वाराणसी: 9 नवंबर को विश्व उर्दू दिवस मनाया जाता है. इसका उद्देश्य उर्दू भाषा को जन-जन तक पहुंचाना है, जिससे उर्दू भाषी ही नहीं बल्कि गैर उर्दू भाषी भी इस भाषा को जान व समझ सके. धर्म, आध्यात्म और गंगा-जमुना तहजीब की नगरी काशी में भी एक ऐसे विद्वान हैं, जिन्होंने उर्दू भाषा को एक अलग पहचान दी है.
वाराणसी के डॉ. टीएन श्रीवास्तव ने उर्दू भाषा में सनातन धर्म की सबसे बड़ी पुस्तक श्रीमद्भागवत गीता का उर्दू में अनुवाद किया है. खास बात यह है कि इस पुस्तक में जहां एक ओर संस्कृत के श्लोक लिखे हुए हैं तो वहीं दूसरी ओर उर्दू में कविता के रूप में श्रीमद् भागवत गीता का अनुवाद किया गया है, जो अपने आप में अनोखा है.
वाराणसी के पहाड़िया इलाके में रहने वाले 91 वर्षीय बुजुर्ग टीएन श्रीवास्तव उर्दू से बेहद प्रभावित है.बचपन से ही उन्होंने उर्दू भाषा को अपनी शिक्षा में शामिल किया और उर्दू को ही अपने लिखने का जरिया बनाएं.यही वजह है कि वह सनातन संस्कृति की सबसे बड़ी पुस्तक श्रीमद् भागवत गीता व हिंदी साहित्य का उर्दू में अनुवाद कर चुके हैं.
इनके अनुवाद की खासियत यह है कि ये उर्दू के अनुवाद में भी छंद, कविता के स्वरूप की मदद लेते हैं और कविता के रूप में अपनी रचना करते हैं.इनके द्वारा अनुवादित श्रीमद्भागवत गीता पुस्तक की भी एक खासियत है कि पुस्तक में एक ओर जहां संस्कृत के श्लोक लिखे हुए हैं तो वहीं दूसरी ओर उर्दू में श्लोकों का वर्णन किया गया है, जो एक कविता के रूप में लिखे गए हैं.
ईटीवी भारत से बातचीत में टीएन श्रीवास्तव ने बताया कि वह पेशे से एक इंजीनियर रहे, लेकिन उर्दू हमेशा से उनकी पसंदीदा भाषा रही. यही वजह है कि उन्होंने रिटायरमेंट के बाद अलग-अलग विद्वानों की हिंदी साहित्य की किताबों का उर्दू में अनुवाद किया, जो समाज में उर्दू को एक अलग पहचान व सम्मान दे रही है. उनके द्वारा अनुवादित की गई पुस्तकें विद्यार्थियों व आम जनता के लिए भी लाभदायक हैं.
बातचीत में डॉ. श्रीवास्तव ने कहा कि उर्दू ज़ुबान कोई बाहरी ज़ुबान नहीं है, इसे लोग अलग संप्रदाय धर्म की ज़ुबान मानते हैं. लेकिन उर्दू किसी एक मजहब की ज़ुबान नहीं हैं, बल्कि ये हिंदुस्तान की ज़ुबान है और यह हिंदुस्तान में ही पैदा हुई है. इसलिए इस ज़ुबान पर किसी एक मजहब का नहीं, बल्कि पूरे देश का हक है और सभी लोगों को उर्दू भाषा में बोलना और लिखना चाहिए.
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टीएन श्रीवास्तव की बहू मधु ने बताया कि उनके पिताजी वर्तमान समय में भी उर्दू के पठन-पाठन का कार्य करते हैं. रिटायर होने के बाद उन्होंने अपना सारा ध्यान उर्दू की लेखनी में लगा दिया. उन्होंने कहा कि आज उन्हें बेहद गर्व महसूस होता है कि मेरे पिता ने गीता जैसी सनातन धर्म की पुस्तक का उर्दू में अनुवाद किया, जो अपने आप में एक बड़ी बात है.उन्होंने कहा कि हमारे पिताजी युवाओं के लिए प्रेरणा है और समाज के लिए एक आईना है कि किसी ज़ुबान की कोई मजहब नहीं होती बल्कि जुबान हर किसी की होती है.