देहरादून: जाने माने साहित्यकार सोहनलाल द्विवेदी जी ने हिमालय पर कविता लिखी थी---
युग युग से है अपने पथ पर
देखो कैसा खड़ा हिमालय!
डिगता कभी न अपने प्रण से
रहता प्रण पर अड़ा हिमालय!
...लेकिन इंसानी छेड़छाड़ ने हिमालय को अपने पथ से डिगा दिया है. इंसानी छेड़छाड़ से परेशान हिमालय अब डिगने लगा है. सात साल पहले केदारनाथ में आई आपदा इसी का उदाहरण थी. देश के पर्यावरण को संरक्षित करने में हिमालय की अहम भूमिका है. अगर हिमालय नही बचेगा तो जीवन नहीं बचेगा. क्योंकि, हिमालय न सिर्फ प्राण वायु देता है बल्कि पर्यावरण को संरक्षित करने के साथ जैव विविधता को भी बरकरार रखता है. यही वजह कि हर साल 9 सितंबर को हिमालय दिवस मनाया जाता है. क्या है मौजूदा हिमालय का स्वरूप. किस तरह से हिमालय में होता है मूवमेंट. क्या है इसकी हकीकत ?
हिमालय का स्वरूप टेक्टोनिक और यूरेशियन प्लेट्स के मूवमेंट से जुड़ा हुआ है. वैज्ञानिकों का मानना है कि हिमालय और अधिक ऊंचाई तक पहुंचेगा. हिमालय न सिर्फ उत्तराखंड के लिए बल्कि दिल्ली और आसपास के जनमानस के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है.
पूरे साल हिमालय दिवस मनाने की जरूरत
हिमालय पर पैदा होने वाली जड़ी-बूटियां भी न सिर्फ दवाइयों के काम में आती हैं, बल्कि वातावरण को शुद्ध करने में भी इनका महत्वपूर्ण योगदान है. शायद यही वजह है कि वैज्ञानिक भी मानते हैं कि हिमालय पर्वत हमारे वातावरण के लिए एक मां का स्वरूप है. ऐसे में हिमालय संरक्षण के लिए हमें सिर्फ एक दिन हिमालय के संरक्षण का संकल्प नहीं, बल्कि जिस तरह से एक वैज्ञानिक साल के 365 दिनों को साइंस डे मानकर अपनी रिसर्च से जुटे रहते हैं, ठीक उसी तरह हिमालय को भी हमें 365 दिन हिमालय दिवस के रूप में मनाना चाहिए और हिमालय के संरक्षण का संकल्प लेना चाहिए.
क्यों मनाया जाता है हिमालय दिवस ?
उत्तराखंड सरकार प्रतिवर्ष 9 सितंबर को हिमालय दिवस के रूप में मनाती है. हिमालय के करीब 2,500 किलोमीटर लंबे और करीब 300 किलोमीटर चौड़े इलाके के संरक्षण और संवर्धन के लिए हिमालय दिवस मनाया जाता है.
हिमालय के बदलते स्वरूप से होती है हलचल
वाडिया भूविज्ञान संस्थान के निदेशक कालाचांद साईं के मुताबिक हिमालय में कई हलचल दिखाई देती हैं. जैसे हिमालय पर्वतों पर समय-समय पर लैंडस्लाइड का होना, हिमालय क्षेत्रों में आपदा का आना, हिमालयी क्षेत्रों से निकलने वाली नदियों के जल स्तर का घटना-बढ़ना. इसके अलावा उच्च हिमालयी क्षेत्र के पर्वतों पर समय-समय पर बर्फबारी का होना और समय-समय पर एक निश्चित अनुपात में बर्फ का पिघलना है. बर्फ पिघलने को हम ग्लेशियरों का पिघलना भी कहते हैं. इसके अलावा हिमालय क्षेत्र में भूकंप का आना जैसे महत्वपूर्ण पहलू हिमालय के बदलते स्वरूप को बयां करते हैं.
साइंस के माध्यम से किया जा सकता है हिमालय का संरक्षण
निदेशक डॉ. कालाचांद साईं ने बताया कि हर साल हिमालय दिवस के अवसर पर यह शपथ लेते हैं कि हिमालय के संरक्षण के लिए काम करेंगे, लेकिन एक बड़ा सवाल हमेशा से यही रहा है कि हिमालय के संरक्षण के लिए क्या काम किया जाएगा ? हिमालय का संरक्षण करने के लिए यह समझने की जरूरत है कि हिमालय से जियो, बायो, एग्रीकल्चर, मेडिकल और एटमॉस्फेरिक साइंस आदि जुड़ी हुई हैं. ऐसे में इन सभी साइंस को एक साथ जोड़कर ही हिमालय का संरक्षण किया जा सकता है.
हिमालय के संरक्षण को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए विकास
वर्तमान में सोसाइटी ग्रो कर रही है. ऐसे में इस बात का भी ख्याल रखना चाहिए कि उतना ही विकास किया जाए, जिससे हिमालय को नुकसान न पहुंचे. हिमालय में बहुत सारे रिसोर्सेज मौजूद हैं, जिसका अगर सही ढंग से उपयोग किया जाए तो उससे विकास को न सिर्फ गति मिलेगी बल्कि लोगों को फायदा होने के साथ ही हिमालय को भी संरक्षित किया जा सकेगा.
पानी को संरक्षित करने की है जरूरत
हिमालय के रिसोर्सेज में शामिल पानी जीव-जंतुओं के लिए बहुत जरूरी है. मैदानी क्षेत्रों में करोड़ों लोग हिमालय से निकलने वाले पानी का ही इस्तेमाल करते हैं. हिमालय से निकलने वाला पानी सिंचाई और हाइड्रोपावर के लिए भी उपयोग में लाया जाता है. ऐसे में हिमालय के पानी को भी संरक्षित करने की जरूरत है. इसे संरक्षित करने के लिए ग्लेशियर नेचुरल स्प्रिंग्स आदि पर ध्यान देने की जरूरत है.
क्लाइमेट चेंज का ग्लेशियरों पर पड़ रहा है फर्क
मौजूदा समय में जिस तरह से क्लाइमेट चेंज हो रहा है उसका सीधा असर ग्लेशियरों पर पड़ रहा है. उत्तराखंड और हिमाचल दोनों ही जगह के ग्लेशियर पिघल रहे हैं. इनका आकार दिन प्रतिदिन छोटा होता जा रहा है. ऐसे में जब हिमालय के संरक्षण की बात करते हैं तो मुख्य रूप से इन बिंदुओं पर भी फोकस करने की जरूरत हैं. क्लाइमेट चेंज होने की मुख्य वजह मानवीय लापरवाही ही है, क्योंकि अपनी सुविधाओं और विकास के लिए यह भूल जाते हैं कि जितना कार्बन प्रोड्यूस कर रहे हैं उसका सीधा असर क्लाइमेट पर पड़ रहा है.
हिमालय में जियो थर्मल एनर्जी की है भरमार
उत्तराखंड और हिमाचल दोनों ही मुख्य रूप से पहाड़ी राज्य हैं और इन दोनों ही पहाड़ी राज्यों में जियो थर्मल एनर्जी की भरमार है. इस एनर्जी का इस्तेमाल ग्रामीण क्षेत्रों में होटलों और औद्योगिक इकाइयों आदि में इस्तेमाल भी किया जा सकता है. यह नहीं पहाड़ी क्षेत्रों में जड़ी-बूटियों की भी भरमार है जिसे मेडिसिन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है. लिहाजा यह ग्रामीणों को बताने की जरूरत है कि किस तरह से इन जड़ी-बूटियों का सही ढंग से सदुपयोग किया जा सकता है और अपने लिए रोजगार पैदा किया जा सकता है.
बता दें, जियो थर्मल एनर्जी यानी भू-तापीय ऊर्जा, वह ऊर्जा है जो धरती की ऊपरी परत के नीचे चट्टानों के पिघलने से उसकी गर्मी सतह तक पहुंच जाती है और आसपास की चट्टानों और पानी को गर्म कर देती है. वैज्ञानिक ऐसे स्थानों पर पृथ्वी की भू-तापीय ऊर्जा के जरिये बिजली उत्पादन की संभावना तलाशने में लगे रहते हैं. गर्म चट्टानों पर बोरवेल के जरिये जब पानी प्रवाहित किया जाता है तो भाप पैदा होती है. इस भाप का उपयोग विद्युत संयंत्रों में लगे टरबाइन को घुमाने के लिए किया जाता है, जिससे बिजली का उत्पादन होता है.
हिमालयी क्षेत्रों का ध्यान में रखकर होना चाहिए विकास
हिमालयी क्षेत्रों में भूकंप, भूस्खलन और बाढ़ आना आम बात है और इसे कभी भी रोका नहीं जा सकता है, लेकिन पहले से ही स्टडी कर इस बात को बताया जा सकता है कि कौन-कौन से क्षेत्र भूस्खलन, भूकंप और बाढ़ के लिए संवेदनशील हैं. लिहाजा, इन बातों को ध्यान में रखकर अगर विकास किया जाता है तो वह विकास प्रकृति को ध्यान में रखकर किया गया विकास होगा, जिससे नुकसान भी नहीं होगा. यही नहीं, हिमालय क्षेत्र में तमाम ऐसे क्षेत्र हैं जिन्हें हम अलग-अलग तरह से इस्तेमाल कर सकते हैं, जिसमें मुख्य रूप से पर्यटन भी शामिल है.
कब हुई हिमालय दिवस की शुरुआत ?
हिमालय दिवस की शुरुआत 2010 में हुई. बड़े पर्यावरण विदों और जल-जंगल-जमीन के लिए काम करने वाले लोगों ने इसकी शुरुआत की. इन लोगों में सुंदर लाल बहुगुणा, अनिल जोशी और राधा बहन समेत कई लोग शामिल थे. हालांकि आधिकारिक तौर पर इसकी शुरुआत 9 सितंबर 2014 को उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत ने की थी.