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लोगों ने चुनाव बहिष्कार का किया एलान, मुख्य निर्वाचन अधिकारी ने कहा- करें नोटा का प्रयोग

राजधानी से चंद किलोमीटर की दूरी पर स्थित मिसरास-पट्टी गांव के लोगों ने इस बार लोकसभा चुनाव में मतदान न करने का फैसला लिया है.

चुनाव बहिष्कार का एलान.
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Published : Mar 31, 2019, 6:00 PM IST

देहरादून: राजधानी से चंद किलोमीटर की दूरी पर स्थित मिसरास-पट्टी गांव के लोगों ने इस बार लोकसभा चुनाव में मतदान न करने का फैसला लिया है. ग्रामीणों का कहना है कि गांव में सड़क जैसी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध नहीं है. जिसके चलते इस बार आम चुनाव का बहिष्कार करने का फैसला लिया गया है.

चुनाव बहिष्कार का एलान.

बता दें कि मिसरास-पट्टी गांव में तकरीबन 600 से अधिक परिवार और 2000 से ज्यादा लोग रहते हैं. बावजूद इसके इस गांव में सड़क जैसी मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं. ग्रामीणों का कहना है कि देश की आजादी के 70 साल और उत्तराखंड राज्य बनने के 18 साल बाद भी उनके हिस्से में बुनियादी सुविधाएं नहीं है तो अब मतदान से क्या हासिल हो जाएगा.

पढ़ें:दून में है एशिया की सबसे बड़ी सेंट्रल बैरल प्रेस, दिव्यांगों के लिए की जाती हैबैलेट डेमोकी छपाई

ग्रामीणों ने बताया कि उन्होंने पहले भी नेताओं और अफसरों को इस समस्या से अवगत कराया था. लेकिन अब तक सिर्फ खोखले आश्वासन ही मिले हैं. ग्रामीणों ने कहा कि सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाते-लगाते उनकी एड़ियां घिस चुकी है. जिसके चलते अब चुनाव बहिष्कार के अलावा कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही.

वहीं, इस मामले में मुख्य निर्वाचन अधिकारी सौजन्या ने कहा कि अगर किसी व्यक्ति को सिस्टम से या किसी जनप्रतिनिधि से कोई शिकायत है तो वह नोटा का बटन इस्तेमाल करे और मतदान में हिस्सा ले. उन्होंने कहा कि मतदान न करने से लोकतंत्र कमजोर हो सकता है.

देहरादून: राजधानी से चंद किलोमीटर की दूरी पर स्थित मिसरास-पट्टी गांव के लोगों ने इस बार लोकसभा चुनाव में मतदान न करने का फैसला लिया है. ग्रामीणों का कहना है कि गांव में सड़क जैसी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध नहीं है. जिसके चलते इस बार आम चुनाव का बहिष्कार करने का फैसला लिया गया है.

चुनाव बहिष्कार का एलान.

बता दें कि मिसरास-पट्टी गांव में तकरीबन 600 से अधिक परिवार और 2000 से ज्यादा लोग रहते हैं. बावजूद इसके इस गांव में सड़क जैसी मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं. ग्रामीणों का कहना है कि देश की आजादी के 70 साल और उत्तराखंड राज्य बनने के 18 साल बाद भी उनके हिस्से में बुनियादी सुविधाएं नहीं है तो अब मतदान से क्या हासिल हो जाएगा.

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ग्रामीणों ने बताया कि उन्होंने पहले भी नेताओं और अफसरों को इस समस्या से अवगत कराया था. लेकिन अब तक सिर्फ खोखले आश्वासन ही मिले हैं. ग्रामीणों ने कहा कि सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाते-लगाते उनकी एड़ियां घिस चुकी है. जिसके चलते अब चुनाव बहिष्कार के अलावा कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही.

वहीं, इस मामले में मुख्य निर्वाचन अधिकारी सौजन्या ने कहा कि अगर किसी व्यक्ति को सिस्टम से या किसी जनप्रतिनिधि से कोई शिकायत है तो वह नोटा का बटन इस्तेमाल करे और मतदान में हिस्सा ले. उन्होंने कहा कि मतदान न करने से लोकतंत्र कमजोर हो सकता है.

Intro:नेताओं और मशीनरी का नाकारापन, लोकतंत्र से उठा लोगो का भरोसा। पूरी ग्रामपंचायत ने लिया वोट ना देने का फैसला।

एंकर- राजधानी देहरादून से चंद किलोमीटर की दूरी पर एक पूरी ग्रामपंचायत का नेताओं और सरकारी मशीनरी के नाकारापन के चलते लोकतंत्र से भरोसा उठ चुका है नतीजा यह है कि पूरी की पूरी ग्रामपंचायत को वोट ना देने में ही भलाई नजर आ रही है। क्या है पूरा मामला आइये आपको बता ते हैं।




Body:वीओ- आज की ये ख़बर चुनावी दौर की सबसे निराश करने वाली ख़बर है। जहां एक तरफ देश के सबसे बड़े लोकतंत्र की कसीदें पढ़ी जाती है तो ऐसे में एक ऐसा भी विचार पनप रहा है जहां लोकतंत्र, चुनाव और मतदान जैसे शब्दों के नाम पर केवल निराशा, गुस्सा और बहिष्कार है।

मामला देहरादून जिले की ग्रामपंचायत मिसरास-पट्टी के तकरीबन 600 से अधिक परिवारों से जुड़ा है। इस ग्राम पंचायत में रहने वाले तकरीबन 2000 से ज्यादा लोग आज भी बुनियादी सुविधओं से दूर खुद को अलग थलग पा रहे हैं। गांव के लोगों का कहना है कि देश की आजादी से 70 साल और उत्तराखंड राज्य बनने के 18 साल लगतार मतदान करने पर भी जब उनके हिस्से में बुनियादी सुविधाएं भी नही आ पाई है तो अब मतदान से क्या हासिल हो जाएगा। पूरी ग्राम पंचायत में कई हजार मतदाता इन आम चुनावों में गांव में सड़क ना होने की वजह से मतदान बहिष्कार के लिए मजबूर है। गांव वालों को सरकारी सिस्टम और जनप्रतिनिधियों ने इतना निराश किया है कि अब नौबत यंहा तक पहुंच गई है कि ग्रामीणों का मतदान से ही भरोसा उठ चुका है। ऐसा भी नही है कि ग्रामीणों ने इस से पहले और कोई प्रयास नही किया, ग्रामीणों का दावा है कि उनके द्वारा नेताओं और अफसरों के चक्कर लगाते लगाते एड़ियां घिस चुकी है लेकिन अब कोई उम्मीद नजर नही आ रही है जिसके चलते अब मतदान ना करना एक विरोध नही बल्कि एक ना उम्मीदी से लिया गया फैसला है।

--इस तरह की खबरें अमूमन कई चुनावों के दौर में दूर दराज के क्षेत्रों से आती है। खबरें अभाव वाले इलाकों से होती है लिहाज ख़बर के पीछे की निराशा और खीज विकसित शहरों के लोगों को सामान्य लग सकती है लेकिन ये एक केवल एक ख़बर नही बल्कि एक ऐसा विचार है जो सीधे सीधे देश के लोकतंत्र को खोखला बना देने वाली दिशा को जन्म देता है और सबसे ज्यादा अफसोस कि बात है कि इसी लोकतंत्र की बदौलत अपनी रोटियां सकने वाले लोग ही इस विचार को हवा दे रहे है। नेता और सिस्टम के नाकारापन से पनपी ये एक ऐसी तस्वीर है जिस पर समय रहते ध्यान नही दिया गया तो ये सोच धीरे धीरे देश के लोकतंत्र को खोखला कर जाएगी। ये विचार देश के लिये कितना भयाभय है इस बात का अंदाजा इस बात से लगाइए की क्या होगा तब अगर सिस्टम से त्रस्त हर व्यक्ति इसी विचार को अपना ले। एक तरह से ये लोकतंत्र के लिए सिस्टम द्वारा पैदा किया गया सबसे बड़ा खतरा हैं।

बहरहाल इस पर जब हमने मुख्य निर्वाचन अधिकारी उत्तराखंड सौजन्य से बात की और उनसे पूछा कि मतदान बहिष्कार को लेकर पनप रही इस तरह की सोच पर निर्वाचन का क्या पक्ष है ? तो उन्होंने कहा कि हमें इस तरह की सोच को अपने आसपास नहीं पनपने देना है, और अगर किसी व्यक्ति को सिस्टम से या फिर किसी जनप्रतिनिधि से कोई शिकायत है तो वह कम से कम नोटा बटन का इस्तेमाल कर मतदान में हिस्सेदारी कर सकता है। लेकिन मतदान ना करना एक तरह से लोकतंत्र को कमजोर करने जैसा एक कदम होगा।

बाइट- सौजन्या , मुख्य निर्वाचन अधिकारी









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