नैनीताल: यूं तो इन दिनों हर जगह रामलीलाओं का मंचन हो रहा है. मगर कुमाऊं में होने वाली रामलीलाओं की बात ही कुछ और है. इनमें शास्त्रीय संगीत पर आधारित रागों और धुनों के आधार पर संवाद अदायगी की जाती है. वक्त के मुताबिक इनमें कई बदलाव आये. फिर भी लोगों के बीच रामलीलाओं की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है.
यूं तो दशहरे में हर जगह रामलीला का मंचन होता है. मगर नैनीताल की रामलीला का नजारा ही कुछ और होता है. लोगों की ऐसी भीड़ रामलीला देखने के लिए कम ही जगह आती है. अखिरकार ऐसा हो भी क्यों ना भला, यहां की रामलील साहित्य कला और संगीत के संगम की तरह है. यहां की रामलीला अवधी भाषा में लिखे छंद, राग, रागनियों पर आधारित संगीत की बानगी पेश करती है.
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नैनीताल की रामलीला को 125 साल हुए पूरे: कुमाऊं में रामलीलाओं का इतिहास सदियों पुराना रहा है. नैनीताल की रामलीला को भी 125 साल पूरे हो चुके हैं. 125 साल पहले नैनीताल के तल्लीताल में रामलीला की शुरूआत पंडित गोविंद बल्लभ पंत के द्वारा की गई थी. पंडित गोविन्द बल्लभ पंत इसी रामलीला कमेटी के अध्यक्ष भी रहे थे. तब से लेकर आज तक तल्लीताल में कुमाऊंनी रामलीला का दौर जारी है.
मुस्लिमों का भी है खास रोल: तल्लीताल में आयोजित होने वाली रामलीला अपने आप में खास है. ये रामलीला किसी धर्म विशेष तक सीमित नहीं है. यहां की रामलीला में सभी धर्मों के लोग प्रतिभाग करते हैं. इस कारण ये सर्व-धर्म समभाव की मिसाल भी पेश करती है. नैनीताल में पिछले 40 सालों से मुस्लिम समुदाय के साईब अहमद रामलीला कमेंटी में पात्रों का मेकअप कर रहे हैं. उनके परिवार के कई लोग रामलीला में अभिनय भी करते हैं. साईब का मानना है कि इस तरह के त्योहार धर्म और समुदाय को जोड़ते हैं.
रामलीला के मंचन से दो महीने पहले कलाकारों को पूरी तालीम दी जाती है. जिसके बाद रामलीला में मंच पर अभिनय करना होता है. आज इंटरनेट, टीवी के नाटकों सीरियलों के दौर में भी रामलीला की अहमियत में कमी नहीं आई है. रामलीला का इंतजार कुमाऊं के हर व्यक्ति को रहता है. इस बार की रामलीला में भी यही उत्साह दिखाई दे रहा है.
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आधुनिकीरण के दौर में जहां स्थानीय सभ्यता और संस्कृति अपने वजूद की लड़ाई लड़ रही है, वहीं रामलीलाओं की बढ़ती लोकप्रियता भारतीय समाज के मूल प्रतीकों और स्थानीय संस्कृति के संरक्षण का जीता-जागता उदाहरण है.