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वाराणसी हो गई 67 साल की, जानिए कब मनाया जाता है काशी नगरी का जन्मदिन

भगवान शिव की नगरी काशी बनारस या वाराणसी 67 साल की हो गई है. वरुणा नदी और अस्सी नदी की वजह से 1956 में इस शहर को वाराणसी शहर के नाम से लोग जानने लगे.

काशी शिव की नगरी
काशी शिव की नगरी
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Published : May 24, 2023, 6:35 PM IST

वाराणसी: कहने को तो वाराणसी एक शहर है. लेकिन, इसे जीवन का वह सार माना जाता है, जिसके समझने मात्र से ही जिंदगी की तमाम कठिनाइयां आसानी से आगे बढ़ने लगती हैं. शायद यही वजह है कि इस जिंदा शहर बनारस का जन्मदिन लोग बड़े ही अनोखे तरीके से मनाते हैं. बुधवार 24 मई को बनारस शहर का 67वां जन्मदिन मनाया गया. इस दिन ही शहर को वाराणसी नाम अधिकारिक तौर पर दिया गया था. लंबी कवायद के बाद सरकार की तरफ से वरुणा और अस्सी नदी के बीच में बसे इस शहर को वाराणसी नाम दिया गया था. दुनिया में काशी, बनारस के साथ वाराणसी को भी दस्तावेज में पाया है. जिसकी वजह से हर साल इस सबसे पुराने जीवंत शहर का जन्मदिन काशीवासी मनाते हैं.

ऐसी मान्यता है कि काशी शिव की नगरी है और यहां कण-कण में शिव विराजते हैं. काशी को धरती पर नहीं बल्कि शिव के त्रिशूल पर बसा हुआ शहर माना जाता है. यही वजह है कि देश की आजादी के बाद प्रशासनिक तौर पर इस शहर को काशी से वाराणसी नाम देने का काम सरकारी गजेटियर में किया गया था. यह कार्य डॉ. संपूर्णानंद के मुख्यमंत्री के समय हुआ था. जिसकी वजह से वह भी बेहद खुश थे.

वाराणसी नगर निगम के अधिकारियों की मानें तो काशी का नाम सरकारी दस्तावेज में 24 मई 1956 को दर्ज किया गया था. वाराणसी नाम इसलिए पड़ा क्योंकि काशी में गंगा के अलावा उसकी दो सहायक नदियां भी बहती हैं. वरुणा और अस्सी नदियों के बीच में बसे होने की वजह से ही 1956 में इस शहर को वाराणसी के नाम से जाना गया. 66 साल बाद 2023 में आज हर जगह वाराणसी नाम से जाना जाता है. कैंट रेलवे स्टेशन भी वाराणसी जंक्शन के नाम से है. इसके अलावा वाराणसी नाम हर दस्तावेज में सरकारी तौर पर दर्ज है.

वैसे काशी ऐसा शहर है, जिसके एक और दो नाम नहीं बल्कि दर्जन भर से ज्यादा नाम हैं. इस शहर को हर कोई अपने नाम से पुकारता है. यहां रहने वाले लोग इसे बनारस कहते हैं तो अंग्रेज इसे बेनारस के नाम से जानते थे. संस्कृत में इसे अविमुक्त क्षेत्र आनंदवन मोक्ष की नगरी रुद्रवास के नाम से जाना जाता है. काशी को महाश्मशान, जितवरी, सुदर्शन, ब्रह्मवर्धन, रामनगर, मालिनी, पुष्पावती, आनंद कानन और मोहम्मदाबाद आदि नाम से भी पुरातन काल में जाना जाता था.

ऐसा माना जाता है कि काशी की परंपराओं के क्रम में 24 मई की तिथि को ही वाराणसी का जन्मदिन माना जाता है. इलाहाबाद राजकीय प्रेस में ईशा बसंती जोशी के संपादक काल में यह गजेटियर 1965 में प्रकाशित भी किया गया था. 531 पन्नों में दर्ज दास्तान में वाराणसी शहर में इतिहास भूगोल और पर्यावरण ही नहीं बल्कि मंदिरों और महत्वपूर्ण स्थलों के बारे में भी विस्तार से बताया गया है.

जिस वक्त इस शहर को वाराणसी नाम दिया गया. उस समय उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री डॉ. संपूर्णानंद थे. उनकी अपनी पृष्ठभूमि भी वाराणसी से ही जुड़ी थी. काशी विद्यापीठ में अध्ययन से भी लंबे समय से जुड़े रहे इतिहासकारों का कहना है कि काशी आज से नहीं बल्कि अनादि काल से मोक्ष और ज्ञान की नगरी के रूप में जानी जाती रही है. यहां देश के अलग-अलग हिस्सों से तो लोग आते ही हैं. इसके अलावा दुनिया भर से भी लोग शांति और सुकून की तलाश में आते हैं. यहां पर हिंदू- मुस्लिम दोनों मिलकर रहते हैं. इसलिए इस शहर को बनारस कहा जाता रहा है.

यह भी पढ़ें- काशी विश्वनाथ मंदिर में पैसे लेकर स्पर्श दर्शन करवाने वाले 2 कर्मचारी गिरफ्तार

वाराणसी: कहने को तो वाराणसी एक शहर है. लेकिन, इसे जीवन का वह सार माना जाता है, जिसके समझने मात्र से ही जिंदगी की तमाम कठिनाइयां आसानी से आगे बढ़ने लगती हैं. शायद यही वजह है कि इस जिंदा शहर बनारस का जन्मदिन लोग बड़े ही अनोखे तरीके से मनाते हैं. बुधवार 24 मई को बनारस शहर का 67वां जन्मदिन मनाया गया. इस दिन ही शहर को वाराणसी नाम अधिकारिक तौर पर दिया गया था. लंबी कवायद के बाद सरकार की तरफ से वरुणा और अस्सी नदी के बीच में बसे इस शहर को वाराणसी नाम दिया गया था. दुनिया में काशी, बनारस के साथ वाराणसी को भी दस्तावेज में पाया है. जिसकी वजह से हर साल इस सबसे पुराने जीवंत शहर का जन्मदिन काशीवासी मनाते हैं.

ऐसी मान्यता है कि काशी शिव की नगरी है और यहां कण-कण में शिव विराजते हैं. काशी को धरती पर नहीं बल्कि शिव के त्रिशूल पर बसा हुआ शहर माना जाता है. यही वजह है कि देश की आजादी के बाद प्रशासनिक तौर पर इस शहर को काशी से वाराणसी नाम देने का काम सरकारी गजेटियर में किया गया था. यह कार्य डॉ. संपूर्णानंद के मुख्यमंत्री के समय हुआ था. जिसकी वजह से वह भी बेहद खुश थे.

वाराणसी नगर निगम के अधिकारियों की मानें तो काशी का नाम सरकारी दस्तावेज में 24 मई 1956 को दर्ज किया गया था. वाराणसी नाम इसलिए पड़ा क्योंकि काशी में गंगा के अलावा उसकी दो सहायक नदियां भी बहती हैं. वरुणा और अस्सी नदियों के बीच में बसे होने की वजह से ही 1956 में इस शहर को वाराणसी के नाम से जाना गया. 66 साल बाद 2023 में आज हर जगह वाराणसी नाम से जाना जाता है. कैंट रेलवे स्टेशन भी वाराणसी जंक्शन के नाम से है. इसके अलावा वाराणसी नाम हर दस्तावेज में सरकारी तौर पर दर्ज है.

वैसे काशी ऐसा शहर है, जिसके एक और दो नाम नहीं बल्कि दर्जन भर से ज्यादा नाम हैं. इस शहर को हर कोई अपने नाम से पुकारता है. यहां रहने वाले लोग इसे बनारस कहते हैं तो अंग्रेज इसे बेनारस के नाम से जानते थे. संस्कृत में इसे अविमुक्त क्षेत्र आनंदवन मोक्ष की नगरी रुद्रवास के नाम से जाना जाता है. काशी को महाश्मशान, जितवरी, सुदर्शन, ब्रह्मवर्धन, रामनगर, मालिनी, पुष्पावती, आनंद कानन और मोहम्मदाबाद आदि नाम से भी पुरातन काल में जाना जाता था.

ऐसा माना जाता है कि काशी की परंपराओं के क्रम में 24 मई की तिथि को ही वाराणसी का जन्मदिन माना जाता है. इलाहाबाद राजकीय प्रेस में ईशा बसंती जोशी के संपादक काल में यह गजेटियर 1965 में प्रकाशित भी किया गया था. 531 पन्नों में दर्ज दास्तान में वाराणसी शहर में इतिहास भूगोल और पर्यावरण ही नहीं बल्कि मंदिरों और महत्वपूर्ण स्थलों के बारे में भी विस्तार से बताया गया है.

जिस वक्त इस शहर को वाराणसी नाम दिया गया. उस समय उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री डॉ. संपूर्णानंद थे. उनकी अपनी पृष्ठभूमि भी वाराणसी से ही जुड़ी थी. काशी विद्यापीठ में अध्ययन से भी लंबे समय से जुड़े रहे इतिहासकारों का कहना है कि काशी आज से नहीं बल्कि अनादि काल से मोक्ष और ज्ञान की नगरी के रूप में जानी जाती रही है. यहां देश के अलग-अलग हिस्सों से तो लोग आते ही हैं. इसके अलावा दुनिया भर से भी लोग शांति और सुकून की तलाश में आते हैं. यहां पर हिंदू- मुस्लिम दोनों मिलकर रहते हैं. इसलिए इस शहर को बनारस कहा जाता रहा है.

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