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विश्व प्रसिद्ध नंदा लोकजात यात्रा का आगाज, हिमालय के लिए रवाना हुईं डोलियां

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Published : Aug 22, 2022, 6:40 PM IST

Updated : Aug 22, 2022, 6:47 PM IST

सिद्धपीठ नंदाधाम कुरुड़ से विश्व प्रसिद्ध नंदा लोकजात यात्रा की शुरुआत हो गई है. नंदा देवी की डोलियों को हिमालय की ओर विदा करते वक्त ग्रामीणों का हुजूम उमड़ पड़ा. ये लोकजात यात्रा वेदनी कुंड और बालपाटा में नंदा सप्तमी को संपन्न होगी.

Nanda Lokjat Yatra
नंदा लोकजात यात्रा

चमोलीः सिद्धपीठ कुरुड़ मंदिर से मां नंदा देवी की डोली हिमालय के लिए रवाना हो गई है. 3 सितंबर को डोली वेदनी कुंड और बालापाटा बुग्याल पहुंचेगी. जहां मां नंदा की पूजा अर्चना के बाद नंदा देवी लोकजात यात्रा का समापन होगा.

चमोली के घाट विकासखंड स्थित सिद्धपीठ कुरुड़ मंदिर (Kurud temple Chamoli) से मां नंदा देवी की डोली कैलाश के लिए विदा हुई. हर साल आयोजित होने वाली मां नंदा देवी लोकजात यात्रा की शुरुआत सोमवार को हुई. कई पड़ावों को पार करने के बाद मां नंदा की देव डोलियां 3 सितंबर को वेदनी कुंड और बालापाटा बुग्याल पहुंचेगी. जहां मां नंदा की पूजा अर्चना के बाद नंदा देवी लोकजात यात्रा का समापन होगा.

मां नंदा देवी की डोली हिमालय के लिए रवाना.

वहीं, नंदा सप्तमी के दिन कैलाश में मां नंदा देवी की पूजा अर्चना के साथ लोकजात का विधिवत समापन होगा. जिसके बाद नंदा राजराजेश्वरी की देव डोली 6 माह के लिए अपने ननिहाल थराली के देवराडा में निवास करेगी. जबकि, नंदा देवी की डोली बालापाटा में लोकजात संपन्न होने के बाद सिद्धपीठ कुरुड़ मंदिर में ही श्रदालुओं को दर्शन देगी.

ये भी पढ़ेंः इस मंदिर में आज भी लिखी जाती हैं चिट्ठियां, गोल्ज्यू देवता करते हैं 'न्याय'

नंदा देवी राजजात यात्रा और नंदा लोकजात यात्रा में अंतरः बता दें कि 12 साल के अंतराल पर कुरुड़ मंदिर से ही नंदा देवी राजजात यात्रा (Nanda Devi Raj Jat Yatra) का आयोजन होता है. जबकि, हर साल नंदादेवी लोकजात यात्रा (Nanda Lokjat Yatra) का आयोजन किया जाता है. नंदा धाम कुरुड़ मां नंदा का मायका है. जहां नंदा देवी का प्राचीन मंदिर और दुर्गा मां की पत्थर की स्वयंभू शिलामूर्ति मौजूद है.

नंदा देवी राजजात यात्रा का महत्व: 7वीं शताब्दी में गढ़वाल के राजा शालिपाल ने राजधानी चांदपुर गढ़ी से देवी श्रीनंदा को 12वें वर्ष में मायके से कैलाश भेजने की परंपरा शुरू की थी. राजा कनकपाल ने इस यात्रा को भव्य रूप दिया. इस परंपरा का निर्वहन 12 वर्ष या उससे अधिक समय के अंतराल में गढ़वाल राजा के प्रतिनिधि कांसुवा गांव के राज कुंवर, नौटी गांव के राजगुरु नौटियाल ब्राह्मण समेत 12 थोकी ब्राह्मण और चौदह सयानों के सहयोग से होता है.

ये भी पढ़ेंः रहस्यमयी है देवभूमि का लाटू देवता मंदिर, केवल 8 महीने होती है पूजा

कथा के अनुसार, नंदा के मायके वाले नंदा को कैलाश विदा करने जाते थे और फिर वापस लौटते थे. भगवान शिव नंदा के पति हैं. यह राजजात यात्रा बारह साल में एक बार होती थी. इससे जाहिर होता है‍ कि नंदा अपने मायके हर बारह साल में आती थीं. यह परंपरा पौराणिक काल से चली आ रही है और आज भी पहाड़ के लोग इस पर्व को धूमधाम से मनाते हैं. इससे पहले यह राज जात यात्रा साल 2014 में हुई थी.

यात्रा में चौसिंगा खाडू का महत्वः चौसिंगा खाड़ू (चार सींग वाला काले रंग का भेड़) नंदा राजजात की अगुवाई करता है. मनौती के बाद पैदा हुए चौसिंगा खाड़ू को ही यात्रा में शामिल किया जाता है. राजजात के शुभारंभ पर नौटी में विशेष पूजा-अर्चना के साथ इस खाड़ू की पीठ पर फांची (पोटली) बांधी जाती है, जिसमें मां नंदा की श्रृंगार सामग्री सहित देवी भक्तों की भेंट होती है. खाड़ू पूरी यात्रा की अगुवाई करता है.

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सिद्धपीठ नौटी में भगवती नंदादेवी की स्वर्ण प्रतिमा पर प्राण प्रतिष्ठा के साथ रिंगाल की पवित्र राज छंतोली और चार सींग वाले भेड़ (खाड़ू) की विशेष पूजा की जाती है. कांसुवा के राजवंशी कुंवर यहां यात्रा के शुभारंभ और सफलता का संकल्प लेते हैं. मां भगवती को देवी भक्त आभूषण, वस्त्र, उपहार, मिष्ठान आदि देकर हिमालय के लिए विदा करते हैं.

यात्रा के पड़ावः यात्रा का शुभारंभ स्थल नौटी है. नौटी से शुरू होने वाली नंदादेवी राजजात में 20 पड़ाव हैं. इसमें बाण तक ग्रामीण अंचल हैं. नौटी से लेकर बाण तक भक्त गांवों की परंपरा से भी अवगत हो सकेंगे. असली यात्रा बाण गांव के बाद होती है. इस गांव के बाद यात्रा घने जंगलों के बीच से बढ़ती है. रोमांच से भरी यह यात्रा प्राकृतिक सौंदर्य से भी भक्तों को रूबरू करवाती है. नंदादेवी राजजात यात्रा के पड़ावों में वेदनी बुग्याल, वेदनी कुंड, राज्यपुष्प ब्रह्मकल और राज्य पक्षी मोनाल सहित अनेक जड़ी-बूटियां देखने को मिलते हैं.

कब-कब हुई नंदा राजजात यात्राः राजजात समिति के अभिलेखों के अनुसार, हिमालयी महाकुंभ नंदा देवी राजजात यात्रा साल 1843, 1863, 1886, 1905, 1925, 1951, 1968, 1987, 2000 और 2014 में आयोजित हो चुकी है. साल 1951 में मौसम खराब होने के कारण राजजात पूरी नहीं हो पाई थी. जबकि, साल 1962 में मनौती के छह वर्ष बाद साल 1968 में राजजात हुई.

चमोलीः सिद्धपीठ कुरुड़ मंदिर से मां नंदा देवी की डोली हिमालय के लिए रवाना हो गई है. 3 सितंबर को डोली वेदनी कुंड और बालापाटा बुग्याल पहुंचेगी. जहां मां नंदा की पूजा अर्चना के बाद नंदा देवी लोकजात यात्रा का समापन होगा.

चमोली के घाट विकासखंड स्थित सिद्धपीठ कुरुड़ मंदिर (Kurud temple Chamoli) से मां नंदा देवी की डोली कैलाश के लिए विदा हुई. हर साल आयोजित होने वाली मां नंदा देवी लोकजात यात्रा की शुरुआत सोमवार को हुई. कई पड़ावों को पार करने के बाद मां नंदा की देव डोलियां 3 सितंबर को वेदनी कुंड और बालापाटा बुग्याल पहुंचेगी. जहां मां नंदा की पूजा अर्चना के बाद नंदा देवी लोकजात यात्रा का समापन होगा.

मां नंदा देवी की डोली हिमालय के लिए रवाना.

वहीं, नंदा सप्तमी के दिन कैलाश में मां नंदा देवी की पूजा अर्चना के साथ लोकजात का विधिवत समापन होगा. जिसके बाद नंदा राजराजेश्वरी की देव डोली 6 माह के लिए अपने ननिहाल थराली के देवराडा में निवास करेगी. जबकि, नंदा देवी की डोली बालापाटा में लोकजात संपन्न होने के बाद सिद्धपीठ कुरुड़ मंदिर में ही श्रदालुओं को दर्शन देगी.

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नंदा देवी राजजात यात्रा और नंदा लोकजात यात्रा में अंतरः बता दें कि 12 साल के अंतराल पर कुरुड़ मंदिर से ही नंदा देवी राजजात यात्रा (Nanda Devi Raj Jat Yatra) का आयोजन होता है. जबकि, हर साल नंदादेवी लोकजात यात्रा (Nanda Lokjat Yatra) का आयोजन किया जाता है. नंदा धाम कुरुड़ मां नंदा का मायका है. जहां नंदा देवी का प्राचीन मंदिर और दुर्गा मां की पत्थर की स्वयंभू शिलामूर्ति मौजूद है.

नंदा देवी राजजात यात्रा का महत्व: 7वीं शताब्दी में गढ़वाल के राजा शालिपाल ने राजधानी चांदपुर गढ़ी से देवी श्रीनंदा को 12वें वर्ष में मायके से कैलाश भेजने की परंपरा शुरू की थी. राजा कनकपाल ने इस यात्रा को भव्य रूप दिया. इस परंपरा का निर्वहन 12 वर्ष या उससे अधिक समय के अंतराल में गढ़वाल राजा के प्रतिनिधि कांसुवा गांव के राज कुंवर, नौटी गांव के राजगुरु नौटियाल ब्राह्मण समेत 12 थोकी ब्राह्मण और चौदह सयानों के सहयोग से होता है.

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कथा के अनुसार, नंदा के मायके वाले नंदा को कैलाश विदा करने जाते थे और फिर वापस लौटते थे. भगवान शिव नंदा के पति हैं. यह राजजात यात्रा बारह साल में एक बार होती थी. इससे जाहिर होता है‍ कि नंदा अपने मायके हर बारह साल में आती थीं. यह परंपरा पौराणिक काल से चली आ रही है और आज भी पहाड़ के लोग इस पर्व को धूमधाम से मनाते हैं. इससे पहले यह राज जात यात्रा साल 2014 में हुई थी.

यात्रा में चौसिंगा खाडू का महत्वः चौसिंगा खाड़ू (चार सींग वाला काले रंग का भेड़) नंदा राजजात की अगुवाई करता है. मनौती के बाद पैदा हुए चौसिंगा खाड़ू को ही यात्रा में शामिल किया जाता है. राजजात के शुभारंभ पर नौटी में विशेष पूजा-अर्चना के साथ इस खाड़ू की पीठ पर फांची (पोटली) बांधी जाती है, जिसमें मां नंदा की श्रृंगार सामग्री सहित देवी भक्तों की भेंट होती है. खाड़ू पूरी यात्रा की अगुवाई करता है.

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सिद्धपीठ नौटी में भगवती नंदादेवी की स्वर्ण प्रतिमा पर प्राण प्रतिष्ठा के साथ रिंगाल की पवित्र राज छंतोली और चार सींग वाले भेड़ (खाड़ू) की विशेष पूजा की जाती है. कांसुवा के राजवंशी कुंवर यहां यात्रा के शुभारंभ और सफलता का संकल्प लेते हैं. मां भगवती को देवी भक्त आभूषण, वस्त्र, उपहार, मिष्ठान आदि देकर हिमालय के लिए विदा करते हैं.

यात्रा के पड़ावः यात्रा का शुभारंभ स्थल नौटी है. नौटी से शुरू होने वाली नंदादेवी राजजात में 20 पड़ाव हैं. इसमें बाण तक ग्रामीण अंचल हैं. नौटी से लेकर बाण तक भक्त गांवों की परंपरा से भी अवगत हो सकेंगे. असली यात्रा बाण गांव के बाद होती है. इस गांव के बाद यात्रा घने जंगलों के बीच से बढ़ती है. रोमांच से भरी यह यात्रा प्राकृतिक सौंदर्य से भी भक्तों को रूबरू करवाती है. नंदादेवी राजजात यात्रा के पड़ावों में वेदनी बुग्याल, वेदनी कुंड, राज्यपुष्प ब्रह्मकल और राज्य पक्षी मोनाल सहित अनेक जड़ी-बूटियां देखने को मिलते हैं.

कब-कब हुई नंदा राजजात यात्राः राजजात समिति के अभिलेखों के अनुसार, हिमालयी महाकुंभ नंदा देवी राजजात यात्रा साल 1843, 1863, 1886, 1905, 1925, 1951, 1968, 1987, 2000 और 2014 में आयोजित हो चुकी है. साल 1951 में मौसम खराब होने के कारण राजजात पूरी नहीं हो पाई थी. जबकि, साल 1962 में मनौती के छह वर्ष बाद साल 1968 में राजजात हुई.

Last Updated : Aug 22, 2022, 6:47 PM IST
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