देहरादून: उत्तराखंड में सदियों से लोगों की प्यास बुझाते प्राकृतिक जल स्रोत अब खुद प्यासे हो रहे हैं. पहाड़ों से निकलकर शहरों तक पहुंचने वाले स्वच्छ और निर्मल पानी को मानो किसी की नज़र लग गयी है. हालात ये हैं कि जल स्रोत सूखने लगे हैं. देश के कई राज्यों की प्यास बुझाने वाला उत्तराखंड अपने नागरिकों के गले ही तर नहीं कर पा रहा है. चिंता की बात यह है कि प्रकृति के इस अलार्मिंग हालात को भी नजरअंदाज करने की ही कोशिश की जा रही है.
उत्तराखंड में पेयजल के लिए हाहाकार: राज्य के ऐसे कई क्षेत्र हैं, जहां पेयजल को लेकर मारामारी के हालात हैं. सरकार या स्थानीय प्रशासन को ऐसे क्षेत्रों में अक्सर टैंकरों का सहारा लेना पड़ता है. खासतौर पर गर्मियों के मौसम में तो स्थितियां संभालना काफी चुनौतीपूर्ण होता है. इसकी सबसे बड़ी वजह प्रदेश में तमाम जल स्रोतों का सूखना है. आंकड़े बताते हैं कि उत्तराखंड में प्राकृतिक जल धाराओं की गति किस तेजी से थम रही है. जाहिर है कि प्रकृति आने वाले खतरे का आभास करवा रही है, लेकिन अफसोस परिस्थितियों को जानकर भी इनपर काबू पाने का प्रयास अधूरा दिखायी देता है.
उत्तराखंड के प्राकृतिक जलस्रोत सूख रहे हैं: राज्य में अबतक करीब 2400 प्राकृतिक जल स्रोत अनियोजित विकास के शिकार हो चुके हैं. कंक्रीट के जंगलों ने एक तरफ जल स्रोतों के अस्तित्व पर संकट पैदा कर दिया है तो भूजल के प्राकृतिक रिचार्ज को भी असंतुलित किया है. उधर मानवीय गतिविधियों के कारण प्रभावित वातावरण ने मौसमी चक्र को भी बदल कर रख दिया है. नतीजतन उत्तराखंड के कई इलाके पहले के मुकाबले काफी गर्म रिकॉर्ड किए जा रहे हैं. उधर बारिश के असंतुलन ने भी अंडरवाटर की स्थितियों को प्रभावित किया है. प्रदेश में जिस तरह इस बार रिकॉर्ड तोड़ गर्मी हुई है, उससे भी पेयजल को लेकर परेशानियां बढ़ गई हैं. लंबे समय तक बारिश ना होने और भीषण गर्मी के कारण अंडरवाटर लेवल भी काफी गिरा है.
उत्तराखंड में पहाड़ी क्षेत्र पहाड़ों के गाड़-गधेरों पर पेयजल को लेकर काफी निर्भर हैं. लेकिन कई विकास योजनाओं के कारण विभिन्न गांव जल स्रोतों के सूखने का हर्जाना भुगत रहे हैं. कल-कल, छल-छल बहते नौलों-धाराओं का शीतल जल अब गुजरे जमाने की बात होने लगे हैं. प्रदेश में जल स्रोतों को लेकर दिखाई देने वाले दृश्य तो कुछ यही इशारा कर रहे हैं.
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उत्तराखंड के 500 जलस्रोत सूखने की कगार पर: राज्य के करीब 500 ऐसे स्रोत हैं जहां पानी 75 से 100 प्रतिशत तक सूख गया है. यानी ये स्रोत पूरी तरह खत्म होने की स्थिति में हैं. करीब 1200 ऐसे जल स्रोत हैं जहां पानी 60 प्रतिशत तक सूख चुका है. राज्य में 50 प्रतिशत तक सूखने वाले स्रोतों की संख्या लगभग 732 है. यह हालत पूरे प्रदेश की है, जिसमें पहाड़ी और मैदानी दोनों के जिले शामिल हैं. लेकिन राज्य में जनसंख्या का सबसे ज्यादा घनत्व मैदानी जिलों में है और पानी की जरूरत भी सबसे ज्यादा मैदानी जिलों में ही रहती है. लिहाजा यह जानना भी जरूरी है कि जल स्रोतों के मामले में मैदानी जिलों के क्या हालात हैं.
मैदानी इलाकों में भी सूखे जलस्रोत: इसका जवाब यह है कि गर्मी में सूरज की तपिश का सबसे ज्यादा असर मैदानी जिलों में ही दिखाई दे रहा है. देहरादून, हरिद्वार और उधम सिंह नगर जिलों में पिछले दिनों पारा 40 डिग्री के पार दिखाई दिया. देहरादून में कुल अनुमानित जल स्रोतों की संख्या 142 मानी गयी है. इनमें 42 जल स्रोत सबसे ज्यादा प्रभावित हैं और इनमें करीब 70 से 90% तक पानी सूखने का अनुमान है. राजधानी में ऐसे 62 जल स्रोत हैं जहां करीब 60% तक पानी के सूखने की आशंका है. इसी तरह 40 से 50% तक 15 जल स्रोत सूखने की कगार पर हैं.
गदेरे और झरनों पर सूखे की मार: राज्य में जिन स्रोतों में पानी की कमी आई है, उनमें खासकर गदेरे और झरने शामिल हैं. जाहिर है कि छोटे-छोटे इन पानी के स्रोतों को विकास कार्यों ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया है. इसीलिए गधेरा और स्प्रिंग आधारित पेयजल योजनाओं के स्रोतों में बड़ा संकट आ चुका है. जबकि देहरादून में ही ऐसे क्षेत्र भी हैं जहां एक समय जल स्रोत लोगों की पेयजल समस्या को खत्म करने के लिए अहम योगदान रखते थे, लेकिन अब टैंकरों से गर्मियों के समय पानी की आपूर्ति करना मजबूरी हो गया है.
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वैज्ञानिक भी मानते हैं कि प्रकृति के साथ ज्यादा छेड़छाड़ सही नहीं है. जब ऐसा होता है तो प्रकृति खुद के स्वरूप को पुनर्स्थापित करने के लिए कुछ ऐसे बदलाव करती है जो इंसानों पर भारी पड़ सकते हैं. लिहाजा जो संकेत पेयजल को लेकर मिल रहे हैं, उन पर जल्द से जल्द गंभीर विचार कर कदम उठाना बेहद जरूरी है. नहीं तो पहाड़ से नीचे नदी तो दिखेगी, लेकिन पहाड़ पर पीने का पानी नहीं होगा.