देहरादून : उत्तराखंड एक सैनिक बाहुल्य प्रदेश है इसलिए चुनावों में सैनिक परिवारों की अहमियत काफी बढ़ जाती है. यही कारण है कि इन दिनों सैनिक शौर्य और शहादत को लेकर खूब बातें की जा रही हैं. सैनिक कल्याण के नाम पर भी प्रदेश की राजनीति में खूब हो-हल्ला मचा हुआ है. हर कोई दल सैनिक परिवारों के हितों की बात कर रहा है. मगर, प्रदेश में असलियत में सैनिक परिवारों का क्या हाल है, ये आज ईटीवी भारत आपको बताने जा रहा है.
शौर्य दिवस हो, गणतंत्र दिवस या फिर स्वतंत्रता दिवस ईटीवी भारत हर बार सैनिक परिवारों के बीच पहुंचता है, जहां हम शहीद हुए उन वीरांगनाओं का हाल जानते हैं. हर बार ईटीवी भारत उन तमाम परेशानियों से अपने दर्शकों को रूबरू कराता है जो उत्तराखंड के कई परिवार अपने घर के चिराग को खो देने के बाद झेल रहे हैं. बात चाहे कारगिल युद्ध में शहीद हुए उत्तराखंड के 35 रणबांकुरों की हो, जिसमें शहीद राजेश गुरंग के पराक्रम की कहानी, कारगिल शहीद विजय भंडारी के परिवार का दर्द, हमने हर किसी की कहानी को पाठकों तक पहुंचाया. साथ ही हमने इनकी जमीनी हकीकत और हालात को लेकर हमने पुरजोर आवाज उठाई. चुनावी मौसम से पहले एक बार फिर ईटीवी भारत ऐसे ही परिवारों के बीच पहुंचा है, जिसमें हमने उनके हालातों और हकीकत पर बात की.
शहीद परिवारों का सम्मान सफेद झूठ
उत्तराखंड में इन दिनों हो रही सैनिक सम्मान की बात पर साल 1989 में अपने पति शहीद सूबेदार जय प्रकाश राणा की वीरांगना मीना राणा ने ईटीवी भारत से बातचीत की. मीना के पिता भी सेना में रहते शहीद हुए थे. उन्होंने बताया कि आज जितनी भी बातें शहीदों और सैनिक परिवारों को सम्मान देने की हो या फिर उनके लिए सुविधाओं की बात की जा रही हो, सारी सफेद झूठ हैं.
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32 सालों से किराये के मकान में रह रही हैं
उन्होंने शहीद परिवारों के सम्मान को केवल सरकार का चुनावी हथकंडा करार दिया है. उन्होंने कहा कि, आज हकीकत में सैनिक परिवारों की ये हालात है कि शहीद की पत्नी दर-दर की ठोकरें खा रही है. कई बार शहीद परिवार के सदस्य को नौकरी देने के वादे किये गए, कई बार जमीन देने की बात भी कही गई, मगर आज भी हकीकत यही है कि वो पिछले 32 सालों से किराए के मकान में रह रही हैं.
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सरकारें भूल जाती है वादें
यही नहीं, मीना राणा का कहना है कि प्रदेश में इस वक्त चुनावी माहौल है, जिस कारण सरकार केवल जन भावनाओं के साथ खेल रही है. नेता शहीद परिवारों के जरिए लोगों की संवेदनाओं से जुड़कर उसे भुनाने की कोशिश कर रहे हैं. मीना राणा कहती हैं कि, सैनिकों के सम्मान के नाम पर शहीदों की वीर नारियों को केवल शॉल ओढ़ा दिया जाता है. इसके अलावा उन्हें कोई पूछने वाला नहीं है. उनका साफ तौर पर कहना है कि न तो वो शॉल के भूखे हैं और न ही बुके (गुलदस्ते) की चाहत रखते हैं.
शहीदों के नाम पर केवल राजनीति
हाल ही में उत्तराखंड सैनिक कल्याण बोर्ड द्वारा आयोजित की जा रही है सैनिक सम्मान यात्रा को लेकर मीना राणा का कहती हैं कि, शहीदों के नाम पर लगातार राजनीति की जा रही है. इसे केवल चुनावी माहौल बनाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. शहीद की मिट्टी के नाम पर भी कई पूर्व सैनिक संगठन शहीदों का अपमान कर रहे हैं.
साल भर केवल दो कार्यक्रमों तक सिमटा सैनिक सम्मान
ऐसी ही एक और वीर नारी सुनीता लामा से भी हमने बात की. सुनीता लामा ने बताया, जब सैनिक शहीद होता है बड़े जोर-शोर के साथ सरकारें और अन्य लोग शहीद परिवार के साथ खड़े नजर आते हैं, लेकिन समय के साथ-साथ सब भूल जाते हैं. तब की गई घोषणाओं और वादों को भी सरकार भूल जाती है. सैनिक सम्मान केवल साल भर के दो कार्यक्रमों में आमंत्रित करने तक सिमट कर रह जाता है.
सुनीता ने कहा, अलग-अलग सरकारों में नेताओं द्वारा उन्हें कई आश्वासन दिए गए. कभी नौकरी का आश्वासन तो कभी शहीद के सम्मान में द्वार बनाने का आश्वासन, लेकिन आज तक उनके बेटे को न नौकरी मिली और न उनके पति की शहादत का सम्मान.
आज तक नहीं मिला शहादत का सम्मान
ऐसे ही एक और पूर्व सैनिक धीरेन वीर लामा जिन्होंने अपने छोटे भाई वीरेन वीर लामा को खोया है उनसे भी हमने बात की. उन्होंने बताया, उनकी तीन पीढ़ियां फौज में रही हैं. उनके परिवार से सेना का वास्ता आज से नहीं बल्कि ब्रिटिश काल से है. उनके दादा-परदादा और रिश्तेदारों में कई लोग सेना में रहे हैं. कई लोगों ने अपनी शहादत भी दी है. आज भी परिवार के कई सदस्य सेना में कार्यरत हैं.
धीरेन वीर भी उत्तराखंड में हो रही सैनिक सम्मान की बात से वास्ता नहीं रखते हैं. उन्होंने बताया कि, सैनिकों के नाम पर केवल और केवल राजनीति हो रही है, जिसका वास्तविक रूप से फायदा शहीद के परिवार को न मिलकर नेताओं को मिल रहा है. शहीदों को सही सम्मान आज तक नहीं मिल पाया है.
कुल मिलाकर नाम चाहें कोई भी हो, सभी शहीदों के परिजनों के हालात एक जैसे ही हैं. शहीदों के परिजनों के हालातों पर नजर डालें तो उनके नाम पर होने वाली आजतक की सभी घोषणाएं कोरी ही नजर आती हैं. अगर वाकई में सरकारों ने अपनी घोषणाओं और वादों पर अमल किया होता तो आज शहीद सैनिकों के परिजनों को यूं बदहाली की जिंदगी नहीं जीनी पड़ती.