टिहरी: उत्तराखंड को भगवान शिव का निवास स्थान माना जाता है. देवभूमि के कण-कण में शिवत्व की अनुभूति का एहसास अनुभव किया जा सकता है. जहां बाबा भोलेनाथ की बात हो रही हो तो उनके वाद्य यंत्र की बात कैसे अछूती रह सकती है. जो भगवान शिव का काफी पसंद है. माना जाता है कि देवभूमि उत्तराखंड में खास मौकों पर बजाया जाने वाला ढोल-दमाऊ की उत्पत्ति शिव के डमरू से हुई है.
देवभूमि उत्तराखंड में खास मौकों पर ढोल-दमाऊ की थाप सुनाई देती है. इसके बिना देवभूमि में मांगलिक कार्य अधूरे से लगते हैं. ढोल वाद्य यंत्र से देवी-देवताओं का आह्वान किया जाता है. धार्मिक अनुष्ठानों में ढोल-दमाऊ से ही देवताओं की नोबत लगाई जाती है.
वहीं हुड़के का प्रयोग जागर, झोड़ा, छपेली, चांचरी, भगनौल में किया जाता है. बताते चलें कि ढोल- दमाऊ उत्तराखंड का प्राचीन वाद्य यंत्र है. यह दोनों तांबे से बने होते है और दोनों को साथ ही बजाया जाता है. साथ ही इस बाद्य यंत्र को काफी देखरेख की जाती है. वहीं अब इन बाद्य यंत्रों पर आधुनिकता की मार साफ देखी जा सकती है. शादी-विवाह में अब बैंड बाजों की धुन ज्यादा सुनाई देती है. जिससे पारंपरिक ढोल- दमाऊ बजाने वाले लोगों के आगे रोजी-रोटी का संकट पैदा हो रहा है.
अमेरिका की सनसिटी यूनिवर्सिटी के छात्र उत्तराखंड की विलुप्त हो रही ढोल-दमाऊ परंपरा को सीख रहे हैं. साथ ही इस यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी टिहरी जिले के देवप्रयाग और घंसाली में ढोल-दमाऊ का प्रशिक्षण लेने आते हैं. वहीं प्रोत्साहन के अभाव में देवभूमि का ये पारंपरिक वाद्य यंत्र अब अपने ही प्रदेश में अपनी अस्तित्व को बचाए रखने की लड़ाई लड़ रहा है.