वाराणसी: आज के डिजीटल युग में मोबाइल से ही लोगों को फुर्सत नहीं मिल रही है. अगर फुर्सत मिले तो उन्हें वे किताबें और उपसन्यास में अपनी रूची अवश्य दिखानी चाहिए. ऐसी कथा, कहानी और साहित्य जिन्हें महान रचनाकार और कथाकारों ने अपनी सोच से कलम के जरिए कागज पर उतारा है. इन्होंने न सिर्फ किसान, गरीब मजलूमों और जानवरों के दर्द को अपनी लेखनी से लोगों के सामने रखने की कोशिश की, बल्कि देश की आजादी में लिखे गए उनके शब्द अंग्रेजों की हुकूमत को हिलाने वाले भी साबित हो गए. ऐसे ही महान रचनाकारों में से एक थे कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद.
वाराणसी से लगभग 15 किलोमीटर दूर लमही गांव में जन्मे मुंशी प्रेमचंद की 142वीं जयंती 31 जुलाई को मनाई जाएगी. मुंशी प्रेमचंद्र का गांव बदलाव की तस्वीर को तो बयां कर रहा है. लेकिन इतने महान कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद के जीवन के संघर्षों के बाद उनके घर और तमाम उन दावों पर भी प्रश्नचिन्ह लगा रहा है, जो हुक्मरानों ने मुंशी जी के स्मृतियों को संजोकर लमही को इंटरनेशनल लेवल तक ले जाने के लिए किए थे.
मुंशी जी ने अपनी लेखनी के जरिए आजादी की लड़ाई को आगे बढ़ाया
महान उपन्यासकार साहित्यकार और लेखक मुंशी प्रेमचंद के जन्म लमही नामक गांव में हुआ था. जब देश आजादी के लिए संघर्ष कर रहा था, तब हर कोई अपना योगदान इस आजादी की लड़ाई में अपने तरीके से दे रहा था. वहीं, बनारस के लमही गांव में जन्मे मुंशी प्रेमचंद ने अपनी लेखनी के जरिए आजादी की लड़ाई को आगे बढ़ाया. अंग्रेजों को उनकी लेखनी इतनी नागवार गुजरती थी, कि उनके द्वारा लिखे गए पत्रों और किताबों को जलवा दिया जाता था.
मुंशी प्रेमचंद्र की रचनाएं
क्रांतिकारी और रोचक लेखनी के जन्मदाता मुंशी प्रेमचंद हैं, जिन्होंने निर्मला, मंगलसूत्र, कर्मभूमि जैसे 15 उपन्यास, लगभग 300 से ज्यादा कहानियां, 3 नाटक, 10 पुस्तकों का अनुवाद, 7 बाल साहित्य और न जाने कितने ही लेख लिखकर उपन्यास और साहित्य प्रेमियों को वह खजाना दिया, जो आज भी प्रासंगिक है. इन्हें कई नामों से जाना गया. कोई इन्हें मुंशी जी कहता था, कोई प्रेमचंद तो कोई इन्हें धनपत राय के नाम से जानता था.
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समाज में व्याप्त कुरीतियों और रुढ़िवादी परंपराओं को तोड़ने में दिया महत्वपूर्ण योगदान
लगातार संघर्ष करते हुए मुंशी प्रेमचंद ने आजादी की लड़ाई के बाद समाज में व्याप्त कुरीतियों और रूढ़िवादी परंपराओं को तोड़ने के लिए भी अपनी लेखनी का जबरदस्त उपयोग किया. विधवा विवाह जैसे रूढ़िवादी और समाज को तोड़ने वाली बातों को दरकिनार कर उन्होंने इसके लिए आवाज उठाई और विधवा महिला से शादी कर उन्होंने सभी को आश्चर्यचकित किया. इसके बाद उन्हें घर से भी निकाला गया.
गांव में मौजूद है पैतृक आवास
आज हालात यह हैं कि मुंशी प्रेमचंद के गांव में उनका पैतृक आवास कागजों में अब तक संस्कृति मंत्रालय के पास जाने के लिए दौड़ रहा है, लेकिन चीजें रुकी हुई हैं. मुंशी प्रेमचंद जी के गांव में उनका पैतृक आवास आज भी मौजूद है. जिस कमरे में बैठकर मुंशीजी ने तमाम रचनाएं कि वह कमरा आज भी संजोकर रखा गया है. उनका आंगन उनकी मौजूदगी का आज भी एहसास कराता है, लेकिन दुख इस बात का है कि सिर्फ जयंती के मौके पर ही मुंशी जी को याद किया जाता है.
मुंशी जी को जयंती के ही दिन क्यों याद किया जाता है?
वहीं, घर के पास में एक संग्रहालय भी है, जहां पर मुंशी जी के हाथों की लिखित किताबें, उपन्यास और साहित्य मौजूद हैं. यहां पर मुंशी जी का पसंदीदा हुक्का और चरखा भी रखा हुआ है. लेकिन सब कुछ को संजोने होने का काम यहां के स्थानीय लोग ही करते हैं. लोगों को तकलीफ इस बात की है कि, मुंशी जी सिर्फ एक दिन याद क्यों किए जाते हैं? जिस महान साहित्यकार और लेखक से उनके गांव का नाम है.
कहीं देश दुनिया में जाने पर सिर्फ नाम ही नाम लेने पर भी यहां के लोगों को इज्जत मिलती है. उस महान लेखक और साहित्यकार को सरकार सिर्फ एक दिन ही क्यों याद करती है? क्यों उनके गांव को उस रूप में डेवेलप नहीं किया जा रहा है. जिस रूप में तमाम बड़े साहित्यकारों को विदेशों में पहचान देने का काम किया जा जाता रहा है.
विदेशों की तर्ज पर मुंशी जी के गांव को भी अलग पहचान दी जानी चाहिए. जिस तरह विलियम शेक्सपियर के गांव को लोगों के लिए खोला गया एक अलग पहचान दी गई. ऐसी सुविधाएं यहां पर भी मिलनी चाहिए. हालांकि सरकारी तौर पर दावे तो बड़े लंबे-लंबे हैं. लेकिन सच्चाई क्या है. यह तो यहां आने के बाद ही साफ होता है. मुंशी जी की तमाम स्मृतियां उनका घर आज भी लोगों के लिए यहां मौजूद हैं. दुख इस बात का है की पिछली कई सरकारों ने वादे किए, लेकिन वादे अब तक पूरे नहीं हो सके हैं.
जयंती के बाद खंडहर के रूप में तब्दील हो जाता है मुंशी जी का घर
मुंशी जी के इस घर और मुंशी जी की तमाम स्मृतियों को संजोकर रखने वाले और इनकी देखरेख कर हमेशा से संघर्ष करने वाले सुरेश चंद्र दुबे का कहना है कि मुंशी जी ने देश की आजादी में योगदान दिया. आज उनका गांव सिर्फ बनारस के लोगों के लिए ही महत्वपूर्ण है, जबकि बाहर से आने वाले लोग यहां आकर उदास होते हैं. मुलायम सिंह की सरकार में घर को रेनोवेट करने का काम हुआ. इसके बाद संस्कृति मंत्रालय ने यहां पर सिर्फ मुंशी जी की जयंती के मौके पर कार्यक्रम के जरिए उन्हें श्रद्धा-सुमन अर्पित करना शुरू किया. इस दौरान उनके घर की देखरेख और साफ-सफाई के लिए तो लोग आ जाते हैं. लेकिन बाकी पूरे साल घर खंडहर के रूप में तब्दील होता है.
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घर को म्यूजियम बनाने का प्लान अब तक पूरा नहीं हुआ
जिस घर में मुंशी जी रहते थे, उसे म्यूजियम बनाने का प्लान कई साल पहले तैयार हुआ लेकिन आज तक हुआ है. सरकार का कहना है कि इस प्रयास हो रहा है. जिलाधिकारी कौशलराज शर्मा से बातचीत करने पर उन्होंने बताया कि इस संदर्भ में प्रयास किए जा रहे हैं. उनके आवास की वजह से उनके रिश्तेदार और अन्य लोगों को साथ लेकर इस काम को किया जाना है. उनकी सहमति मिले इसके बाद ही सरकारी तौर पर इसे आगे बढ़ाया जाएगा.
आज भी बदलाव का इंतजार कर रही है लमही
सुरेश दुबे सहित गांव के लोगों का यही मानना है कि मुंशी जी ने पूरे देश की सेवा की. एक से बढ़कर एक रचना उपन्यास और कथा देश को दी है. वह लमही आज भी अपने बदलाव का इंतजार कर रही है. प्लान कागजों पर दौड़ रहे हैं. लेकिन हकीकत के धरातल पर अभी इनके उतारने का इंतजार है. हालात यह हैं कि मुंशी जी के घर में पीने के पानी का कनेक्शन नहीं है. बिजली के कनेक्शन को काटे लगभग 3 साल हो चुके हैं और मीटर भी नदारद है.
कार्यक्रम के दौरान बिजली विभाग बाहर से लाइट लेकर घर को रोशन करता है. बिजली के साथ पीने के पानी के लिए कनेक्शन न होने के कारण टैंकर से पानी की सप्लाई होती है. यानी कुल मिलाकर सड़कों और मकानों के रंग रोगन से लमही की सूरत बदलने का प्रयास तो हुआ, लेकिन सच में लमही जिसके लिए जाने जाती है उस ओर शायद अब भी पूरी तरह से ध्यान नहीं दिया गया.
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