रायबरेली : कोरोना महामारी ने जंहा शहरी जीवन को रोक दिया है, वहीं इससे गांवों में निवास करने वाले कामगारों की जिंदगी भी थम सी गई है. मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हारों की दशा भी इस समय दयनीय हो गई है. हालत इतनी खराब हो चुकी है कि वो दाने-दाने के लिए मोहताज हो चुके हैं.
कोरोना ने कुम्हारों की हालत की खराब
रायबरेली जिले के सदर तहसील के डिघिया ग्रामसभा में रहने वाले कुम्हारों की जिंदगी भी इस लॉकडाउन ने लॉक कर दिया है. जिले में कई कुम्हार मिट्टी के घड़े बनाकर खरीदार का इंतजार कर रहे हैं. लेकिन कोरोना महामारी का दौर शुरू होते ही लॉकडाउन लग गया और ये जिसके लिए बनाए गए थे वो इन्हें खरीदने ही नहीं आए. कुम्हारों के चाक का पहिया रुक गया और उसके रुकते ही भट्ठियां बुझ गईं. जो बर्तन बने थे वो बनकर रखे ही रह गए. कुम्हार के चाक के रुकते ही उनके परिवार के जीवन की भी गाड़ी रुक गई. अब तो इनको खाने के लाले पड़ रहे हैं.
गरीबों के सामने खाने के पड़े लाले
दरअसल, पिछले एक साल से कोरोना महामारी के चलते काम धंधे बंद से चल रहे हैं. छोटा-मोटा व्यवसाय करने वालों को खरीदार नहीं मिल पा रहे हैं. मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हार हों या दोना पत्तल बनाने वाले हों, इनके धंधों पर लॉकडाउन लग गया है. आज इसी की हकीकत जानने के लिए ईटीवी भारत की टीम जिले की सदर तहसील के डिघिया गांव में पहुंची.
इस गांव में नूर मोहम्मद से मिला तो उन्होंने अपने दिल के जख्मों को सामने रख दिया. उनका कहना था कि एक तो थर्माकोल के बर्तनों ने उनको पहले ही परेशान किया हुआ था और अब लॉकडाउन ने आग में घी का काम किया है. अब तो खाने तक के लाले पड़ गए हैं. न तो कोई खरीदार आ रहा है और न ये अपने बर्तनों को बेचने के लिए खुद बाजार जा पा रहे हैं. कल तक इनका परिवार हंसता खिलखिलाता था लेकिन अब ये मायूसी में जी रहे हैं. वहीं सरकार की ओर से घोषित योजनाओं का लाभ भी इन्हें नहीं मिल पाता, क्योंकि इन्हें उन योजनाओं की जानकारी ही नहीं है. अगर यही हाल रहा तो एक दिन ऐसा भी आएगा जब ये कोरोना से तो बच जाएंगे, लेकिन पेट की भूख इन्हें जिंदा नहीं रहने देगी.
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गांवों में निवास करने वाले इन कुम्हारों की तरह ही कई और परिवार भी इस समय अपने परिवार को चलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. कोरोना और लॉकडाउन के कारण आज सकड़ों-हजारों परिवार भूख की मार झेल रहे हैं.