हैदराबाद: लंबे मंथन, माथापच्ची और मान मनौव्वल के दौर के बाद रविवार 26 सितंबर को योगी आदित्यनाथ मंत्रिमंडल विस्तार हो गया. जितिन प्रसाद समेत सात चेहरों को टीम योगी में जगह मिली. जातिगत समीकरण को साधने के लिए 3 दलित, 3 ओबीसी और 1 ब्राह्मण चेहरे को मंत्रीपद की शपथ दिलाई गई. लेकिन इन सात में से छह को राज्यमंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई है और जिस एक शख्स को कैबिनेट मंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई है वो है कांग्रेस से बीजेपी में आए जितिन प्रसाद.
सवाल है कि सिर्फ जितिन प्रसाद को क्यों बनाया गया कैबिनेट मंत्री ? क्या ब्राह्मण वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए ऐसा किया गया ? क्या जितिन प्रसाद ब्राह्मणों के वोट बीजेपी के पाले में ला पाएंगे ? ऐसे तमाम सवालों का जवाब जानने मिले ईटीवी भारत एक्सप्लेनर में.
जितिन को 'हाथ' छोड़ कमल थामने का मिला 'प्रसाद'
9 जून 2021 को जितिन प्रसाद ने कांग्रेस के साथ चला आ रहा पीढ़ियों का रिश्ता तोड़ दिया. पिता जितेंद्र प्रसाद लंबे वक्त तक कांग्रेस में रहे, राजीव गांधी और पीवी नरसिम्हा राव के राजनीतिक सलाहकार रहे. यूपी विधानपरिषद सदस्य रहे, यूपी की शाहजांहपुर से चार बार लोकसभा पहुंचे, राज्यसभा सदस्य रहे और यूपी कांग्रेस के अध्यक्ष की जिम्मेदारी भी संभाली. लेकिन एक जब कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सोनिया गांधी का नाम आया तो बगावत का झंडा बुलंद कर दिया और कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सोनिया गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ा और हार गए.
जितिन प्रसाद के दादा भी कांग्रेस में रहे और फिर खुद भी कांग्रेस का हाथ थामकर 2001 में पहले यूथ कांग्रेस के महासचिव बने और 2004 में शाहजहांपुर से ही चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंच गए. पहले कार्यकाल में ही मनमोहन सिंह की कैबिनेट के सबसे युवा मंत्रियों में शुमार हुए और फिर 2009 लोकसभा चुनाव में भी जीत दर्ज की. लेकिन उसके बाद कांग्रेस की तरह जितिन प्रसाद को भी ऐसी नजर लगी कि अब तक तीन चुनाव हार चुके हैं. 2014 के बाद 2019 का लोकसभा चुनाव भी हारे और 2017 के विधानसभा चुनाव में भी मुंह की खानी पड़ी. 2021 में बंगाल विधानसभा चुनाव के प्रभारी भी बनाए गए लेकिन पार्टी बंगाल के नतीजों में कहीं नजर ही नहीं आई.
इसके बाद कांग्रेस आलाकमान से होती दूरियों से लेकर और अंतर्कलह के बाद जितिन प्रसाद ने कांग्रेस का 'हाथ' छोड़ना ही बेहतर समझा. यूपी चुनाव से करीब 9 महीने पहले बीजेपी में आए जितिन प्रसाद को लेकर पहले से अटकलें लगाई जा रही थी कि बीजेपी उन्हें बड़ी जिम्मेदारी देगी और फिर चुनाव में उन्हें भी बड़ी जिम्मेदारी निभानी होगी. अब वो यूपी सरकार में मंत्री हैं और कुछ दिन में विधान परिषद सदस्य भी हो ही जाएंगे.
जितिन प्रसाद पर बीजेपी मेहरबान क्यों ?
जितिन प्रसाद ने बीते दिनों पीएम मोदी से भी मुलाकात की थी, जिसके बाद टीम योगी में उनकी एंट्री पक्की मानी जा रही थी. लेकिन सवाल है कि बीजेपी जितिन प्रसाद पर इतनी मेहरबान क्यों है ? दरअसल उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले तमाम विरोधी दलों ने बीजेपी के खिलाफ ब्राह्मण विरोधी होने का आरोप लगाते हुए मोर्चा खोल दिया है. बसपा से लेकर सपा तक बकायदा प्रदेशभर में ब्राह्मण वोट बैंक को अपने पाले में करने के लिए सम्मलेन और कार्यक्रम कर रही है. जानकार मानते हैं इसने बीजेपी की टेंशन बढ़ाई हुई है.
विपक्षी दल बीजेपी को ब्राह्मण विरोधी बताकर लामबंद हो रहे हैं तो बीजेपी इस 'ब्राह्मण विरोधी' तमगे को हटाना चाहती है. इसके लिए केंद्र से लेकर राज्य सरकार में ब्राह्मणों की भागीदारी बढ़ाई जा रही है. जितिन प्रसाद ने कांग्रेस में रहते हुए ब्राह्मणों को लेकर सक्रियता दिखाई थी. उन्होंने ब्राह्मण चेतना परिषद नाम से संगठन बनाकर ब्राह्मण युवाओं को अपने साथ जोड़ा. वो यूपी में ब्राह्मण कल्याण बोर्ड का मुद्दा भी उठा चुके हैं. ऐसे में ब्राह्मण समुदाय के बीच उनकी पैठ को देखते हुए ही बीजेपी ने उन्हें हाथों हाथ लिया और फिर कैबिनेट मंत्री भी बना दिया.
ब्राह्मणों को लुभाने की जरूरत क्यों पड़ रही है ?
यूपी में ब्राह्मण वोटरों की तादाद 10 फीसदी है और यूपी में आखिरी ब्राह्मण मुख्यमंत्री 30 साल पहले नारायण दत्त तिवारी बने थे. साल 2017 में बीजेपी की सरकार बनी तो योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया गया और विपक्ष ने राजपूत समुदाय से आने वाले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के राज में ब्राह्मणों पर अत्याचार और अनदेखी के आरोप लगाने शुरू कर दिए. विरोधी दलों ने ये भी प्रचारित किया कि ब्राह्मण वोटर सिर्फ एक वोट बैंक है और बीजेपी समझती है कि उसकी मजबूरी बीजेपी को ही वोट देने की है. इस तरह सफा से लेकर बसपा तक ब्राह्मण वोट बैंक पर सेंधमारी की कोशिश कर रही है.
मायावती की बसपा पर दलितों की पार्टी का तमगा लगा हुआ है और अखिलेश यादव की सपा यादव और मुस्लिमों की पार्टी मानी जाती रही है. लेकिन इस बार दोनों दलों के रडार पर ब्राह्मण भी हैं. मायावती ने ब्राह्मण सम्मेलनों का आगाज अयोध्या से किया और ब्राह्मण वोट बैंक को अपने पाले में लाने की जिम्मेदारी सतीश चंद्र मिश्र और नकुल दुबे को दे रखी है. समाजवादी पार्टी भी ब्राह्मण सम्मेलनों के सहारे इस वोट बैंक में अपनी हिस्सेदारी तलाश रही है.
जितिन प्रसाद दिला पाएंगे ब्राह्मणों के वोट ?
जितिन प्रसाद ब्राह्मण चेहरा हैं और इसी लिहाज से वो बीजेपी के प्लान में फिट भी बैठते थे. इसलिये उनपर दांव भी चल चुके हैं. जितिन प्रसाद के बायोडेटा पर नजर दौड़ाएं तो दो बार लोकसभा सांसद रहे और केंद्र में मंत्री भी, लेकिन ये उन दिनों की बात है जब कांग्रेस के अच्छे दिन थे. बीते 7 साल से ना कांग्रेस और जितिन प्रसाद दोनों के लिए सबकुछ बदल गया है. जितिन प्रसाद अपनी परंपरागत सीटों से बीते 7 साल में लगातार तीन चुनाव हार चुके हैं. जिस बंगाल का उन्हें प्रभारी बनाया गया वहां कांग्रेस खाता भी नहीं खोल पाई और विरोधी भी ब्राह्मण वोट बैंक पर उनकी पकड़ पर सवाल उठाते रहे हैं.
बीजेपी का फंडा जितना बड़ा कद, उतना बड़ा पद
बीजेपी ने जितिन प्रसाद का सियासी कद, इतिहास और भविष्य के चुनाव को देखकर मंत्री बनाया है. बीजेपी ने अपना काम कर दिया है अब जितिन प्रसाद को अपनी अहमियत दिखानी होगी. दरअसल सियासी जानकार और विरोधी यूपी की सियासत में जितिन प्रसाद के कद को ज्यादा भाव नहीं देते हैं. ये बात कहीं ना कहीं बीजेपी भी जानती है. इसलिये उन्हें यूपी कैबिनेट में चुना गया है वो भी सिर्फ 4 से 5 महीने के लिए, जबकि कांग्रेस से आए ज्योतिरादित्य सिंधिया को राज्यसभा भेजकर केंद्र में बड़ा मंत्रालय दिया गया है. वैसे सिंधिया ने इसके लिए मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिरवाकर, बीजेपी की वापसी करवा अपनी अहमियत को साबित किया था. अब ये मौका जितिन प्रसाद के पास है, क्योंकि बीजेपी का फंडा है कि जितना बड़ा कद, उतना बड़ा पद. ऐसे में यूपी में जितिन प्रसाद का भविष्य यूपी चुनाव में उनके परफॉर्मेंस पर टिका है. अब ये वक्त बताएगा कि चुनावी नतीजों के बाद वो सिर्फ विधानपरिषद सदस्य रहेंगे या फिर बीजेपी में उनका कद बढ़ेगा.
कहीं 'मास्टरस्ट्रोक' ना बन जाए 'सेल्फ गोल'
कुछ सियासी जानकारों के मुताबिक जितिन प्रसाद को मंत्री बनाने के फैसले को बीजेपी भले मास्टरस्ट्रोक की तरह देख रही है लेकिन ये फैसला बीजेपी की सेहत के लिए ही हानिकारक साबित भी हो सकता है. जुम्मा-जुम्मा बीजेपी में आए 4 महीने भी नहीं हुए हैं और जितिन प्रसाद को योगी कैबिनेट में जगह दे दी गई. जबकि बीजेपी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और चार बार के विधायक लक्ष्मीकांत बाजपेई की अनदेखी के आरोप बीजेपी पर लगते रहे हैं. जानकारों के मुताबिक लक्ष्मीकांत बाजपेई जैसे चेहरे को पार्टी ने इस कार्यकाल में MLC तक नहीं बनाया और कांग्रेस के आए जितिन प्रसाद को ब्राह्मण चेहरा बताकर प्रमोट किया जा रहा है.
विपक्ष वैसे ही इन दिनों बीजेपी पर ब्राह्मणों की अनदेखी और अत्याचार के आरोप बीजेपी पर लगा रहा है. ऐसे में अगर इस बात ने तूल पकड़ा कि जो ब्राह्मण वोट बैंक हमेशा बीजेपी का रहा उसकी याद पार्टी को चुनाव से चार महीने पहले आई है और यहां भी छवि बदलने के लिए सिर्फ बाहरी नेताओं की ताजपोशी पर बीजेपी को नुकसान भी झेलना पड़ सकता है.
यूपी में क्यों इतने जरूरी हो गए ब्राह्मण ?
उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण वोटरों की संख्या 10 फीसदी है और इतनी बड़ी संख्या के मतदाता किसी भी दल का चुनावी गणित बना और बिगाड़ सकते हैं. वैसे भी यूपी की सियासत में ब्राह्मण वोट बैंक की अपनी अहमियत हमेशा से रही है. यूपी में मान्यता रही है कि ब्राह्मणों को साथ लेकर ही राज्य की सत्ता पर काबिज हो सकते हैं. इस वोट बैंक की अहमियत इसी बात से समझिए कि चाहे साल 2007 में मायावती बंपर बहुमत के साथ मुख्यमंत्री बनी हों या फिर 2012 में अखिलेश यादव, दोनों ही बार सत्ता तक पहुंचाने में इस वोट बैंक का भी हाथ रहा है. 2017 में बीजेपी की 15 साल बाद सत्ता में वापसी में भी ब्राह्मण वोट बैंक की भूमिका है.
इस वोट बैंक की अहमियत को समझते हुए ही अब दलित और पिछड़ों की पार्टियां बसपा और सपा भी ब्राह्मणों को रिझाने में लगी हैं. वैसे यूपी में ओबीसी, दलितों के बाद सबसे अधिक आबादी सवर्णों की है. उनमें से करीब 10 से 11 फीसदी ब्राह्मण हैं. यूपी में भले इनकी आबादी कम हो लेकिन 90 के दशक से पहले यूपी की सियासत में इनका बोलबाला था. 1990 से पहले एनडी तिवारी से लेकर, हेमवंती नंदन बहुगुणा और कमलापति त्रिपाठी जैसे दिग्गज ब्राह्मण नेता मुख्यमंत्री रहे. लेकिन 90 के दशक के बाद जातियों की राजनीति शुरू हुई तो सीएम पद दूर होता गया हालांकि वोट बैंक की अहमियत अब भी है.
ब्राह्मण चेहरे क्यों बना रहे कांग्रेस से दूरी ?
जितिन प्रसाद के बाद ललितेश पति त्रिपाठी भी कांग्रेस का हाथ छोड़ चुके हैं. विधायक रह चुके ललितेश पति त्रिपाठी अपने परिवार की चौथी पीढ़ी हैं जो कांग्रेस के साथ रही. वो यूपी के मुख्यमंत्री रहे कमलापति त्रिपाठी के पड़पोते हैं, उनके दादा और पिता भी कांग्रेस का हाथ थामे रहे. लेकिन अब 100 साल से अधिक का ये संबंध टूट चुका है. इससे पहले बीते विधानसभा चुनाव के दौरान रीता बहुगुणा जोशी कांग्रेस का हाथ छोड़ चुकी हैं, जिन्हें बीजेपी ने पहले यूपी में मंत्री बनाया और अब वो सांसद हैं. जिंदगी कांग्रेस में बिताने वाले यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री और दिग्गज नेता एनडी तिवारी ने भी आखिरी दिनों में 'हाथ' छोड़ दिया.
2014 के बाद लोकसभा चुनाव हों या विधानसभा चुनाव कांग्रेस का ग्राफ लगातार गिर रहा है और ऐसे में सब डूबते जहाज से निकलना चाहते हैं. पहली नजर में वजह भले ही ये लगती हो लेकिन जानकार मानते हैं कि पार्टी अब ओबीसी और पिछड़ों की राजनीति कर रही है और पार्टी का फोकस ब्राह्मणों से हट गया है. कुछ राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि 90 के दशक में एनडी तिवारी के दौर के बाद कांग्रेस ने अपने ही बड़े ब्राह्मण नेताओं के पर कतरने शुरु कर दिए, उसके बाद आरक्षण लागू करने के फैसले से भी ब्राह्मण कांग्रेस से दूर हुए. उसी दौर में राम मंदिर आंदोलन और बीजेपी के उदय ने ब्राह्मण वोट बैंक को कांग्रेस से बीजेपी के पाले में शिफ्ट कर दिया. कांग्रेस के हाथ से ब्राह्मण वोट बैंक लगातार छिटकता रहा, ऐसे में ब्राह्मण नेता भी कब तक टिके रहते. एक-एक कर सब अपना पाला बदल रहे हैं.
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