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कुली बेगार आंदोलन का शताब्दी वर्ष, एसएसजे परिसर में हुई संगोष्ठी

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Published : Jan 12, 2021, 2:41 PM IST

सोबन सिंह जीना विश्वविद्यालय परिसर में कुली बेगार आंदोलन के शताब्दी वर्ष को लेकर संगोष्ठी का आयोजन किया गया. संगोष्ठी में बद्रीदत्त पांडे के प्रयासों द्वारा 1921 में खत्म हुई, कुली बेगार प्रथा के बारे में इतिहास के विशेषज्ञों ने विस्तार से बताया.

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एसएसजे परिसर में आयोजित हुई संगोष्ठी

अल्मोड़ा: कुली बेगार आंदोलन के शताब्दी वर्ष को लेकर एसएसजे परिसर के इतिहास विभाग में कुमाऊं के आंदोलनकारियों को याद करते हुए संगोष्ठी का आयोजन किया. इसमें स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कुमाऊं में हुए समाज सुधार आंदोलन पर विस्तार से चर्चा की गयी. कार्यक्रम के दौरान आंदोलन में बद्रीदत्त पांडे, हरगोविंद पंत जैसे तमाम स्वतंत्रता आंदोलनकारियों को याद किया गया.


सोबन सिंह जीना परिसर के इतिहास विभाग में आयोजित इस संगोष्ठी में बद्रीदत्त पांडे के प्रयासों द्वारा 1921 में खत्म हुई, कुली बेगार प्रथा पर इतिहास के विशेषज्ञों ने विस्तार से चर्चा की. सोबन सिंह जीना विश्वविद्यालय के कुलपति नरेंद्र सिंह भंडारी ने कहा कि आजादी के आंदोलनों के दौरान कुमाऊं के आंदोलनकारियों ने अनेक सामाज सुधारक आंदोलन चलाए. इसमें से एक कुली बेगार आंदोलन था. इस आंदोलन को बद्रीदत्त पांडे के नेतृत्व में चलाया गया था.
क्या था कुली बेगार आंदोलन

कुली बेगार आंदोलन 1921 में उत्तराखंड के बागेश्वर नगर में आम जनता द्वारा अहिंसक आंदोलन था. कुली बेगार के तहत ब्रिटिश अधिकारी आम आदमी से कुली का काम बिना पारिश्रमिक दिए बंधुवा मजदूर की तरह कराते थे. उस समय विभिन्न गांवों के प्रधानों का यह दायित्व होता था, कि वह एक निश्चित अवधि के लिए, निश्चित संख्या में कुली वर्ग को उपलब्ध कराएगा. इस काम के लिए प्रधान के पास बाकायदा एक रजिस्टर भी होता था, जिसमें सभी गांवों के लोगों के नाम लिखे होते थे. सभी को बारी-बारी यह काम करने के लिये बाध्य किया जाता था.

ये भी पढ़ें : हरदा के समर्थन में प्रदीप टम्टा और कुंजवाल, कहा- हरीश रावत घोषित हों CM कैंडिडेट

14 जनवरी 1921 को कुली बेगार प्रथा से पीड़ित लोगों ने सरयू नदी तट पर पहुंचकर बेगार प्रथा से संबंधित रजिस्टरों को फाड़कर नदी में प्रवाहित कर इस प्रथा का हमेशा के लिए अंत कर दिया था. गांवों के प्रधान अपने साथ कुली रजिस्टर लेकर पहुंचे थे, शंख ध्वनि और भारत माता की जयकारों के साथ इन कुली रजिस्टरों को फाड़कर संगम में प्रवाहित कर दिया. इस आंदोलन का नेतृत्व बद्री दत्त पांडे ने किया था.

आंदोलन के सफल होने के बाद बद्रीदत्त पांडे को 'कुमाऊं केसरी' की उपाधि दी गयी. इस आंदोलन का उद्देश्य कुली बेगार प्रथा बन्द कराने के लिये अंग्रेजों पर दबाव बनाना था. आंदोलन से प्रभावित राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने इसे 'रक्तहीन क्रांति' का नाम दिया था.

अल्मोड़ा: कुली बेगार आंदोलन के शताब्दी वर्ष को लेकर एसएसजे परिसर के इतिहास विभाग में कुमाऊं के आंदोलनकारियों को याद करते हुए संगोष्ठी का आयोजन किया. इसमें स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कुमाऊं में हुए समाज सुधार आंदोलन पर विस्तार से चर्चा की गयी. कार्यक्रम के दौरान आंदोलन में बद्रीदत्त पांडे, हरगोविंद पंत जैसे तमाम स्वतंत्रता आंदोलनकारियों को याद किया गया.


सोबन सिंह जीना परिसर के इतिहास विभाग में आयोजित इस संगोष्ठी में बद्रीदत्त पांडे के प्रयासों द्वारा 1921 में खत्म हुई, कुली बेगार प्रथा पर इतिहास के विशेषज्ञों ने विस्तार से चर्चा की. सोबन सिंह जीना विश्वविद्यालय के कुलपति नरेंद्र सिंह भंडारी ने कहा कि आजादी के आंदोलनों के दौरान कुमाऊं के आंदोलनकारियों ने अनेक सामाज सुधारक आंदोलन चलाए. इसमें से एक कुली बेगार आंदोलन था. इस आंदोलन को बद्रीदत्त पांडे के नेतृत्व में चलाया गया था.
क्या था कुली बेगार आंदोलन

कुली बेगार आंदोलन 1921 में उत्तराखंड के बागेश्वर नगर में आम जनता द्वारा अहिंसक आंदोलन था. कुली बेगार के तहत ब्रिटिश अधिकारी आम आदमी से कुली का काम बिना पारिश्रमिक दिए बंधुवा मजदूर की तरह कराते थे. उस समय विभिन्न गांवों के प्रधानों का यह दायित्व होता था, कि वह एक निश्चित अवधि के लिए, निश्चित संख्या में कुली वर्ग को उपलब्ध कराएगा. इस काम के लिए प्रधान के पास बाकायदा एक रजिस्टर भी होता था, जिसमें सभी गांवों के लोगों के नाम लिखे होते थे. सभी को बारी-बारी यह काम करने के लिये बाध्य किया जाता था.

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14 जनवरी 1921 को कुली बेगार प्रथा से पीड़ित लोगों ने सरयू नदी तट पर पहुंचकर बेगार प्रथा से संबंधित रजिस्टरों को फाड़कर नदी में प्रवाहित कर इस प्रथा का हमेशा के लिए अंत कर दिया था. गांवों के प्रधान अपने साथ कुली रजिस्टर लेकर पहुंचे थे, शंख ध्वनि और भारत माता की जयकारों के साथ इन कुली रजिस्टरों को फाड़कर संगम में प्रवाहित कर दिया. इस आंदोलन का नेतृत्व बद्री दत्त पांडे ने किया था.

आंदोलन के सफल होने के बाद बद्रीदत्त पांडे को 'कुमाऊं केसरी' की उपाधि दी गयी. इस आंदोलन का उद्देश्य कुली बेगार प्रथा बन्द कराने के लिये अंग्रेजों पर दबाव बनाना था. आंदोलन से प्रभावित राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने इसे 'रक्तहीन क्रांति' का नाम दिया था.

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