विश्व शांति को मोटे तौर पर सभी देशों के बीच आपसी सहयोग का एक आदर्श माना जाता है. इसमें आम तौर पर अहिंसा का विचार शामिल होता है, जिसमें राष्ट्र स्वेच्छा से युद्ध को रोकने के लिए जिम्मेदारी से व्यवहार करते हैं. हालांकि, आज दुनिया आंतरिक संघर्षों से भरी है. अंतरराष्ट्रीय सीमा पर विवाद, जातीय-संघर्ष, धार्मिक कट्टरवाद, नदी-जल जैसे विवाद दशकों से चले आ रहे हैं. कई चरणों की बातचीत और बैठकों के बाद भी ये मुद्दे बने हुए हैं. यहां तक कि मध्यस्थों की भूमिका का भी कोई असर नहीं हो रहा है.
अंतरराष्ट्रीय विवादों को सुलझाने और हल करने के लिए वैश्विक मंच पर गांधी और उनके दर्शन को शायद ही एक संभावित उपाय के रूप में देखा जाता है. वैसे वैश्विक समुदाय गांधी का सम्मान करता है. फिर भी वे लोग गांधी को 'समाधान प्रदाता' नहीं मानते हैं. वे लोग मानते हैं कि आज के संघर्ष अधिक जटिल हैं. गांधीवाद के माध्यम से इसका समाधान नहीं निकाला जा सकता है. हां, यह सामाजिक और सांस्कृतिक कारणों के लिए टॉनिक जरूर माना जाता है.
यहां तक कि जहां गांधी का जन्म हुआ और जहां उन्होंने काम किया, यानि भारत में उन्हें राष्ट्रपिता का दर्जा जरूर प्राप्त है, लेकिन राजनीतिक और आर्थिक रूप से उनका महत्व केवल ग्रामीण अर्थव्यवस्था में स्वच्छता और कॉस्मेटिक सुधार के लिए एक दवा के रूप में विचार किया जाता है. जब इस तरह की वास्तविकता है, तो वैश्विक संदर्भ में गांधी के अहिंसा दर्शन की प्रासंगिकता क्या हो सकती है, अंदाजा लगाया जा सकता है.
फिर भी, वैश्विक संघर्षों के परिप्रेक्ष्य में गांधी के विचारों के गहन अध्ययन से पता चलता है कि सात दशक पहले उन्होंने जो कहा था, वह आज भी प्रासंगिक है. आज भी उसका सह-संबंध है. अगर ऐसा नहीं है, तो आज भी दुनिया संघर्ष क्यों कर रही है. वह हिंसा का मुकबला करने में सक्षम क्यों नहीं हुई. शांति क्यों नहीं आई. शांति पर उनके विचार, जैसा कि उन्होंने विभिन्न अवसरों पर लिखा या कहा है, समकालीन संघर्षों के कई समाधान प्रस्तुत करते हैं.
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तथ्य ये है कि आज की कई संघर्ष प्रबंधन तकनीकों में गांधी जो अपने समय में कहा करते थे, उसकी छाया देखी जा सकती है. महात्मा ने कहा, 'हममें सबसे पहले सहिष्णुता होनी चाहिए ताकि हम अपने मतभेदों को सौहार्दपूर्वक सुलझा सकें. अन्यथा, हम तीसरे पक्ष की मध्यस्थता के लिए खुद को प्रस्तुत करेंगे, जिसे टाला जा सकता है.'
तीसरे पक्ष की मध्यस्थता से बचने के लिए, उनका मानना था कि सहिष्णुता में सामाजिक, जातीय, धार्मिक और राजनीतिक तत्वों के कई पहलू हैं. 'जब सहिष्णुता कम हो जाती है, तो शांति खतरे में पड़ जाती है. संघर्ष के वास्तविक चरित्र की पहचान की जानी चाहिए और संभवत: उनमें से किसी भी छिपे हुए तत्व को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है.'
हिंद स्वराज के अपने एक लेख में गांधी ने खेद व्यक्त किया था कि कैसे नागरिकों द्वारा चुनी गई सरकार अपने ही लोगों के खिलाफ शांति के नाम पर उससे संघर्ष करती है. कैसे एक अत्यधिक सभ्य, लोकतांत्रिक राष्ट्र अपने क्षेत्र में शांति बनाए रखने के लिए पड़ोसियों के साथ सीमा पार संघर्ष का प्रयास करता है.
शान्ति और सद्भाव से प्यार करने वाले राष्ट्रों के लिए इसे एक धारणा के रूप में देखते हुए उन्होंने लिखा: 'शांति हथियारों के टकराव से नहीं निकलेगी; लेकिन निहत्थे लोगों के सामने राष्ट्रों द्वारा बिना हथियार ही उससे निपटेगा तो न्याय मिलेगा. यह शांति के प्रति अहिंसक दृष्टिकोण का एक विकल्प है. दुर्भाग्य से, बहुत कम देशों ने स्थिति पैदा होने पर खुद को ऐसी विचारशील स्थिति में रखने की कोशिश की. इसके बजाय वे अन्य ताकतों के सामने आत्मसमर्पण करते हैं जो सार में अहिंसक नहीं हैं.'
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लेकिन आज की दुनिया में इस तरह के उदात्त, आदर्शवादी विचार कितने प्रासंगिक हैं, जब अंतर-राज्यीय संघर्ष एक खतरनाक दर से बढ़ रहा है और एक अभूतपूर्व उच्च स्तर पर है? इसका जवाब ना ही होगा.
हालांकि कुछ उदाहरण ऐसे हैं, - जिसमें कुछ ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने अपने विचारों और कार्यों के जरिए शांति के साथ अपने समुदायों के बीच बदलाव किए हैं. वे सभी शांति और अहिंसा के गांधीवादी दर्शन से संबंधित है, उनमें मार्टिन अहतीसारी (2008), मुहम्मद यूनुस (2006), वंजारी महायभाई (2004) और शिरीन एबादी (2003) जैसे लोग शामिल हैं. इन लोगों ने अपने-अपने कार्य क्षेत्र से समाज में शांति लाने के लिए प्रभावी ढंग से काम किया. उसमें बुनियादी बदलाव लाए.
आंग सान सू की (1991 में नोबेल शांति पुरस्कार विजेता) और नेल्सन मंडेला (दक्षिण अफ्रीकी रंगभेद विरोधी क्रांतिकारी और 1994 से 1999 तक दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति) ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने अहिंसा के सिद्धांत का पालन किया और अपने उद्देश्यों में सफल रहे.
(लेखक-राजीव राजन)
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