अल्मोड़ा: होली में भले ही अभी कुछ दिन बाकि हो, लेकिन उत्तराखंड के कुमाऊं में बैठकी होली का दौर पौष के पहले रविवार से शुरू हो गया है. पौष के पहले रविवार से यहां बैठकी होली गायी जाती है. बाद में खड़ी होली का गायन भी होता है. यह होली गायन तीन महीनों तक ऐसे ही चलता रहता है.
कुमाऊंनी होली शास्त्रीय रागों पर आधारित होती है. जो काफी प्रसिद्ध है. पौष के पहले रविवार से होली गायन की ये परंपरा 1860 में शुरू हुई थी. तब से ऐसे ही चलती आ रही है. लेकिन धीरे-धीरे आधुनिकता की चकाचौंध में बाकी परम्परों की तरह कुमाऊंनी होली भी अब अपना आकर्षण खो रही है. होली गायन की धूम जिस तरह पहले रहती थी अब वह धीरे धीरे कम हो रही है.
बुजुर्ग बताते हैं कि पहले की होली और अब की होली में काफी परिवर्तन देखने को मिल रहा है. पहले की होली में उल्लास और उसके रंग अलग ही नज़र आते थे. इस दौरान रातभर होली की महफिलें सजती थीं. लोग बड़े प्रेम भाव से फुर्सत में होली के गीत गाते थे. बड़ी संख्या में होली गायन में हिस्सा लेते थे, लेकिन आज की पीढ़ी इसमें ज्यादा रुचि नहीं ले रही है.
76 वर्षीय चंद्रशेखर पांडेय बताते है कि पहले होली समेत अन्य त्योहारों में लोगों की आस्था जुड़ी रहती थी. पहले मनोरंजन के ज्यादा साधन नहीं थे. लोग दिल से इन कार्यक्रमों से जुड़े होते थे, लेकिन अब मनोरंजन के साधन बढ़ गए हैं. साथ ही त्योहारों में बाज़ारवाद छा गया है. लोग अब इन कार्यक्रमों में दिल से जुड़े हुए नहीं दिखाई देते है. इसलिए नई पीढ़ी इन परम्पराओं से विमुख होती जा रही है.
72 साल के होली गायक संतोष कुमार का मानना है कि पहले और अब की होली में काफी कुछ बदल गया है. नई पीढ़ी का ध्यान इस ओर न होकर फ़िल्मी गानों और अन्य संगीत की ओर ज्यादा है. हालांकि उनका मानना है कि आज के कलाकारों में रागों का ज्ञान पहले से ज्यादा है. जो कि काफी सुखद है. वह कहते हैं कि पहले के कलाकार रागों को सुनकर ही होली गाते थे, लेकिन आज के कलाकार राग का ज्ञान अच्छा रखते हैं.