रायबरेली: अपने अथक प्रयासों के बलबूते छात्रों के जीवन में रोशनी लाने वाले रायबरेली शहर के राजकीय इंटर कॉलेज के प्राचार्य टीपी सिंह की दिव्यांगता उनके काम में कभी आड़े नहीं आई. अपने शिष्यों को पढ़ाने में उन्हें कभी कोई कठिनाई नहीं हुई. बेहद सहजता से अपने शिष्यों से जुड़ने वाले नागरिक शास्त्र के शिक्षक रहे टीपी सिंह खुद की कामयाबी को आंकने के लिए अपने छात्रों की सफलता को ही पैमाना मानते हैं. यही कारण है कि दिव्यांग होने के बावजूद भी वह अपने छात्रों के बीच खासे लोकप्रिय रहे हैं. शिक्षक दिवस के अवसर पर ईटीवी भारत ने उनसे खास बातचीत की.
खास बातें-
- 6-7 महीने की उम्र में ही एक डॉक्टर की गलती से आंखों की रोशनी चली गई थी.
- शिक्षक टीपी सिंह ने कानपुर के दृष्टिबाधित बच्चों के विद्यालय से शुरुआती शिक्षा ग्रहण की.
- टीपी सिंह अपना प्रेरणास्रोत अपने बड़े भाई समान मित्र शिवकुमार त्रिपाठी और घनश्याम श्रीवास्तव को मानते हैं.
पढ़ाई के दौरान बड़े भाई को बताते हैं प्रेरणास्रोत
अपने शुरुआती संघर्ष के बारे में चर्चा करते हुए टीपी सिंह कहते है कि बचपन में एक डॉक्टर की गलत दवा का असर रहा कि करीब 6-7 माह की उम्र में ही उनकी आंखों की रोशनी चली गई. बावजूद इसके शिक्षा के प्रति हमेशा सकारात्मक रवैया अपनाकर वह आगे बढ़ते गए. फतेहपुर जनपद में जन्मे और कानपुर के दृष्टिबाधित बच्चों के विद्यालय से शुरुआती शिक्षण ग्रहण किया. इसके बाद बीएनएसडी, क्राइस्ट चर्च और डीएवी कॉलेज में आगे की पढ़ाई की.
बीएड और एमएड करने के बाद रायबरेली के राजकीय इंटर कॉलेज में बतौर नागरिक शास्त्र प्रवक्ता के रूप में नियुक्ति हुई. इस दौरान वह राष्ट्रीय दृष्टिहीन संघ नाम संस्था से जुड़े रहे और वहीं से सामाजिक कार्यों के प्रति चेतना जगी और बतौर सामाजिक कार्यकर्ता शिक्षक बनकर शिक्षा के प्रचार प्रसार पर ही जोर दिया. उन्होंने कहा कि आगे चलकर इसमें सफलता भी मिली, जब खुद के पढ़ाए हुए शिष्य कामयाब होकर निकले. कुछ प्रवक्ता बने, कुछ प्रधानाचार्य बने, कुछ पीसीएस अधिकारी बने यह क्रम अभी भी जारी है. खुद की पढ़ाई के दौरान टीपी सिंह अपना प्रेरणास्रोत अपने बड़े भाई समान मित्र शिवकुमार त्रिपाठी और घनश्याम श्रीवास्तव को मानते हैं. वह कहते हैं कि आधी रात में भी नींद त्यागकर मेरी पढ़ाई में उन्होंने मदद की थी.
टीपी सिंह के पढ़ाए छात्र सफलतापूर्वक कर रहे हैं कार्य
पूर्व प्राचार्य टीपी सिंह अपने किसी खास शिष्य के बारे में पूछे जाने पर बताते हैं कि तमाम शिष्यों में कुछ चुनिंदा ऐसे भी शिष्य रहे, जिन्होंने उन्हें गौरवांवित महसूस कराया. उन्हीं में से एक अनुराग खरे हैं, जो खुद से तो दृष्टिमान हैं पर दृष्टिहीन छात्रों के लिए उनकी पहल बेहद विशेष रही है. इंदौर से प्रशिक्षण लेकर वर्तमान में वह बतौर प्रवक्ता गोरखपुर के दृष्टिबाधित विद्यालय में कार्यरत हैं. इसके साथ ही दिव्यांगों से जुड़े तमाम योजनाओं के लिए शासन और प्रशासन महत्वपूर्ण सुझाव के लिए हमेशा से अनुराग खरे से संपर्क में रहता है.
इसके अलावा रायबरेली शहर के ही लोहिया परिवार के 3 दिव्यांग बच्चे हैं. तीनों ही उनके छात्र रहे और आज सभी अपने पैरों पर खड़े हैं और खुद का मुकाम बनाने में कामयाब हैं. शिव प्रकाश लोहिया के दो पुत्र और एक पुत्री समेत तीनों दिव्यांग हैं. 3 में से एक सफलतापूर्वक अपना व्यापार चला रहे हैं, दूसरा कानपुर में सरकारी सेवारत है और बेटी राजधानी लखनऊ के राजकीय दृष्टिबाधित विद्यालय के प्राचार्य के पद पर सुशोभित है. खास बात यह है कि तीनों ही दिव्यांगों के कल्याण के लिए भी बेहद प्रयासरत रहते हैं.
वर्तमान में गुरु और शिष्य के रिश्ते पर की बात
टीपी सिंह कहते हैं निश्चित तौर पर गुरु और शिष्य के बीच के रिश्ते अब प्राचीनकाल जैसे नहीं रहे है और न ही वह समर्पण भाव रह गया. उन्होंने बताया कि गुरु शब्द में 'गु' का अर्थ अंधेरे से है और 'रु' का अर्थ उजाले यानी ज्ञान से जुड़ा है. मतलब अज्ञानता से ज्ञान की ओर ले जाने वाले को गुरु की संज्ञा दी गई है. अध्यापक अथवा शिक्षक समाज का माली और कुम्हार होता है. वह जिस प्रकार से चाहे वह अपने शिष्य को वैसा ही रुप प्रदान कर सकता है.