देहरादून: 'जो जाए बदरी, वो ना आए ओदरी'...इसका अर्थ है कि जो व्यक्ति बदरीनाथ के दर्शन कर लेता है उसे फिर माता के उदर यानी गर्भ में फिर नहीं आना पड़ता. शास्त्रों में बताया गया है कि मनुष्य को जीवन में कम से कम एक बार बदरीनाथ के दर्शन जरूर करना चाहिए. बदरी विशाल को लेकर कई कहानियां और मान्यताएं प्रचलित हैं. ऐसी ही कुछ कहानियों से हम आपको रूबरू करवाते हैं.
अलकनंदा नदी के किनारे नर नारायण की गोद में बसा है बदरी नारायण मंदिर. चारधाम यात्रा में सबसे अंत में बदरीनाथ के दर्शन होते हैं. नर और नारायण पर्वत के बीच बसे इस मंदिर के दर्शन के बाद ही चारधाम यात्रा सफल मानी जाती है. कहते हैं यहां पर भगवान विष्णु के अंश नर और नारायण ने तपस्या की थी. नर अगले जन्म में अर्जुन और नारायण श्रीकृष्ण हुये.
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पौराणिक मान्यता
कहते हैं जब गंगा धरती पर अवतरित हुईं तो पृथ्वी उनका प्रबल वेग सहन न कर सकी. गंगा की धारा बारह जल मार्गों में विभक्त हुई. उसमें से एक है अलकनंदा का उद्गम. यही स्थल भगवान विष्णु का निवास स्थान बना और बदरीनाथ कहलाया.
एक अन्य मान्यता है कि प्राचीन काल में यह स्थल जंगली बेरों से भरा रहने के कारण बदरी वन भी कहलाता था. कहते हैं यहीं एक गुफा में वेदव्यास ने महाभारत लिखी थी और पांडवों के स्वर्ग जाने से पहले यही अंतिम पड़ाव था, जहां वो रुके थे.
कैसे पड़ा बदरीनाथ नाम
बदरी वन से जुड़ी ही एक कहानी है जो बदरीनाथ के नामकरण से संबंध रखती है. दरअसल, एक बार देवी लक्ष्मी जब भगवान विष्णु से रूठकर अपने मायके चली गईं तब विष्णु यहां आकर तपस्या करने लगे. जब देवी लक्ष्मी की नाराजगी दूर हुई तो भगवान विष्णु को ढूंढते हुए इस स्थान पर पहुंचीं.
जब भगवान विष्णु योगध्यान मुद्रा में तपस्या में लीन थे तो बहुत अधिक हिमपात होने लगा. भगवान विष्णु बर्फ में पूरी तरह डूब चुके थे. उनकी इस दशा को देख कर माता लक्ष्मी का हृदय द्रवित हो उठा और उन्होंने भगवान विष्णु के समीप खड़े होकर एक बेर (बदरी) के वृक्ष का रूप ले लिया और सारे हिम को अपने ऊपर सहने लगीं. लक्ष्मीजी भगवान विष्णु को धूप, वर्षा और हिम से बचाने की कठोर तपस्या में जुट गयीं.
कई वर्षों बाद जब भगवान विष्णु ने अपना तप पूर्ण किया तो देखा कि लक्ष्मीजी हिम से ढकी हैं तो उन्होंने माता लक्ष्मी के तप को अपने तप के समान स्थान देकर कहा कि आज से इस धाम में उनके साथ लक्ष्मी जी को भी पूजा जायेगा. और क्योंकि लक्ष्मी ने विष्णु की रक्षा बदरी वृक्ष के रूप में की थी तो विष्णु को बदरी के नाथ-बदरीनाथ के नाम से जाना जायेगा. इस तरह से भगवान विष्णु का नाम बदरीनाथ पड़ा.
भगवान विष्णु ने जहां तप किया था, वही पवित्र-स्थल आज तप्त-कुण्ड के नाम से विख्यात है और उनके तप के रूप में आज भी उस कुण्ड में हर मौसम में गर्म पानी उपलब्ध रहता है.
क्या कहती हैं लोक कथाएं
पौराणिक कथाओं के अनुसार यहां नीलकंठ पर्वत के समीप भगवान विष्णु ने बाल रूप में अवतरण लिया था. यह स्थान पहले शिव भूमि (केदार भूमि) के रूप में व्यवस्थित था. भगवान विष्णु अपने ध्यानयोग के लिये स्थान खोज रहे थे और उन्हें अलकनंदा नदी के समीप यह स्थान बहुत भा गया.
उन्होंने वर्तमान चरणपादुका स्थल पर (नीलकंठ पर्वत के समीप) ऋषि गंगा और अलकनंदा नदी के संगम के समीप बाल रूप में अवतरण किया और रोने लगे. उनका रोना सुन माता पार्वती का हृदय पिघल गया. माता पार्वती और शिवजी उस बालक के पास पहुंचे. माता ने पूछा कि बालक तुम्हें क्या चहिये? तो बालक ने ध्यानयोग करने के लिये वह स्थान उनसे मांग लिया. यही पवित्र स्थान आज बदरीविशाल के नाम से जाना जाता है.
मान्यता है कि बदरीनाथ में ही भगवान शिव को ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति मिली थी. मंदिर के पास ही एक ऊंची शिला है जिसे ब्रह्म कपाल के नाम से जाना जाता है. इसी शिला पर पितरों का तर्पण श्राद्ध किया जाता है. माना जाता है कि यहां श्राद्घ करने से पितरों को मुक्ति मिल जाती है.