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जानें क्या है पापड़ी त्योहार, क्यों कहते हैं इसे आर्थिक समानता का प्रतीक - latest news

इन दिनों पापड़ी त्योहार पहाड़ी क्षेत्रों में बड़े ही उत्साह व धूमधाम से मनाया जा रहा है. पुराने जमाने में इस त्योहार से पहले लोग घरों मे साफ-सफाई और पुताई कर घरों को सजाते थे. इसके बाद बैसाखी की शुरुआत होते ही पूरे बैसाख माह में पहाड़ों मे अलग-अलग जगह थौलू मेले का आयोजन किया जाता था.

पापड़ी त्योहार.
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Published : Apr 9, 2019, 4:20 AM IST

Updated : Apr 9, 2019, 8:51 AM IST

टिहरी: इन दिनों पापड़ी त्योहार पहाड़ी क्षेत्रों में बड़े ही उत्साह व धूमधाम से मनाया जा रहा है. इस त्योहार का इंतजार बच्चों और बहूओं दोनों को ही रहता है. क्योंकि इस दिन बहूएं अपने मायके जाकर सबसे मिलती हैं. पापड़ी केवल चावलों से ही बनाई जाती है. जिसको बच्चे और बहूएं बड़े ही चाओं से खाते हैं.

पापड़ी त्योहार.


बता दें कि पुराने जमाने में इस त्योहार से पहले लोग घरों मे साफ-सफाई और पुताई कर घरों को सजाते थे. इसके बाद बैसाखी की शुरुआत होते ही पूरे बैसाख माह में पहाड़ों मे अलग-अलग जगह थौलू मेले का आयोजन किया जाता था. जिसमें बहुएं अपने-अपने मायकों में आकर सबसे मिलती थी और पापड़ी को अपने साथ कलेऊ के रूप में ले जाकर सबके साथ बड़े चाव से भी खाती थी और अपनी भूली बिसरी यादों व सुख-दुख को एक दूसरे के साथ साझा करते थे.


कैसे शुरू हुआ पापड़ी का त्यौहार
पुराने समय से चली आ रही इस पापड़ी त्योहार की परम्परा को मनाने के पीछे एक गरीब ध्याण( बहू ) की कहानी है. जो कि अपने मां-बाप की इकलौती बेटी थी. पापा के गुजर जाने के बाद मायके में केवल उसकी बूढ़ी मां रहती थी. बैसाखी के मेलों के लिए जब वह अपने मायके पहुंची तो मां की आर्थिक स्थिति देख त्यौहार मनाने का मन नहीं किया. जिससे उसकी मां की आंखों में आंसु आ गए. यह देखकर बेटी ने घर के कोने में रखी चावल की पोटली को निकाला और उसे ओखली में कूटकर उसकी पापड़ी बनाई और सहेलियों के साथ मेले में जाकर बड़े चाव से खाई. ससुराल जाते वक्त भी वह टोकरी भर कलेऊ ले गई तब से ही पहाड़ी समाज में इस त्योहार को आर्थिक समानता का प्रतीक माना जाता है.

टिहरी: इन दिनों पापड़ी त्योहार पहाड़ी क्षेत्रों में बड़े ही उत्साह व धूमधाम से मनाया जा रहा है. इस त्योहार का इंतजार बच्चों और बहूओं दोनों को ही रहता है. क्योंकि इस दिन बहूएं अपने मायके जाकर सबसे मिलती हैं. पापड़ी केवल चावलों से ही बनाई जाती है. जिसको बच्चे और बहूएं बड़े ही चाओं से खाते हैं.

पापड़ी त्योहार.


बता दें कि पुराने जमाने में इस त्योहार से पहले लोग घरों मे साफ-सफाई और पुताई कर घरों को सजाते थे. इसके बाद बैसाखी की शुरुआत होते ही पूरे बैसाख माह में पहाड़ों मे अलग-अलग जगह थौलू मेले का आयोजन किया जाता था. जिसमें बहुएं अपने-अपने मायकों में आकर सबसे मिलती थी और पापड़ी को अपने साथ कलेऊ के रूप में ले जाकर सबके साथ बड़े चाव से भी खाती थी और अपनी भूली बिसरी यादों व सुख-दुख को एक दूसरे के साथ साझा करते थे.


कैसे शुरू हुआ पापड़ी का त्यौहार
पुराने समय से चली आ रही इस पापड़ी त्योहार की परम्परा को मनाने के पीछे एक गरीब ध्याण( बहू ) की कहानी है. जो कि अपने मां-बाप की इकलौती बेटी थी. पापा के गुजर जाने के बाद मायके में केवल उसकी बूढ़ी मां रहती थी. बैसाखी के मेलों के लिए जब वह अपने मायके पहुंची तो मां की आर्थिक स्थिति देख त्यौहार मनाने का मन नहीं किया. जिससे उसकी मां की आंखों में आंसु आ गए. यह देखकर बेटी ने घर के कोने में रखी चावल की पोटली को निकाला और उसे ओखली में कूटकर उसकी पापड़ी बनाई और सहेलियों के साथ मेले में जाकर बड़े चाव से खाई. ससुराल जाते वक्त भी वह टोकरी भर कलेऊ ले गई तब से ही पहाड़ी समाज में इस त्योहार को आर्थिक समानता का प्रतीक माना जाता है.

Intro:पहाड़ों में फूलदेई के साथ पापड़ी त्यौहार की धूम
आर्थिक समानता का प्रतीक है पापड़ी त्यौहारBody:
स्लग -बैसाखी के आगमन पर पहाड़ो मे पापड़ी त्यौहार की धूम आर्थिक समानता का प्रतीक है पापड़ी त्यौहार

एंकर- हमारी पहाड़ी संस्कृति और परम्पराओं के अनुसार मनाया जाने वाला पापड़ी त्योहार इन दिनो पहाड़ो मे फूलदेई के साथ साथ बड़े ही उत्साह व धूमधाम से मनाया जा रहा है जिसका इन्तजार बच्चे और ध्याण (ध्याण यानि व्याही हुई बेटी ) बड़े ही बेसब्री से करते है फुल्यारी यानि फूलदेई के साथ साथ दो से तीन दिन तक मनाये जाने वाले इस त्योहार की भी पहाड़ो में बड़ी ही परम्परा है । मान्यता है कि पुराने जमाने में इस त्योहार से पहले लोग घरों मे साफ सफाई और पुताई कर घरो को सजाते थे। इसके बाद ही बैसाखी की भी शुरुआत होते ही पूरे बैसाख माह मे पहाड़ो मे अलग अलग जगह व स्थानों पर थौलू मेलौ ( मेले ) का आयोजन किया जाता था जिसमें ध्याण अपने अपने मायको मे आकर अपने सगे सम्बधियो से मेल जोल करते थे और पापड़ी को कलेऊ के रूप मे ले जाकर झुण्ड बनाकर बड़े चाव से भी खाते थे और अपनी भूली बिसरी यादों व सुख दुख को एक दूसरे के साथ साझा करते थे

हमारे पूर्वजो से चली आ रही इस पापड़ी त्योहार की परम्परा को मनाने के पीछे जब हमारे द्वारा कुछ बुजुर्गों से कारण पूछा गया तो पापड़ी त्योहार मनाने के पीछे एक ऐसी गरीब ध्याण की कहानी से शुरू हुई
जो कि अपने माँ बाप की इकलौती सन्तान थी इस ध्याण के बाप मर जाने के बाद मायके में केवल उसकी बृद्ध माँ ही थी बैसाखी के मेलो के लिए जब यह अपने मायके पहुँची तो माँ की आर्थिक तंगी के चलते इसके आगे अन्य लोगों की तरह त्यौहार मनाने का संकट पैदा हो गया तो माँ के आँसू आ गये क्योकि त्योहार के मौके पर त्यौहार न मनाना अशुभ माना जाता है बात बैसाखी से जुड़े त्यौहार का था उस ध्याण ने अपनी माँ के आँसू पोछते हुए कहा कि माँ हम भी त्यौहार मनायेगें तब उसने घर के कोने मे रखी चावल की पोटली को निकाला और उसे ओखली मे कूटकर उसकी पापड़ी बनाई और सहेलियों के साथ मेले मे जाकर बड़े चाव से खायी उसके बाद ससुराल जाते बक्त वह अन्य सहेलियों की तरह मायके से बिदा होकर टोकरी भर कलेऊ ले गयी तब से पहाड़ी समाज मे आर्थिक समानता के प्रतीक इस त्यौहार को मनाया जाता है
पापड़ी केवल चावलों से ही तैयार की जाती है इसे साल मे केवल एक बार बनाया जाता है और रखे रखे खरिब भी नही होती और कम खर्चे मे कलेऊ की पूरी टोकरी भर जाती है

Conclusion:पहाड़ों में विशेष परंपरा वाह उत्साह से मनाया जाता है पापड़ी त्यौहार

आर्थिक रूप से गरीब से गरीब परिवार से आर्थिक रूप से अमीर से अमीर परिवार तक एक समान पकवानों से मनाया जाता है पापड़ी त्यौहार

केवल चावल से बनाई जाने वाली पापड़ी पूरे साल भर मनाए जाने वाले त्योहारों में परोसी जाती है पापड़ी
Last Updated : Apr 9, 2019, 8:51 AM IST
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