देहरादून(उत्तराखंड): हमारे देश में बाढ़, बारिश या भीड़ के दबाव के कारण आए दिन बड़े बड़े पुल धराशाई हो जाते हैं. कुछ पुल तो उद्घाटन से पहले ही जमींदोज हो जाते हैं, लेकिन क्या आप यकीन करेंगे कि आज से लगभग 170 साल पहले एक ऐसे पुल का निर्माण किया गया जो आज भी ज्यों के त्यों खड़ा है. इस पुल का काम सिर्फ इंसानी बोझ उठाना नहीं बल्कि गंगा जैसी पवित्र नदी की धारा के एक छोर को दूसरे छोर तक जोड़ना भी था. इस पुल का निर्माण ब्रिटिश काल में 1854 में हुआ. यह उस दौर का ऐसा पहला पुल था जिसे इस तरह से डिजाइन किया गया था कि इसके नीचे से बरसाती नदी और ऊपर से गंगा कैनाल की धारा को पुल के ऊपर से होते हुए उत्तर प्रदेश तक भेजा जा सके. आज भी अद्भुत इंजीनियरिंग का नमूना है. इस पुल का नाम सोलानी पुल है, जो हरिद्वार और रुड़की के बीच में पिरान कलियर पर बना है.
पुल है इंजीनियरिंग का नायाब नमूना: बात लगभग 1854 की है. उस वक्त भारत में अकाल पड़ गया था. बताया जाता है कि सूखा पड़ने की वजह से 8 लाख लोगों की जान चली गई. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने दौर में ऐसा सूखा नहीं देखा था. इस सूखे की वजह से ब्रिटिश सरकार को कई करोड़ रुपए का नुकसान हुआ. दोबारा ऐसे अकाल और सूखा न पड़े इसके लिए एक योजना बनाई गई. योजना हरिद्वार से बहने वाली गंगा को उत्तर प्रदेश के दूसरे छोर तक ले जाने की थी. गंगा की धारा उस वक्त भी निरंतर बहती थी. जनता की पहुंच से दूर होने की वजह से पानी जमीनों तक नहीं पहुंच पाता था. ऐसे में ब्रिटिश सरकार के गवर्नर जॉर्ज ऑकलैंड ने इस समस्या का समाधान ढूंढने के लिए चर्चा शुरू की. तब हरिद्वार से आगे गंगा को कैनाल के माध्यम से कानपुर तक पहुंचाने का प्लान बना. ये कैनाल लगभग 500 किलोमीटर की थी. अब ये कैसे बनेगी इसके लिए कई सालों तक योजनाएं बनती रही. इस दौरान कितने गवर्नर आए और कितने गवर्नर गए. 1839 में हरिद्वार से दूसरी छोर तक गंगा कैनाल का सर्वे करने का काम इंजीनियर प्रोबी थॉमसकॉटली को मिला. सर्वे में कैसे हरिद्वार से उत्तर प्रदेश तक गंगा को कैनाल के माध्यम से पहुंचाया जाएगा, जंगल, ऊंचे नीचे रास्ते, सभी पहलुओं पर गौर किया गया. इंजीनियर प्रोबी थॉमस कॉटली ने इस काम को अंजाम तक पहुंचाने के लिए दिन रात एक कर दिये.
ऐसे बना पुल, रिसर्च सेंटर बना आईआईटी रुड़की: सालों तक चले सर्वे के काम के बाद कॉटली ने ब्रिटिश सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी. रिपोर्ट में बजट और समय सीमा का जिक्र किया गया था. लेकिन अचानक से ब्रिटिश सरकार ने एक फैसला. अब इस नहर के बनने के बाद इसके पानी को सिर्फ सिंचाई के लिए नहीं बल्कि ढुलाई के लिए भी इस्तेमाल किया जाएगा. मतलब एक जगह से दूसरी जगह सामान को ले जाने और लाने के लिए भी इसी नहर का प्रयोग किया जाएगा. ब्रिटिश सरकार ने इस प्रस्ताव के साथ-साथ इस काम का बजट भी बढ़ा दिया. कॉटली का काम फिर बढ़ गया. इस काम के दौरान हरिद्वार के नजदीक भीमगौड़ा बैराज के पास एक बांध बनाया गया. बांध बनाने का मकसद गंगा की धारा को रेगुले करना था. इसके बाद कॉटली ने सोलानी नदी पर एक पुल बनाने की योजना बनाई. नीचे से सोलानी नदी और ऊपर से गंगा कैनाल की धारा को किस तरह से दूसरे छोर पर पहुंचाया जाएगा यह काम बेहद कठिन था, लेकिन कॉटली ने कठिन काम को भी आसानी से किया. उन्होंने सोलानी नदी के ऊपर एक आधे किलोमीटर लंबा एक्वाडक्ट पुल का निर्माण शुरू किया. इसका मतलब नदी के ऊपर से नदी को आसानी से निकालना और दोनों नदी का पानी एक दूसरे में ना मिले. इस पुल को बनाने के लिए उन्हें लगभग 2 साल का समय लगा. बताया जाता है कि इस पुल का निर्माण इतना कठिन था कि कॉटली को पूरा का पूरा एक रिसर्च सेंटर इसी क्षेत्र में बनाना पड़ा. जिसका आज नाम आईआईटी रुड़की है.
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पुल को बनाने के लिए चली थी देश की पहली मालगाड़ी: यह भारत का पहला ऐसा पुल था जिसको रुड़की में ही बनाया गया. इस पुल के निर्माण के मुस्लिमों के पवित्र धार्मिक स्थल पिरान कलियर से इस पुल तक के लिए एक मालगाड़ी भी चलानी पड़ी. यह माल गाड़ी उस वक्त भाप का इंजन से चलती थी. मालगाड़ी चलाने का मकसद जल्द से जल्द काम को खत्म करना था. कॉटली ने जब इस पुल का निर्माण किया, इससे पानी गुजरा तो एक बार यह पुल क्षतिग्रस्त हो गया. इसके बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी. वह इंग्लैंड जाने के बाद दोबारा कुछ तकनीक सीख कर आए. उन्होंने दोबारा इस पुल का निर्माण शुरू किया. लोग बताते हैं कि दोबारा जब इस पुल का परीक्षण हो रहा था तब कॉटली इस पुल के नीचे बैठ गए थे. उन्होंने कहा अगर इस बार प्रोजेक्ट को कुछ भी हुआ तो वह गंगा की धारा के साथ ही बह जाएंगे, लेकिन वापस अपने देश नहीं जाएंगे. जैसे ही पुल के ऊपर से पानी गुजरा तो पुल से एक बूंद भी पानी नीचे नहीं गिरी.
3 लाख में तैयार हुआ था नायाब पुल: इंजीनियरों की मेहनत के बाद 560 किलोमीटर तक की गंग नहर को तैयार किया गया. उसके बाद से आज तक उत्तर प्रदेश सहित अन्य जैसे दिल्ली शहरों और कई हजार गांव में इसी गंग नहर से सिंचाई के लिए पानी आज भी पहुंच रहा है. इस अनोखे पुल को बनाने के लिए उस वक्त लगभग 3 लाख का खर्च आया. इस पूरे प्रोजेक्ट को बनाने का खर्च डेढ़ करोड़ था. बताया जाता है कि उस वक्त से पुल और नहर को देखने के लिए कई देशों से इंजीनियर यहां पर पहुंचे थे.
आईआईटी के इंजीनियर ने भी की तारीफ: आईआईटी दिल्ली के इंजीनियर विमल गर्ग भी इस पुल का तारीफ करते हैं. उनका कहना है मौजूदा समय में इस तरह के पुल नहीं बनाए जा रहे हैं. आज से 70 साल पहले की यह सोच बताती है कि किस तरह से इंजीनियर अपने काम के प्रति सजग और सतर्क रहा करते थे. उन्होंने बताया इस पुल के दूसरी तरफ भी एक और इस तरह के पुल का निर्माण किया गया है. विमल गर्ग कहते हैं हमने सुना है कि उस वक्त इस नहर को देखने के लिए देश-विदेश से इंजीनियर यहां पहुंचते ते. इसके बाद इसी पेटेंट को ध्यान में रखते हुए देश में कई जगहों पर पुलों का निर्माण किया गया.
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रुड़की की खूबसूरती में चार चांद लगाता है पुल: हरिद्वार रुड़की के बीच सालों से काम कर रहे सुमित्र पांडेय कहते हैं वे देश के कई हिस्सों में जाते रहते है, लेकिन उन्होंने पहली बार इस तरह का पुल रुड़की में ही देखा. अब कई देशों में इस तरह के पुल बन रहे हैं. उन्होंने कहा पुल को बनाने वाले वाले सर प्रोबी थॉमस कॉटली कितने महान इंजिनियर होंगे इस बात का अंदाज़ा इस से लगा सकतें है की आज भी रुड़की आईआईटी में छात्र उनको पढ़ते हैं. उनके नाम से आईआईटी में एक पूरा का पूरा छात्रवास है. ये पुल कांवड़ में भी बहुत उपयोगी है. छोटे मोटे वाहन भी इससे गुजरते हैं. उन्होंने बताया ये पुल रुड़की की खूबसूरती में चारचांद लगाता है.
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