वाराणसी: महादेव की नगरी काशी में भगवान विष्णु के अवतार और जगत के पालनहार प्रभु जगन्नाथ की 3 दिवसीय रथयात्रा मेले का शुभारंभ हुआ. फूल मालाओं से सुसज्जित रथ पर भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और भाई बलराम के साथ भक्तों को दर्शन दिया करते हैं. मान्यताओं के अनुसार काशी में इस दर्शन पर उतना ही पुण्य मिलता है जितना कि पुरी के भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने से प्राप्त होता है. महामारी कोविड-19 के बाद 2 वर्ष बाद इस मेले का आयोजन किया गया है. भक्त भी भगवान के दर्शन के लिए व्याकुल दिख रहे हैं.
मेले का इतिहास 1802
काशी के प्रसिद्ध अस्सी क्षेत्र में लगभग 1790 में श्री जगन्नाथ मंदिर का निर्माण कराया गया था. 1802 से रथयात्रा के मेला की परंपरा शुरू की गई जो अनवरत चलती आ रही है. वैश्विक महामारी के कारण 2 वर्षों तक रथयात्रा का मेला आयोजित नहीं किया गया, लेकिन परंपराओं के इस शहर ने एक बार फिर अपने सैकड़ों वर्ष पुराने इस परंपरा का निर्वहन किया.
स्थान का नाम रथयात्रा
उड़ीसा स्थित पुरी के प्रसिद्ध रथयात्रा मेले की शुरुआत के साथ ही प्रति वर्ष काशी में भी रथयात्रा मेले की शुरुआत होती है. पुरी की तरह यहां पर भी भगवान जगन्नाथ अपनी बहन और भाई के साथ विशाल रथ पर सवार होकर नगर के रथयात्रा क्षेत्र में भक्तों को दर्शन देते हैं. पुरी का रथ यात्रा मेला 14 दिवसीय होता है जबकि यहां का मेला 3 दिन का होता है. इस मेले में भक्तों की लाखों की संख्या में भाग लेने की वजह से इसे लक्खा मेला भी कहते हैं. मान्यताओं के अनुसार इस मेले से काशी में पर्व और त्योहारों का शुरुआत हो जाता है.
वाराणसी: नाथों के नाथ जगन्नाथ 1 जुलाई को बहन सुभद्रा और भाई बलभद्र के साथ भक्तों को दर्शन देने के लिए रथ पर सवार होकर निकलने वाले हैं. रथयात्रा का पावन पर्व पूरे देश में धूमधाम के साथ मनाया जाएगा, लेकिन यह जानना भी जरूरी है कि रथयात्रा है क्या? और क्यों मनाया जाता है यह पर्व और पूजा का विधान क्या है? प्रभु का. इस बारे में वाराणसी से काशी विश्वनाथ मंदिर न्यास के सदस्य और ज्योतिषाचार्य पंडित प्रसाद दीक्षित ने जगन्नाथ रथ यात्रा पर जानकारी दी.
ज्योतिषाचार्य पंडित प्रसाद दीक्षित का कहना है कि भगवान श्री जगन्नाथ की द्वादश यात्राओं में गुंडिचा यात्रा मुख्य है. ऐसी मान्यता है कि इसी गुंडिचा मंदिर में भगवान विश्वकर्मा जी ने भगवान जगन्नाथ जी, बलभद्र जी और सुभद्रा जी की दारू प्रतिमाएं बनाई थी. राजा ने इन्हीं मूर्तियों को प्रतिष्ठित किया. अतः गुंडिचा मंदिर को ब्रह्मलोक या जनकपुर भी कहते हैं. गुंडिचा मंदिर में यात्रा के समय श्री जगन्नाथ जी विराजमान होते हैं. उस समय यहां जो महोत्सव होता है वह गुंडिचा महोत्सव कहलाता है.
स्कंदपुराण में भी वर्णन आया है कि जेष्ठ मास के शुक्लपक्ष में जो पूर्णिमा आती है. उसमें जेष्ठा नक्षत्र की एक ही अंश में चंद्रमा एवं बृहस्पति हो, बृहस्पति का ही दिन हो और शुभ योग भी हो तो वह महाजेष्ठी पूर्णिमा कहलाती है, जो सब पापों का नाश करने वाली महापुण्यमई और भगवान की प्रीति को बढ़ाने वाली है. उसमें करुणासिंधु देवेश्वर जगन्नाथ जी के स्नानाभिषेक तथा पूजन का दर्शन करके मनुष्य पापराशि से मुक्त हो जाता है.
उत्साह आरंभ होने पर श्री कृष्ण, बलभद्र और सुभद्रा जी को ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य लोग धीरे-धीरे ले जाएं. बीच-बीच में रूईदार बिछावना पर उन्हें विश्राम कराएं तथा इस प्रकार उन सबको रथ पर ले जाए. फिर उस उत्तम रथ को घुमाकर श्री कृष्ण, बलभद्र तथा सुभद्रा जी को सुंदर मंडप से सुशोभित रथ में विराजमान करें. उन सबको रूईदार गद्दा पर बिठाकर भक्तिपूर्वक भांति - भांति के वस्त्र, आभूषण तथा मालाओं से विभूषित करें. नाना प्रकार के उपचारों से उनकी पूजा भी करें. ऐसी मान्यता है कि जब रथ पर विराजमान होकर यात्रा करते हुए श्री जगन्नाथ जी का जो लोग भक्तिपूर्वक दर्शन करते हैं उनका भगवान के धाम में निवास होता है.
ऐसी मान्यता है कि प्रभु जगन्नाथ के नाम का संकीर्तन करने मात्र से 100 जन्मों का पाप नष्ट हो जाता है. रथ में स्थित हो महावेदी की ओर जाते हुए उन पुरुषोत्तम श्री कृष्ण बलभद्र और सुभद्रा जी का दर्शन करके मनुष्य अपने करोड़ों जन्मों के पापों का नाश कर लेता है. मेघों के द्वारा जल की वर्षा के संयोग से रथ का मार्ग जब कीचड़ युक्त हो जाता है. उस समय भी वह श्री कृष्ण की दिव्य दृष्टि पड़ने से समस्त पापों का नाश करने वाला होता है. मार्ग में जो उत्तम वैष्णव भगवान को साष्टांग प्रणाम करते हैं वह अनादि काल से अपने ऊपर चढ़े हुए पाप को त्याग कर मुक्त हो जाते हैं, जो भगवान वासुदेव के आगे जय शब्द का उच्चारण करते हुए स्तुति करते हैं वे सभी प्रकार के पापों पर निसंदेह विजय पा जाते हैं, जो श्रेष्ठ पुरुष नित्य करते हैं और गाते हैं वे उत्तम वैष्णो के संसर्ग से मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, जो भगवान के नामों का कीर्तन करता हुआ. उस यात्रा में साथ साथ जाता है और गुंडिचा नगर को जाते हुए श्री कृष्ण की ओर देखकर भक्ति पूर्वक 'जय कृष्ण, जय कृष्ण, जय कृष्ण का उच्चारण करता है वह माता के गर्भ में निवास करने का दु:ख कभी नहीं भोगता, जो मनुष्य रथ के आगे खड़ा होकर फूलों के गुच्छे अथवा वस्त्रों से भगवान पुरुषोत्तम को हवा करता है वह ब्रह्मलोक में जाकर मोक्ष पाता है.
ज्योतिषाचार्य पंडित प्रसाद दीक्षित का कहना है कि यह पावन पर्व प्रभु और भक्तों के मिलन का अद्भुत पर्व माना जाता है. बहुत कम पर वैसे होते हैं, जिसमें ईश्वर अपने मंदिर से बाहर निकलकर भक्तों के बीच आते हैं और यह पर्व ईश्वर और भक्तों के मिलन की साक्षात गवाही देता है और इंद्र भी प्रसन्न होकर जल अर्पित कर प्रभु जगन्नाथ माता सुभद्रा और भगवान बलभद्र का स्वागत करते हैं.
इस दौरान पवित्र 'सहस्रनाम' का पाठ करते हुए रथ की प्रदक्षिणा कर भगवान विष्णु के समान होकर बैकुंठ धाम में निवास करने का सौभाग्य मिलता है, जो मनुष्य भगवान श्री कृष्ण के उद्देश्य से दान देता है उसका वो थोड़ा भी दान मेरुदान के समान अक्षय फल देनेवाला होता है. जो भगवान के आगे रहकर उनके मुखारविंद का दर्शन करते हुए और पग पग पर प्रणाम करते हुए मार्ग की धूल या कीचड़ में लोटते हैं, वे क्षणभर में मुक्ति रूपी फल को पाकर श्री विष्णु के उत्तम धाम में चले जाते हैं. इस प्रकार बलभद्र और सुभद्रा के साथ भगवान श्री कृष्ण उत्तम रथ पर विराजमान हो चारों दिशाओं को प्रकाशित करते हुए और अपने अंगों का स्पर्श करके बहनेवाली वायु के द्वारा समस्त देहधारियों के पापों का नाश करते हुए यात्रा करते हैं. वे बड़े दयालु और भक्तों के पालक हैं, जो अज्ञानी और अविश्वासी हैं, उनके मन में भी विश्वास उत्पन्न करने के लिए भगवान विष्णु प्रतिवर्ष यात्रा आरंभ करते हैं.
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