देहरादून: भारतीय सेना के शौर्य को दुनिया इसलिए सलाम करती है कि विपरित परिस्थितियों में भी वे विजय पताका फहराना जानती है. साथ ही दुश्मनों में भारतीय जाबांजों के अद्मय साहस खौफ पैदा करती है. दुश्मन चोटी पर हो या मैदानी क्षेत्र में हमारे जाबांज माकूल जवाब देना जानते हैं. साल 1965 की जंग में देवभूमि के लाल राइफल मैन जसवंत सिंह ने वीरता का एक अनोखा इतिहास लिखा. जसवंत सिंह ने खूंखार 300 चीनी सैनिकों को अकेले ही ढेर कर दिया था. इतना ही नहीं उन्होंने 72 घंटे बिना कुछ खाये पिये चीनी सेना को छकाते हुए उनके कई बंकरों को ध्वस्त कर दिया था. उनकी इस वीरता को हर कोई सलाम करता है.
वहीं तीन दिनों तक अकेले चीनी सेना का सामना करते हुए जसवंत सिंह ने वीरता और देशप्रेम की ऐसी गाथा लिखी जिसका दुश्मन देश भी दीवाना है. ये जसवंत सिंह की वीरता का ही परिणाम है कि उन्हें वन मैन आर्मी के नाम से जाना जाता है. शहीद होने के बाद भी भारतीय सेना में उनको सेवारत माना जाता रहा और उन्हें लगातार पदोन्नति भी मिलती रहती है.
कौन थे राइफल मैन जसवंत सिंह
जसवंत सिंह रावत का जन्म उत्तराखंड के पौड़ी जिले के दुनाव बड्यू गांव में 9 अगस्त, 1941 को हुआ था. जसवंत के पिता का नाम नाम गुमन सिंह रावत था. उन्होंने अपनी 10वीं तक की शिक्षा दीक्षा देहरादून से की. जिसके बाद उन्होंने सेना में भर्ती होने का प्रयास किया लेकिन वे पहली बार में सफल नहीं हुए. जिसके बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी और दूसरी बार वे गढ़वाल राइफल में बतौर राइफल मैन भर्ती हुए. जिसके बाद उन्होंने 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान अरुणाचल प्रदेश के तवांग के नूरारंग की लड़ाई में अहम भूमिका निभाई. अरुणाचल में 14,000 फीट की ऊंचाई पर चीनी सेना से लड़ते हुए जसवंत ने ऐसी वीरता का परिचय दिया कि दुश्मन देश भी उनकी कायल हो गया. जसवंत सिंह ने जिस जगह पर आखरी लड़ाई लड़ी उस जगह का नाम जसवंतगढ़ रख दिया गया. जहां उनका एक मंदिर भी बनाया गया है.
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नूरानांग में राइफलमैन’ जसवंत सिंह की शौर्यगाथा
युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए जसवंत सिंह की शहादत से जुड़ी सच्चाई बहुत कम लोगों को पता हैं. उन्होंने अकेले 72 घंटे चीनी सैनिकों का मुकाबला किया और विभिन्न चौकियों से दुश्मनों पर लगातार हमले करते रहे. 17 नवंबर 1962 को जब चीनी सेना तवांग से आगे निकलते हुए नूरानांग पहुंची तब भारतीय सेना और चीनी सैनिकों के बीच लड़ाई शुरू हुई. तब तक परमवीर चक्र विजेता जोगिंदर सिंह, लांस नायक त्रिलोकी सिंह नेगी और राइफलमैन गोपाल सिंह गोसाईं सहित सैकड़ों सैनिक वीरगति को प्राप्त हो चुके थे
तब जसवंत सिंह रावत ने अकेले नूरानांग का मोर्चा संभाला और लगातार तीन दिनों तक वह अलग-अलग बंकरों में जाकर गोलीबारी करते रहे. जब तीन दिनों बाद चीनी सैनिकों को पता चला कि एक अकेले सैनिक ने उनकी नाक में दम कर रखा था तो इस खीझ में चीनियों ने जसवंत सिंह को बंधक बना लिया. इस लडाई में जसवंत सिंह ने कम से कम 300 चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतारा था
बहादुरी का चीनी सेना ने भी माना था लोहा
जसवंत सिंह की शौर्य गाथा को लेकर कहा जाता है कि चीनी सेना उनका सर काट कर ले गई थी. युद्ध के बाद चीनी सेना ने उनका सर पीतल की मूर्ति के रूप में लौटा दिया था. अकेले अपने दम पर चीनी सेना को टक्कर देने के उनके बहादुरी भरे कारनामों से चीनी सेना काफी प्रभावित हुई थी. जिसके बाद चीनी सेना ने जसवंत सिंह की पीतल की प्रतिमा भारतीय सेना को भेंट की. जो आज भी जसवंतगढ़ मंदिर में रखी है. कहा जाता है कि जसवंत सिंह रावत ने खुद को गोली नहीं मारी थी बल्कि चीनी सैनिकों ने उन्हें पकड़ लिया था और फांसी दे दी थी.
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रायफलमैन का आज भी उतना ही सम्मान
1965 में भारत चीन युद्ध में चीनी सेना के दांत खट्टे करने वाले जसवंत सिंह रावत को मरणोपरांत महावीर चक्र से भी नवाजा गया. जसवंत सिंह ने जिस चौकी पर आखिरी लड़ाई लड़ी थी उसका नाम अब जसवंतगढ़ रख दिया गया है और वहां उनकी याद में एक मंदिर भी बनाया गया है. मंदिर में उनसे जुड़ी चीजें आज भी सुरक्षित रखी गई हैं. इतना ही नहीं 5 सैनिकों को उनके कमरे की देखरेख के लिए भी तैनात किया गया है यह पांचों सैनिक रात को उनका बिस्तर करते हैं. वर्दी प्रेस करते हैं और जूतों की पॉलिश करते हैं.सैनिक सुबह के 4:30 बजे उन्हें बैठती 9:00 बजे नाश्ता और शाम को 7:00 बजे खाना कमरे में रख देते हैं.
शहीद होने के बाद भी प्रमोशन और छुट्टी
शहीद राइफलमैन जसवंत सिंह रावत की शहादत के बाद भी उन्हें प्रमोशन मिलता है. राइफलमैन के पद से वह प्रमोशन पाकर मेजर जनरल बन गए हैं. उनकी ओर से उनके घर के लोग छुट्टी का आवेदन करते हैं और छुट्टी मिलने पर सेना के जवान पूरे सैन्य सम्मान के साथ उनके चित्र को उनके पैतृक गांव लेकर जाते हैं. छुट्टी समाप्त होने पर उनके चित्र को वापस जसवंतगढ़ ले जाया जाता है.
आज भी सीमा पर तैनात है 'राइफलमैन' जसवंत सिंह रावत
सेना के जवानों का मानना है कि अब भी जसवंत सिंह की आत्मा चौकी की रक्षा करती है और लोगों का कहना है कि वह भारतीय सैनिकों का भी मार्गदर्शन करते हैं अगर कोई सैनिक ड्यूटी के दौरान सो जाता है तो वह उसे जगा देते हैं। उनके नाम के आगे शहीद नहीं लगाया जाता है और यह माना जाता है कि वह आज भी ड्यूटी पर हैं। माना जाता है कि हिंदुस्तानी फौज का यह जवान आज भी सरहद पर तैनात है उनके नाम के आगे स्वर्गीय नहीं लिखा जाता सरहद पर उनका मंदिर है जो उनके साजो सम्मान के साथ उनकी यूनिफार्म का ख्याल रखा जाता है। यह माना जाता है कि वीर जसवंत सिंह आज भी हिंदुस्तान की सरहदों की सरपरस्ती में तैनात है.