कैसे ये गांव अपोलो अस्पताल से जुड़कर टेलीमेडिसिन का लाभ ले सकेगा ये भी एक बड़ा सवाल बना हुआ है? बहरहाल, इस गांव की हकीकत देखकर तो यही लगता है कि 21वीं सदी के भारत में घेस गांव आज भी कनेक्टिविटी से कोसों दूर है. वाई-फाई के नाम पर ग्रामीण खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं.
ग्रामीणों का कहना है कि जब हमारे पास स्मार्ट फोन ही नहीं है तो इस डिजिटल विलेज से हमें क्या फायदा? कुछ लोगों के पास स्मार्ट फोन हैं लेकिन वो गांव भर में नेटवर्क ही खोजते रहते हैं. उनका कहना है कि केवल चुनाव के समय ही क्षेत्र में नेटवर्क मिल पाता है. कभी क्षेत्र में नेताओं का दौरा होता है तो गांव में नेटवर्क भी आ जाता है. बाकी समय नेटवर्क खोजने पड़ते हैं.