देहरादूनः उत्तराखंड के जंगलों में बदनाम चीड़ सरकारों के लिए कितना फायदेमंद है शायद इसका अंदाजा चीड़ की आलोचना करने वाले लोगों को नहीं होगा. पिछले लंबे समय से उत्तराखंड के जंगलों में वनाग्नि को धधकाने वाले चीड़ को लेकर लोगों का यह मानना है कि चीड़ उत्तराखंड के जगंलों के लिए अभिशाप है. लेकिन हम आपको बतातें है कि खलनायक के रुप में देखे जाने वाला ये चीड़ कैसे हर साल हजारों लोगों को रोजगार के साथ-साथ करोड़ों का राजस्व सरकार को देता है.
यही वजह है कि उत्तराखंड सरकार ने लगातार बदनाम होते चीड़ के पक्ष में खड़े होकर चीड़ से बिजली बनाने की कवायद शुरू की है. क्या है चीड़ की भूमिका हमारे उत्तराखंड में जानिए इस रिपोर्ट में.
देवभूमि उत्तराखंड के 71.50 भूभाग क्षेत्र में फैले हिमालयी वनों की कल्पना चीड़ के बिना करना एक अधूरी तस्वीर होगी, क्योंकि हिमालयी सदाबहार शंकूधारी वनों में एक बेहतरीन पेड़ है चीड़.
हिमालयी प्रकृति की सुंदरता में चीड़ एक अलग ही पहचान रखता है, लेकिन साल दर साल लगातार बढ़ रही वनाग्नि में चीड़ की भूमिका को देखते हुए हिमालयी बसावटों ने चीड़ के प्रति एक हीन भावना पैदा की है.
हिमालयी क्षेत्र और उत्तराखंड के जंगली इलाकों से सटे लोगों को लगता है कि चीड़ का पेड़ जंगल में आग भड़काने के अलावा और किसी काम का नहीं है.
यहां तक कि पहाड़ी क्षेत्र के लोगों में उत्तराखंड के जंगलों में मौजूद चीड़ को हटाने को लेकर सामूहिक विरोध भी जगह होने लगा है.
हिमालयी वनों में चीड़ की मौजूदगी प्रकृति का फैसला है और जंगल से चीड़ को हटाना प्रकृति के साथ खिलवाड़ होगा, लेकिन ऐसे माहौल में हमें प्रकृति को समझने की जरूरत है.
जिस प्रकृति ने आदमजात को आज इस कदर विकसित कर दिया है कि उस प्रकृति पर भरोसा करके हमें चीड़ को अभिशाप नहीं बल्कि वरदान के रूप में देखना चाहिए और यही वजह है कि हर साल चीड़ से करोड़ों कमा रही उत्तराखंड सरकार ने बदनाम होते चीड़ को लेकर कुछ ऐसी कवायद की है जो उत्तराखंड में बदनाम होती चीड़ की इस भूमिका को बदलने में अग्रसर है.
हर साल चीड़ से मिलता है करोड़ों का राजस्व
उत्तराखंड के जगलों में बदनाम चीड़ एक वन उत्पाद भी है. चीड़ के पेड़ से निकलने वाले लीसा से हर साल सरकार को करोड़ों का राजस्व मिलता है. हिमालयी क्षेत्र में 1,000 मीटर ऊंचाई के सभी इलाकों में चीड़ की मौजूदगी के कारण लीसा की बहुतायत मात्रा पायी जाती है और तकरीबन 71 फीसदी वन क्षेत्र में 18 फीसदी केवल चीड़ का जंगल है, जिसमें हर साल लाखों क्विंटल लीसा निकलता है.
चीड़ के जंगल से लीसा निकालने का यह काम ग्रामीण या फिर स्थानीय स्वयंसेवी सस्थाएं करती हैं. हर साल सरकार को करोड़ों के राजस्व के साथ-साथ राज्य के तकरीबन 5 से 6 हजार लोगों का भी रोजगार भी चीड़ से निकलने वाले लीसे से जुड़ा हुआ है.
उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊं रीजन में लीसा के संवर्धन के लिए बड़े डिपो बनाए गये हैं. जिनमें गढ़वाल क्षेत्र में 2 डिपो और कुमाऊं क्षेत्र में 4 डिपो में पूरे राज्य भर का लीसा भण्डारण का काम करता है. गढ़वाल क्षेत्र में ऋषिकेश और कोटद्वारा लीसा के बड़े डिपो हैं.
आइए आपको बताते हैं पिछले तीन सालों में कितना लीसा उत्पादित किया गया और इससे कितना राजस्व राज्य को मिला है.
- वर्ष 2016 में उत्पादित लीसा-11,0503 क्विंटल
- वर्ष 2016 में उत्पादित लीसा से अर्जित राजस्व- 40 करोड़
- वर्ष 2017 में उत्पादित लीसा- 88,530 क्विंटल
- वर्ष 2017 में उत्पादित लीसा से अर्जित राजस्व- 50 करोड़
- वर्ष 2018 में उत्पादित लीसा- 73,342 क्विंटल,
- वर्ष 2018 में उत्पादित लीसा से अर्जित राजस्व-51 करोड़
लीसा संवर्धन पर सरकार का जोर
उत्तराखंड में चीड़ के संवर्धन को लेकर पिछले सालों में विभागों की हीलाहवाली का ये असर है कि लीसा का अतिरिक्त भंडारण डिपो में हुआ और लीसा की खपत कम हुई, लेकिन पिछले साल से लीसा उत्पादित करने से ज्यादा इसकी खपत पर ध्यान दिया गया.
जिसके लिए लगातार राज्य में मौजूद इंडस्ट्रियों को लीसा की नीलामी के लिए बुलाया गया और इस तरह से राज्य के लीसा डिपो में अत्यधिक मात्रा में मौजूद लीसा को नीलाम कर उसे राजस्व के रूप में परिवर्तित किया गया और आज की तारीख में सभी डिपो में मिलाकर 1 लाख क्विंटल ही लीसा शेष बचा है जो कि आचार संहिता हटते ही नीलाम कर दिया जाएगा.
चीड़ से निकलने वाले लीसा की नीलामी में कई तरह की समस्याएं भी आड़े आती हैं, जिसके बाद अब वन विभाग लीसा की नीलामी के लिए हर तरह का संभव प्रयास कर रहा है.
ज्यादा समय तक और बड़ी मात्रा में लीसा के भंडारण से राजस्व नुकसान के साथ-साथ आग लगने और इसके देख-रेख की अतिरिक्त जिम्मेदारी होती है जिसको देखते हुए वन विभाग की कोशिश है कि लीसे का संवर्धन जल्द से जल्द हो सके.
लीसा की कालाबाजारी एक चुनौती
उत्तराखंड के जंगलों में बहुतायात पाया जाने वाले चीड़ से निकलने वाला लीसा पर कालाबाजारी की भी अच्छी खासी पकड़ है. लंबे समय से विभागीय हीलाहवाली और कुछ भ्रष्ट कर्मचारियों के चलते लीसे के धंधे में कालाबाजारी ने भी अपने पैर जमाने के प्रयास किये हैं, हालांकि अब वन विभाग द्वारा लीसा की कालाबाजारी को लेकर कड़े कदम उठाए गये हैं.
खास तौर से उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के पहाड़ी इलाकों से लीसा के कालाबाजारी की खबरें आती रहीं हैं लेकिन पिछले कुछ सालों से इस तरह की खबरों पर विराम है और वन विभाग लीसा संवर्धन को लेकर खासा गंभीर नजर आ रहा है.
लीसा एक वन उत्पाद है और इस पर पूरी तरह से वन विभाग का अधिकार है. किसी भी व्यक्ति को लीसा की खरीद फरोक्त की अनुमति नहीं है.
लीसा कहां होता है इस्तेमाल और कितनी है खपत
उत्तराखंड में लीसा का बहुत बड़ा बाजार है. चीड़ के पेड़ से निकलने वाले लीसे से तारपिन तेल, रोजन ऑयल सहित तमाम तरह के बायोप्रोडक्ट चीड़ के पेड़ से प्राप्त होते हैं.
उत्तराखंड में पेंट, तारपिन और लीसे से जुड़ी तकरीबन 147 इंडस्ट्रीज मौजूद हैं जो कि लीसे से बने बायोप्रोडक्ट का इस्तेमाल करती हैं.
उत्तराखंड में मौजूद इन सभी इंडस्ट्रीज की वार्षिक खपत तकरीबन 6 लाख कुंटल है, जिसमें उत्तराखंड वन विभाग 15 से 30 फीसदी ही संवर्धित कर पाता है.
इससे साफ पता चलता है कि उत्तराखंड में चीड़ से निकलने वाले बायोप्रोडक्ट के बाजार की कमी नहीं है. बस जरूरत है व्यवस्थाओं, संसाधन और नीति नियंताओं के दृढ निश्चय की.
आयुर्वेद में भी चीड़ के औषधीय गुण
- चीड़ के औषधीय गुणों से पहाड़वासी प्राचीन काल से अवगत हैं. चीड़ के निकलने वाले लीसे से जिसे आयुर्वेद की भाषा में गंधविरोजा भी कहा जाता है उसका क्वाथ बनाकर कुल्ला करने से मुंह के छालों से राहत मिलती है.
- चीड़ के तेल से छाती पर मालिश करने से स्वास और खांसी में लाभ मिलता है.
- आयुर्वेद के अनुसार चीड़ के पेड़ से निकलने वाला लीसा एंटीबायोटिक होता है और इससे घाव जल्दी भरता है और घाव में पश नहीं भरता है.
- गर्मियों में शरीर पर होने वाली फुंसियों पर चीड़ का तेल लगाने से बहुत जल्दी राहत मिलती है.
- शरीर में किसी भी हिस्से में मोच आने पर सरसों के साथ बराबर मात्रा में चीड़ का तेल मिलाने से जल्द राहत मिलती है
चीड़ को बचाने के लिए सरकार लाई है पेरुल नीति
राज्य में चीड़ को लेकर लगातार उठ रहे सवालों के बाद चीड़ को लेकर सरकार ने नये विकल्प तलाशे हैं. दरसल चीड़ के आस-पास बाकी और कोई वनस्पति नहीं उग पाती है और चीड़ की गिरी हुई पत्तियों से जंगलों में लगने वाली आग कई गुना ज्यादा रफ्तार से बढ़ती और फैलती है.
साथ ही चीड़ के पेड़ पर लगी आग कई दिनों तक बुझती नहीं है. इन सभी कारणों की वजह से स्थानीय लोग चीड़ से इतनी नफरत करते हैं लेकिन उत्तराखंड सरकार ने चीड़ की दुश्मन इसकी पत्तियों को ही एक विकल्प के रुप में बदल दिया है.
सरकार ने चीड़ के पत्तियों से बिजली बनाने की योजना राज्य में उतारी है जिसके जरिये स्थानीय लोग चीड़ की इन्हीं पत्तियों को एकत्रित कर चीड़ के पेरुल से बिजली बनाने का काम करेंगे और सरकार इस बिजली को खरीदेगी.
जिसके बाद जंगल के लिए अभिशाप चीड़ की पत्तियां स्थानीय लोगों के लिए रोजगार और कमाई का एक विकल्प बनकर सामने होगी.