टिहरी: इन दिनों पापड़ी त्योहार पहाड़ी क्षेत्रों में बड़े ही उत्साह व धूमधाम से मनाया जा रहा है. इस त्योहार का इंतजार बच्चों और बहूओं दोनों को ही रहता है. क्योंकि इस दिन बहूएं अपने मायके जाकर सबसे मिलती हैं. पापड़ी केवल चावलों से ही बनाई जाती है. जिसको बच्चे और बहूएं बड़े ही चाओं से खाते हैं.
बता दें कि पुराने जमाने में इस त्योहार से पहले लोग घरों मे साफ-सफाई और पुताई कर घरों को सजाते थे. इसके बाद बैसाखी की शुरुआत होते ही पूरे बैसाख माह में पहाड़ों मे अलग-अलग जगह थौलू मेले का आयोजन किया जाता था. जिसमें बहुएं अपने-अपने मायकों में आकर सबसे मिलती थी और पापड़ी को अपने साथ कलेऊ के रूप में ले जाकर सबके साथ बड़े चाव से भी खाती थी और अपनी भूली बिसरी यादों व सुख-दुख को एक दूसरे के साथ साझा करते थे.
कैसे शुरू हुआ पापड़ी का त्यौहार
पुराने समय से चली आ रही इस पापड़ी त्योहार की परम्परा को मनाने के पीछे एक गरीब ध्याण( बहू ) की कहानी है. जो कि अपने मां-बाप की इकलौती बेटी थी. पापा के गुजर जाने के बाद मायके में केवल उसकी बूढ़ी मां रहती थी. बैसाखी के मेलों के लिए जब वह अपने मायके पहुंची तो मां की आर्थिक स्थिति देख त्यौहार मनाने का मन नहीं किया. जिससे उसकी मां की आंखों में आंसु आ गए. यह देखकर बेटी ने घर के कोने में रखी चावल की पोटली को निकाला और उसे ओखली में कूटकर उसकी पापड़ी बनाई और सहेलियों के साथ मेले में जाकर बड़े चाव से खाई. ससुराल जाते वक्त भी वह टोकरी भर कलेऊ ले गई तब से ही पहाड़ी समाज में इस त्योहार को आर्थिक समानता का प्रतीक माना जाता है.