अल्मोड़ा: ताकुला विकासखंड के विजयपुर पाटिया क्षेत्र में गोवर्धन पूजा (Govardhan Puja in Vijaypur Patiya area) के दिन पाषाण युद्ध (Stone war is played on Govardhan Puja) खेला जाता है. यहां चंपावत के देवीधुरा की तर्ज पर ऐतिहासिक पाषाण युद्ध यानि बग्वाल खेली जाती है. पाषाण युद्ध की प्रथा (stone war practice) यहां सदियों से चली आ रही है. इस पाषाण युद्ध में दो गुट पचघटिया नदी के दोनों किनारों पर खड़े होकर एक दूसरे के ऊपर जमकर पत्थर बरसाते हैं. इस पाषाण युद्ध में जो भी दल का सदस्य पहले नदी में उतरकर पानी पी लेता है, वह दल विजयी हो जाता है.
आज गोवर्धन पूजा के मौके पर पचघटिया नदी के दोनों छोरों पर खड़े होकर पाटिया और कोटयूडा गांव के लोगों ने जमकर एक दूसरे पर पत्थर बरसाए. इस युद्ध में पाटिया और भटगांव के लड़ाकों ने पचघटिया नदी का पानी पीकर विजय हासिल किया. यह युद्ध करीब आधे घंटे तक चला.
विजयपुर पाटिया क्षेत्र के पचघटिया में खेले जाने वाले इस युद्ध में पाटिया, भटगांव, कसून, पिल्खा और कोटयूड़ा के ग्रामीणों ने हिस्सा लिया. जिसमें पाटिया और भटगांव एक तरफ तो दूसरी तरफ कसून, कोटयूडा और पिल्खा के ग्रामीण शामिल थे. आज इस पत्थर युद्ध मे चारों खामों के 4 लड़ाके घायल हुए.
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इस युद्ध को देखने के लिए क्षेत्र के दर्जनों गांवों के लोग आते हैं. पाषाण युद्ध का आगाज पाटिया गांव के मैदान में गाय की पूजा के साथ हुआ. इस पाषाण युद्ध का आगाज बाकायदा ढोल नगाड़ों के साथ किया जाता है. जिससे योद्धाओं में जोश भरा जाता है. इस पाषाण युद्ध की सबसे बड़ी खासियत यह है कि युद्ध के दौरान पत्थरों से चोटिल होने वाले योद्धा किसी दवा का इस्तेमाल नहीं करते हैं, बल्कि बिच्छू घास और उस स्थान की मिट्टी लगाने से वह तीन दिन बाद ठीक हो जाता है.
पाषाण युद्ध कब से शुरू हुआ और क्यों किया जाता है, इसके बारे में कोई सटीक इतिहास की जानकारी तो नहीं है, लेकिन स्थानीय लोगों की मान्यता है कि जब अल्मोड़ा क्षेत्र में चंद वंशीय राजाओं का शासन था. उस वक्त कोई बाहरी लुटेरा राजा इन गांवों में आकर लोगों से लूटपाट कर करता था. उससे परेशान होकर एक दिन इन 5 गांवों के लोगों ने लुटेरे राजा और सैनिकों को पत्थरों से मार-मार कर भगाया था.
उस युद्ध में तब 4 से 5 लोगों की मौत हो गई थी. इस स्थान पर काफी खून बहा था. जिसके बाद से यहां पर पत्थरों का युद्ध वाली प्रथा चली, जो आज भी अनवरत जारी है. हालांकि, ग्रामीणों का कहना है कि अब यह प्रथा सिर्फ रस्म अदायगी भर ही रह गई है. जबकि पहले काफी जोश के साथ इसे मनाया जाता था.