वाराणसी: नेपाल और भारत के रिश्तों को सुधारने के लिए नेपाल के प्रधानमंत्री शेर सिंह देउबा इन दिनों भारत के दौरे पर हैं. विदेश मंत्री से मुलाकात करने के बाद अब वह जल्द ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात करेंगे. भारत दौरे पर वह प्रधानमंत्री मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी भी आएंगे. बनारस से नेपाल के रिश्ते आज से नहीं बल्कि सैकड़ों साल पुराने हैं. उन रिश्तों का निर्वाहन आज भी बनारस भारत के प्रतिनिधि के तौर पर करता रहा है.
बहुत कम लोग ही जानते हैं कि बनारस में आज भी एक ऐसा परिवार मौजूद है, जो बीते डेढ़ सौ वर्षों से काशी में नेपाल के तीर्थ पुरोहित के रूप में नेपाली भाई-बहनों के लिए पूजा, अनुष्ठान, श्राद्ध कर्म व तर्पण करवाने का कार्य कर रहा है. इस परिवार को लाल मोहरिया पंडा के रूप में जाना जाता है, जो बीते डेढ़ सौ सालों से काशी के महातीर्थ मणिकर्णिका घाट पर बनारस में रहते हुए नेपाली संस्कृति और परंपरा को जीवित रखने का कार्य कर रहा है.
दरअसल, भारत और नेपाल के रिश्ते पुरातन समय से ही काफी मजबूत रहे हैं. जब नेपाल में राजतंत्र था तो भारत से नेपाली राजाओं के रिश्ते बेहतर थे. लोकतंत्र आने के बाद राजनीति के कारण थोड़ी खटास आ गई. लेकिन, अब उम्मीद है कि फिर से चीजें सामान्य होंगी. इसी उम्मीद के साथ बनारस में रहने वाले लाल मोहरिया पंडा समाज के लोग भी काशी आ रहे नेपाल के प्रधानमंत्री का स्वागत करने की तैयारी कर रहे हैं. यह वह पंडा समाज है जो नेपाल की संस्कृति, सभ्यता और वहां के पूजा-पाठ अनुष्ठान के अनुरूप काशी में रहकर नेपाल के तीर्थ पुरोहित के रूप में कार्य कर रहा है.
इस परिवार के सदस्य कृपाशंकर द्विवेदी ने बताया कि लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व नेपाल के तत्कालीन राजा जंग बहादुर राणा वाराणसी में एक गरीब भिखारी के रूप में पहुंचे थे. वह नेपाल से आने वाले अपने लोगों को काशी में हो रही दिक्कतों की शिकायत सुनकर खुद काशी आए थे. यहां पर एक मुट्ठी जौं लेकर उन्होंने मणिकर्णिका घाट पर अपने पूर्वजों का श्राद्ध कर्म व तर्पण करने का निवेदन कई लोगों से किया, लेकिन सभी ने जौं के बदले श्राद्ध कर्म का तर्पण करने से इंकार कर दिया. उस वक्त यहां रह रहे द्विवेदी परिवार ने उनकी मदद की. उन्होंने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए एक मुट्ठी जौं के बदले ही सारा पूजा-पाठ संपन्न करवाया.
पूजा-पाठ संपन्न होने से जंग बहादुर राणा बेहद खुश हुए. उन्होंने बाद में अपना परिचय बताते हुए एक ताम्रपत्र पर नेपाल राजघराने की लाल मोहर लगाकर वह तामपत्र द्विवेदी परिवार को सौंपते दी. उन्होंने काशी में इस परिवार को नेपाल के तीर्थ पुरोहित के रूप में स्थापित करने का आदेश दिया. तभी से आज तक यहां पर नेपाल से आने वाले हर नागरिक का पूजा-पाठ अनुष्ठान श्राद्ध कर्म का, तर्पण का कार्य यही परिवार करवाता आ रहा है.
कृपाशंकर द्विवेदी का कहना है कि 1993 में तत्कालीन राजा वीरेंद्र राणा के साथ नेपाल की राजमाता भी काशी आईं थी. उन्होंने इसी घाट इसी स्थान पर बैठकर अपने पूर्वजों का श्राद्ध कर्म और तर्पण संपन्न किया था. फिलहाल आज भी बड़ी संख्या में नेपाल से आने वाले लोग काशी के इसी परिवार के पास आते हैं और काशी में श्राद्धकर्म, तर्पण और पूजा-पाठ का पूरा अनुष्ठान इन्हीं के सानिध्य में संपन्न कराते हैं. नेपाल से आने वाले लोग भी यहां आकर बेहद खुश नजर आते हैं.
गौरतलब है कि इस परिवार के लोगों की एक व्यथा है. उनका कहना है जब नेपाल में राज शासन था, तब वहां से आने वाले किसी भी राज्य परिवार के सदस्य की सूचना इस परिवार को सबसे पहले दी जाती थी. लेकिन जब से लोकतंत्र आया तब से नेपाल सरकार ने इस परिवार को भुला ही दिया है. अब कोई भी आता है, सूचना किसी दूसरे के जरिए मिलती है. बस यही तकलीफ है, लेकिन परिवार इस बात से बेहद खुश है कि नेपाल के प्रधानमंत्री का यहां आगमन हो रहा है और उनका स्वागत परिवार कर रहा है.
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