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मालाबार नौसैनिक अभ्यास में ऑस्ट्रेलिया को आमंत्रित कर सकता है भारत - ऑस्ट्रेलिया को आमंत्रित कर सकता है भारत

लद्दाख क्षेत्र में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारत और चीन के बीच जारी गतिरोध की पृष्ठभूमि के मद्देनज़र, जहां विघटन की प्रक्रिया चल रही है, दिल्ली द्वारा त्रिकोणीय सेवा के लिए मालाबार में होने वाले नौसैनिक अभ्यास में शामिल होने के लिए ऑस्ट्रेलिया को आमंत्रित करने की संभावना है.

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मालाबार नौसैनिक अभ्यास
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Published : Jul 21, 2020, 10:00 AM IST

Updated : Jul 21, 2020, 3:33 PM IST

मीडिया रिपोर्टों ने शुक्रवार (19 जुलाई) को भारतीय रक्षा मंत्रालय में आयोजित एक बैठक का उल्लेख किया है, जिसमें इस मामले की समीक्षा की गई और ऑस्ट्रेलिया को भारत, अमेरिका और जापान के साथ शामिल होने के लिए औपचारिक आमंत्रण देने पर जल्द निर्णय लेने की उम्मीद जताई गई है. संक्षेप में, चार देशों के अधिकारियों की उपस्थिति में एक विचारशील निकाय के निर्माण के लिए - इस क्वाड के परिचालन करने की रूपरेखा दी जाएगी.

यहां ये तथ्य महत्वपूर्ण है कि आज इन चारों राष्ट्रों के बीच निहित प्रतीकवाद और संकेत अब समुद्री / नौसेना सहयोग के एक निश्चित स्तर की ओर बढ़ रहे, इस क्वाड अभ्यास का वास्तविक नियंत्रण रेखा पर होने वाले असर को ज्यादा आंकना भ्रामक होगा. मौजूदा सबूतों के आधार पर, वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तनाव का हल सिर्फ भारत और चीन के बीच द्विपक्षीय वार्ता से ही निकलेगा जिसको अभी सार्थक रूप लेने में काफी समय लगेगा.

भारत और चीन के बीच - शक्ति 'के अधिक प्रासंगिक ठोस तत्वों के बीच व्यापक राष्ट्रीय क्षमता की तुलना करें, तो यह सामूहिक संकल्प, आर्थिक-राजकोषीय संकेतक या तकनीकी-सैन्य कौशल के आधार पर बीजिंग के पक्ष का पलड़ा भारी रहने की सम्भावना है – सिवाए एक क्षेत्र के और वह है समुद्री बल. यहां भूगोल और पिछले पांच दशकों में भारत की सिद्ध नौसैनिक क्षमता का विकास दिल्ली को बढ़त देता रहा है, लेकिन केवल एक संक्षिप्त अवधि के लिए, क्योंकि बीजिंग तेजी से इस दूरी को भी पाट रहा है.

हां, हाल के वर्षों में चीन ने समुद्री महासागरों में अपनी शक्ति को लेकर चिंताओं को व्यक्त किया है - मलक्का दुविधा - वैश्विक महासागरों में कथित अमेरिकी प्रभुत्व के संबंध में और नौसैनिक शक्ति के असंतुलन के निवारण के लिए वह सराहनीय दृढ़ संकल्प के साथ आगे बढ़ा है.

पिछले 25 वर्षों में पीएलए में नौसेना की वृद्धि असाधारण रूप से रही है और इसकी तुलना शीत युद्ध के दशकों के दौरान दिग्गज एडमिरल गोर्शकोव द्वारा सोवियत नौसेना की जाने वाली देखरेख से की जा रही है.

वर्तमान में चीन ने वैश्विक समुदाय के लिए दो चुनौतियां पेश की हैं. पहली कोविड- 19 और इससे निपटने के लिए बीजिंग की वास्तविक रचनात्मक भूमिका निभाने का स्तर जिस पर वह तैयार है और दूसरी चुनौती है, जो कुछ राष्ट्रों को प्रभावित कराती है, वह धमकी के स्वर में मुखरता जो शी जिनपिंग शासन ने भूमि सीमाओं / क्षेत्र (ताइवान) और समुद्री दावों के संबंध में अपनाई है.

बीआरआई (बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव) के समेकन के रूप में भी. यदि स्थिति का करीब से आंकलन करें तो कई देशों की राजधानियों में यह असहजता महसूस की जा रही है कि चीन 2049 तक वैश्विक नंबर एक स्थान पर पहुंचने के लिए बेरहमी से आगे बढ़ रहा है, जो कि 1949 में अस्तित्व में आये चीनी कम्युनिस्ट राज्य का शताब्दी वर्ष है, ताकि वह इस क्षेत्र में अपने हिसाब से पैक्स सिनिका यानि चीनीयों को लाभान्वित करने वाली 'शांति' स्थापित कर सकें.

भारत-प्रशांत क्षेत्र के लिए विशिष्ट समुद्री क्षेत्र एक निश्चित उत्तोलन प्रदान करता है, जिसमें चीन द्वारा दी जा रही चुनौती का दीर्घकालिक प्रबंधन करने की क्षमता है और यह वह जगह है जहां हाल में साथ आये चरों देश अपनी प्रासंगिकता प्राप्त कर सकते हैं. फिर भी, यहाँ फिर दोहराना प्रासंगिक होगा कि अभी इसपर कार्य प्रगति पर है जिसमें अभी चीन के अस्तित्व और व्यापार-प्रौद्योगिकी-बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में उसके बढ़ते क़दमों के निशानों को लेकर कई जटिल अंतर्विरोध शामिल हैं.

यहां तक कि क्वाड राष्ट्रों के बीच, चीन के साथ उनके द्विपक्षीय संबंध विरोधाभासी हैं और अलग अलग रास्तों पर जा रहें है और उनमें से सभी राज्य-विशिष्ट नहीं हैं. इसका अर्थ है कि वैश्विक बाजार की गतिशील और तकनीकी अंतर-निर्भरता ने एक आसान द्विआधारी विकल्प की संभावना को मिटा दिया है, जबकि जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया के लिए अमेरिका-चीन की प्रतिस्पर्धा उच्च स्तर की रणनीतिक प्रासंगिकता में है, लेकिन विकल्प के अनुकूल बीजिंग अधिक पेचीदा है, क्योंकि उनमें से प्रत्येक का चीन के साथ एक मजबूत व्यापारिक और आर्थिक संबंध है, जिसे एक आवेगपूर्ण तरीके से खत्म नहीं किया जा सकता है.

चीन के लिए भी यही सच है जो इस धारणा पर आगे नहीं बढ़ सकता है कि वह चतुरकोण के सदस्यों और अन्य समान विचारधारा वाले देशों के साथ अपने संबंधों को प्रतिबंधित / सिकोड़ देगा और पाकिस्तान, उत्तर कोरिया और शायद ईरान जैसे- 'हर-मौसम' में साथ देने वाले मित्रों के साथ ही रहेगा. यहां तक कि चीन के प्रति सहिष्णु रुख रखने वाला रूस, आर्थिक तौर पर आधीन होने के बावजूद चीन केंद्रित विश्व व्यवस्था में उपनिवेशित छोटे साझेदार की भूमिका में खुद को स्वीकार नहीं करेगा.

महामारी के प्रकोप के बाद जब कभी भी वैश्विक वातावरण में कुछ स्थिरता आएगी और वैश्विक आर्थिक सुधार दिखाई देगा तो इस चतुरकोणीय संघ के परिचालन उद्देश्यों की एक स्पष्ट रूप से दीर्घकालिक रूपरेखा सर्वसहमति से तैयार करनी होगी. इस समूचे क्षेत्र में प्रभावी नौसैनिक क्षमता हासिल करना और उसे बनाए रखना एक महंगा प्रस्ताव है और प्रत्येक राष्ट्र को अपने स्वयं के लागत-लाभ विश्लेषण पर पहुंचना होगा ताकि वे तय कर सकें कि वे इस सामूहिक सामुद्रिक अभियान में कितना निवेश करने की इच्छा रखते हैं.

नौसेना / समुद्री क्षेत्र मध्यम अवधि में चतुरकोणीय सहयोग और अंतर-संचालन के लिए कई विकल्प प्रदान करता है और एक उम्मीद है कि इंडोनेशिया और अन्य आसियान राष्ट्र भी इस प्रयास का हिस्सा बन सकते हैं. अंतरराष्ट्रीय कानून और प्रथागत व्यवहार के अनुसार वैश्विक जन-हितों का प्रबंधन एक घोषित उद्देश्य है और प्रधान मंत्री मोदी अक्सर अलग-अलग अंतरराष्ट्रीय बैठकों में इस मुद्दे पर जोर देते रहे हैं.

विरोधाभासी रूप से, जबकि अमेरिका इस सिद्धांत को मानता है, वह स्वयं संयुक्त राष्ट्र के कानून (यूएनसीएलओएस) का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है, लेकिन संधि की भावना का पालन करता है. इसके विपरीत चीन यूएनसीएलओएस का हस्ताक्षरकर्ता है, लेकिन उसने दक्षिण चीन सागर के संबंध में इस संधि के आधार पर अन्तराष्ट्रीय न्यायलय के फैसले को अस्वीकार करने का मार्ग चुना है.

यही कारण है कि चीन द्वारा कानून का अनुपालन सुनिश्चित करना एक कठिन कार्य होगा और इसमें कूटनीति और नौसेनिक क्षमताओं की सम्मतकारी शक्ति का मिश्रण होगा.

पीएम मोदी के 'सागर' योजना के अनुकूल उसकी प्रतिध्वनि होने के बावजूद यह इस चतुरकोणीय संघ के लिए यह चुनौती दीर्घकालिक है, जिसमें इस समुद्री क्षेत्र में सबकी सुरक्षा और विकास सुनिश्चित होगा.

(सी उदय भास्कर, निदेशक, सोसायटी फॉर पॉलिसी स्टडीज)

मीडिया रिपोर्टों ने शुक्रवार (19 जुलाई) को भारतीय रक्षा मंत्रालय में आयोजित एक बैठक का उल्लेख किया है, जिसमें इस मामले की समीक्षा की गई और ऑस्ट्रेलिया को भारत, अमेरिका और जापान के साथ शामिल होने के लिए औपचारिक आमंत्रण देने पर जल्द निर्णय लेने की उम्मीद जताई गई है. संक्षेप में, चार देशों के अधिकारियों की उपस्थिति में एक विचारशील निकाय के निर्माण के लिए - इस क्वाड के परिचालन करने की रूपरेखा दी जाएगी.

यहां ये तथ्य महत्वपूर्ण है कि आज इन चारों राष्ट्रों के बीच निहित प्रतीकवाद और संकेत अब समुद्री / नौसेना सहयोग के एक निश्चित स्तर की ओर बढ़ रहे, इस क्वाड अभ्यास का वास्तविक नियंत्रण रेखा पर होने वाले असर को ज्यादा आंकना भ्रामक होगा. मौजूदा सबूतों के आधार पर, वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तनाव का हल सिर्फ भारत और चीन के बीच द्विपक्षीय वार्ता से ही निकलेगा जिसको अभी सार्थक रूप लेने में काफी समय लगेगा.

भारत और चीन के बीच - शक्ति 'के अधिक प्रासंगिक ठोस तत्वों के बीच व्यापक राष्ट्रीय क्षमता की तुलना करें, तो यह सामूहिक संकल्प, आर्थिक-राजकोषीय संकेतक या तकनीकी-सैन्य कौशल के आधार पर बीजिंग के पक्ष का पलड़ा भारी रहने की सम्भावना है – सिवाए एक क्षेत्र के और वह है समुद्री बल. यहां भूगोल और पिछले पांच दशकों में भारत की सिद्ध नौसैनिक क्षमता का विकास दिल्ली को बढ़त देता रहा है, लेकिन केवल एक संक्षिप्त अवधि के लिए, क्योंकि बीजिंग तेजी से इस दूरी को भी पाट रहा है.

हां, हाल के वर्षों में चीन ने समुद्री महासागरों में अपनी शक्ति को लेकर चिंताओं को व्यक्त किया है - मलक्का दुविधा - वैश्विक महासागरों में कथित अमेरिकी प्रभुत्व के संबंध में और नौसैनिक शक्ति के असंतुलन के निवारण के लिए वह सराहनीय दृढ़ संकल्प के साथ आगे बढ़ा है.

पिछले 25 वर्षों में पीएलए में नौसेना की वृद्धि असाधारण रूप से रही है और इसकी तुलना शीत युद्ध के दशकों के दौरान दिग्गज एडमिरल गोर्शकोव द्वारा सोवियत नौसेना की जाने वाली देखरेख से की जा रही है.

वर्तमान में चीन ने वैश्विक समुदाय के लिए दो चुनौतियां पेश की हैं. पहली कोविड- 19 और इससे निपटने के लिए बीजिंग की वास्तविक रचनात्मक भूमिका निभाने का स्तर जिस पर वह तैयार है और दूसरी चुनौती है, जो कुछ राष्ट्रों को प्रभावित कराती है, वह धमकी के स्वर में मुखरता जो शी जिनपिंग शासन ने भूमि सीमाओं / क्षेत्र (ताइवान) और समुद्री दावों के संबंध में अपनाई है.

बीआरआई (बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव) के समेकन के रूप में भी. यदि स्थिति का करीब से आंकलन करें तो कई देशों की राजधानियों में यह असहजता महसूस की जा रही है कि चीन 2049 तक वैश्विक नंबर एक स्थान पर पहुंचने के लिए बेरहमी से आगे बढ़ रहा है, जो कि 1949 में अस्तित्व में आये चीनी कम्युनिस्ट राज्य का शताब्दी वर्ष है, ताकि वह इस क्षेत्र में अपने हिसाब से पैक्स सिनिका यानि चीनीयों को लाभान्वित करने वाली 'शांति' स्थापित कर सकें.

भारत-प्रशांत क्षेत्र के लिए विशिष्ट समुद्री क्षेत्र एक निश्चित उत्तोलन प्रदान करता है, जिसमें चीन द्वारा दी जा रही चुनौती का दीर्घकालिक प्रबंधन करने की क्षमता है और यह वह जगह है जहां हाल में साथ आये चरों देश अपनी प्रासंगिकता प्राप्त कर सकते हैं. फिर भी, यहाँ फिर दोहराना प्रासंगिक होगा कि अभी इसपर कार्य प्रगति पर है जिसमें अभी चीन के अस्तित्व और व्यापार-प्रौद्योगिकी-बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में उसके बढ़ते क़दमों के निशानों को लेकर कई जटिल अंतर्विरोध शामिल हैं.

यहां तक कि क्वाड राष्ट्रों के बीच, चीन के साथ उनके द्विपक्षीय संबंध विरोधाभासी हैं और अलग अलग रास्तों पर जा रहें है और उनमें से सभी राज्य-विशिष्ट नहीं हैं. इसका अर्थ है कि वैश्विक बाजार की गतिशील और तकनीकी अंतर-निर्भरता ने एक आसान द्विआधारी विकल्प की संभावना को मिटा दिया है, जबकि जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया के लिए अमेरिका-चीन की प्रतिस्पर्धा उच्च स्तर की रणनीतिक प्रासंगिकता में है, लेकिन विकल्प के अनुकूल बीजिंग अधिक पेचीदा है, क्योंकि उनमें से प्रत्येक का चीन के साथ एक मजबूत व्यापारिक और आर्थिक संबंध है, जिसे एक आवेगपूर्ण तरीके से खत्म नहीं किया जा सकता है.

चीन के लिए भी यही सच है जो इस धारणा पर आगे नहीं बढ़ सकता है कि वह चतुरकोण के सदस्यों और अन्य समान विचारधारा वाले देशों के साथ अपने संबंधों को प्रतिबंधित / सिकोड़ देगा और पाकिस्तान, उत्तर कोरिया और शायद ईरान जैसे- 'हर-मौसम' में साथ देने वाले मित्रों के साथ ही रहेगा. यहां तक कि चीन के प्रति सहिष्णु रुख रखने वाला रूस, आर्थिक तौर पर आधीन होने के बावजूद चीन केंद्रित विश्व व्यवस्था में उपनिवेशित छोटे साझेदार की भूमिका में खुद को स्वीकार नहीं करेगा.

महामारी के प्रकोप के बाद जब कभी भी वैश्विक वातावरण में कुछ स्थिरता आएगी और वैश्विक आर्थिक सुधार दिखाई देगा तो इस चतुरकोणीय संघ के परिचालन उद्देश्यों की एक स्पष्ट रूप से दीर्घकालिक रूपरेखा सर्वसहमति से तैयार करनी होगी. इस समूचे क्षेत्र में प्रभावी नौसैनिक क्षमता हासिल करना और उसे बनाए रखना एक महंगा प्रस्ताव है और प्रत्येक राष्ट्र को अपने स्वयं के लागत-लाभ विश्लेषण पर पहुंचना होगा ताकि वे तय कर सकें कि वे इस सामूहिक सामुद्रिक अभियान में कितना निवेश करने की इच्छा रखते हैं.

नौसेना / समुद्री क्षेत्र मध्यम अवधि में चतुरकोणीय सहयोग और अंतर-संचालन के लिए कई विकल्प प्रदान करता है और एक उम्मीद है कि इंडोनेशिया और अन्य आसियान राष्ट्र भी इस प्रयास का हिस्सा बन सकते हैं. अंतरराष्ट्रीय कानून और प्रथागत व्यवहार के अनुसार वैश्विक जन-हितों का प्रबंधन एक घोषित उद्देश्य है और प्रधान मंत्री मोदी अक्सर अलग-अलग अंतरराष्ट्रीय बैठकों में इस मुद्दे पर जोर देते रहे हैं.

विरोधाभासी रूप से, जबकि अमेरिका इस सिद्धांत को मानता है, वह स्वयं संयुक्त राष्ट्र के कानून (यूएनसीएलओएस) का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है, लेकिन संधि की भावना का पालन करता है. इसके विपरीत चीन यूएनसीएलओएस का हस्ताक्षरकर्ता है, लेकिन उसने दक्षिण चीन सागर के संबंध में इस संधि के आधार पर अन्तराष्ट्रीय न्यायलय के फैसले को अस्वीकार करने का मार्ग चुना है.

यही कारण है कि चीन द्वारा कानून का अनुपालन सुनिश्चित करना एक कठिन कार्य होगा और इसमें कूटनीति और नौसेनिक क्षमताओं की सम्मतकारी शक्ति का मिश्रण होगा.

पीएम मोदी के 'सागर' योजना के अनुकूल उसकी प्रतिध्वनि होने के बावजूद यह इस चतुरकोणीय संघ के लिए यह चुनौती दीर्घकालिक है, जिसमें इस समुद्री क्षेत्र में सबकी सुरक्षा और विकास सुनिश्चित होगा.

(सी उदय भास्कर, निदेशक, सोसायटी फॉर पॉलिसी स्टडीज)

Last Updated : Jul 21, 2020, 3:33 PM IST
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